गत 24 अक्तूबर को नागपुर में रेशिमबाग स्थित रा.स्व.संघ के मुख्यालय में विजयादशमी उत्सव सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि, सिने जगत के सुप्रसिद्ध गायक-संगीतकार श्री शंकर महादेवन ने शस्त्र पूजन किया। स्वयंसेवकों ने शारीरिक और घोष का सुंदर प्रदर्शन किया। इस अवसर पर सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले व अन्य वरिष्ठ अधिकारी, केन्द्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी, प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री श्री देवेंद्र फडनवीस व अनेक मंत्री, स्वयंसेवक व गणमान्यजन उपस्थित थे। पूज्य सरसंघचालक ने अपने उद्बोधन में विश्व में भारत के बढ़ते कद और उसमें समाज के योगदान की चर्चा की। सरसंघचालक ने अमृतकाल में भारतवासियों से स्व को जगाने का आह्वान किया और उसके माध्यम से विश्व के कल्याण की राह दिखाई। प्रस्तुत हैं पूज्य सरसंघचालक के उसी उद्बोधन का संपादित स्वरूप
विश्व में भारतीयों का गौरव प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। विजयादशमी पर्व दानवता पर मानवता की पूर्ण विजय का पर्व है। इस वर्ष की विजयादशमी में हम यह अनुभव कर रहे हैं। ऐसा अनुभव देने वाले कई प्रसंग हाल ही में हम सबके संज्ञान में आए हैं।
उदाहरण के लिए, भारत में जी-20 का शिखर सम्मेलन हुआ। इस वर्ष इसके भारत में होने में एक विशेषता रही। सम्मेलन में हमारे भारतीयों के आतिथ्य की बड़ी प्रशंसा हुई। अतिथियों ने हमारी विविधता से सजी संस्कृति के गौरव का अनुभव किया। दुनियाभर के लोगों ने भारत की वर्तमान उमंग भरी उड़ान को प्रत्यक्ष देखा। हमारे मन का सद्भाव झलका अफ्रीकी संघ को इस संगठन का सदस्य बनाने में, पहले ही दिन सम्मेलन का घोषणा पत्र एक मत से पारित कराने में। हमारी राजनयिक कुशलता भी सबने देखी।
विशेष रूप से, ऐसे आर्थिक विषयों पर केंद्रित सम्मेलन में पहली बार ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की बात की गई, महिलाओं की उन्नति की, महिलाओं के नेतृत्व की बात की गई। उसमें करुणा के वैश्वीकरण की बात भी हुई। इस सम्मेलन से यह झलक मिली कि आज दुनिया में हमारा क्या स्थान बना है। आज के हमारे नेतृत्व के कारण भारत दुनिया के अग्रणी देशों में गिना जा रहा है। यह अभिनंदनीय है।
इस बार एशियाई खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने 107 पदक (28 स्वर्ण, 38 रजत और 41 कांस्य) जीते। हमारा देश हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, यह हम सब देख रहे हैं। विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में भी हम दसवें स्थान से उठकर पांचवें पर आ गए। हमने डिजिटल टेक्नोलॉजी का गरीबों के कल्याण में उपयोग किया, इससे सारी योजनाएं नीचे तक पहुंचीं। स्टार्ट-अप्स में तो जैसे क्रांति हो गई। केवल टेक्नोलॉजी में नहीं तो कृषि, अंतरिक्ष, प्रतिरक्षा आदि हर क्षेत्र में प्रगति हुई है।
श्रीराम मंदिर-भारत का अमृत काल
किसी राष्ट्र का पुरुषार्थ उस राष्ट्र की अपनी धरोहर के आधार पर, अपने वैश्विक प्रयोजन को सिद्ध करने वाले आदर्शों के आधार पर होता है। ऐसे राष्ट्रों का अनुकरण किया जाता है। हमारे संविधान में जिनके चित्र सज्जित हैं, उन हमारे राष्ट्रीय आदर्श भगवान राम उनके बाल स्वरूप श्री रामलला का मंदिर अयोध्या में बनने जा रहा है। रामलला अब 22 जनवरी को अपने मंदिर में प्रवेश करने वाले हैं। उस दिन पूरे देश में हम अपने-अपने स्थान पर, अपने छोटे-छोटे मंदिरों में वातावरण राममय बना सकते हैं। भगवान राम धर्म की मर्यादा के प्रतीक हैं, समाज में सब लोगों को अपनाने वाले हैं। वे करुणा के प्रतीक हैं। पूरे देश में इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आत्मीयता, सर्वसमावेशिकता, समरसता, प्रेम, स्नेह का धार्मिक वातावरण बने, ऐसे कार्यक्रम हम सब अपनी जगह पर कर ही सकते हैं। निस्संदेह भारत का अमृत काल देखने का सौभाग्य हम सबको मिला है।
हम सदाचार, अहिंसा की शिक्षा देने वाले भगवान् महावीर जी की 2550वीं जयंती मना रहे हैं। हम हिंदवी स्वराज के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज की 350वीं जयंती मना रहे हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती, जिन्होंने देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने योग्य बनने के लिए हमें फिर से अपने मूल की ओर लौटाया और उसकी स्पष्ट और यथार्थ कल्पना दी, रूढ़ि-कुरीतियों को दूर करके उसका अर्थ बताया। उनकी भी हम 200वीं जयंती मना रहे हैं।
इसी प्रकार भारतीय महिलाओं की शक्ति, उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धिमत्ता, पराक्रम, प्रशासकीय कुशलता, प्रजाहित दक्षता का परिचय देने वाली रानी दुर्गावती की 500वीं और भक्त संत मीराबाई की 550वीं जयंती भी हम मनाने वाले हैं। कुशल राजनीतिक प्रशासन, प्रजाहित दक्षता के साथ ही अपने जीवन को सामाजिक विषमता के निर्मूलन में लगा देने वाले कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज की भी 150वीं जयंती हम मना रहे हैं।
हमारे यहां लोकतंत्र है, सब समान हैं। कोई ऊपर-नीचे नहीं है। उसकी पद्धति से ही हमको चलना पड़ेगा, परंतु समाज की एकता के लिए हमको राजनीति से अलग होकर सारे समाज का विचार करते हुए चलना पड़ेगा
हाल ही में हमने तमिलनाडु के संत श्री रामलिंगम वल्ललार जी का जयंती कार्यक्रम संपन्न किया। उन्होंने युवावस्था से ही समाज में स्वतंत्रता की अलख जगानी प्रारंभ कर दी थी। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी के प्रतीकों का समाधान करने का प्रण लिया था। इस दिशा में उन्होंने अन्नदान प्रारंभ किया। उस समय तमिलनाडु में अन्नदान के लिए उन्होंने जो चूल्हा जलाया था वह आज भी जल रहा है और वहां अन्नदान कार्यक्रम चल रहा है। आध्यात्मिक-सांस्कृतिक जागृति के आधार पर सामाजिक क्षमता और स्वतंत्रता का संदेश देने वाले संत वल्ललार जी का 200वीं जयंती वर्ष अभी संपन्न हुआ है।
इन सब महापुरुषों के द्वारा हमको संदेश मिलते हैं सामाजिक समरसता, स्व के गौरव, परंपरा के। हमारी हर बात में हमारा स्व प्रकट होता है। संगीत, अन्न आदि हर चीज में स्व झलकता है। आज वही स्व दुनिया को दर्शाने का समय है। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि उस स्व का गौरव धारण करके स्व के आधार पर संपूर्ण दुनिया को देश का एक यशस्वी जीवन खड़ा करके दिखाना।
विश्व चाहता समाधान
आज विश्व में अनेक समस्याएं हैं, जिनका हल उनको नहीं मिल रहा। स्वार्थ और कट्टरपन के चलते कलह होती है। विश्व ने प्रयास किया सबको एक रंग में रंगने, एकरूपता लाने का, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि सृष्टि बनी है विविधता से। वह विविध ही रहेगी। उसके पास विविधता में एकता लाने का कोई आधार नहीं है। इसलिये स्वार्थ रहता ही है, कट्टरपन भी रहता है। उसके चलते एक उन्माद पैदा होता है, अहंकार पैदा होता है। आज उसी के संघर्ष चल रहे हैं। स्वार्थों के टकराव और अतिवादिता के कारण युद्ध चलते हैं। उसका कोई उपाय नजर नहीं आता। ये सारे दोष प्रकृति विरुद्ध जीवन शैली, जीवन में स्वैरता, अनिर्बांध उपभोग, आत्यंतिक व्यक्तिवाद, अमर्यादित शोषण, अधूरी दृष्टि के कारण उपजे हैं। उसके चलते पर्यावरण आदि की समस्याएं पैदा हुई हैं। विश्व को उसका समाधान नहीं दिख रहा है और उसकी अपेक्षा है कि भारत रास्ता दिखाए।
भारत को अपने देश में इन समस्याओं का निराकरण करके समाधान दिखाना होगा। अपने देश में भी ये समस्याएं हैं। यह कोई गलत बात नहीं है, जीवन में समस्याएं रहती ही हैं। लेकिन आज हम विश्व को दिखा रहे हैं कि समस्याओं का सामना करके उनका उपाय करेंगे। अभी हिमालय क्षेत्र में जोशीमठ में जमीन दरकने की घटनाएं हुईं, हिमाचल प्रदेश में जिस प्रकार घर धंसने लगे। पूरे हिमाचल क्षेत्र में प्रकृति का प्रकोप दिखता है। लोग सोच रहे हैं कि क्या होगा? लेकिन डरने की नहीं, उसका निदान करने की जरूरत है।
सीमाएं हों सुरक्षित
हमारी दृष्टि से यह महत्वपूर्ण क्षेत्र है। हमारी उत्तरी सीमा इस क्षेत्र से बनती है, हमको सीमा सुरक्षा का भी विचार करना पड़ेगा। इस क्षेत्र में उत्तर भारत की सारी बड़ी नदियां जल लाती हैं। चीन को भी जल ले जाती हैं, दक्षिण पूर्व एशिया को भी जल ले जाती हैं। इस क्षेत्र के खराब होने का मतलब है हमारी जल व्यवस्था का खराब होना। तो जल सुरक्षा का भी विचार करना पड़ेगा। पर्यावरणीय स्वास्थ्य का भी विचार करना पड़ेगा। उत्तर में हिमालय की दीवार है, इसलिए हमारे यहां छह ऋतुएं आती हैं। इसमें बदलाव होता है तो निश्चित ही पर्यावरण का संकट उठ खड़ा होता है। जल सुरक्षा, पर्यावरणीय सुरक्षा, सीमा सुरक्षा आदि मिला कर देश के स्वास्थ्य के लिए, उस हिमालय क्षेत्र का एक क्षेत्र के नाते विचार करते हुए हमें उसका समाधान निकालना पड़ेगा।
‘संस्कृति, परंपरा और देश-हित के संरक्षण में संघ कार्य अद्वितीय’
विजयादशमी उत्सव में सुप्रसिद्ध गायक शंकर महादेवन द्वारा व्यक्त विचार
यह धरती जहां हम ‘असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का मंत्र गुंजाते हैं, यह विश्व-शांति का मंत्र है। हर इंसान की शांति के लिए प्रार्थना है। यही हमारा देश है, यही हमारी संस्कृति। जैसे किसी गीत की धुन सरगम से सधी होती है, वैसे ही यदि हम देश को एक गीत मानें तो स्वयंसेवक इसके पीछे की विभिन्न समस्याओं और चुनौतियों से निपटने वाली सरगम की तरह हैं, जो इसे साधते हैं।
अखंड भारत के हमारेविचार, हमारी संस्कृति व परंपरा के संरक्षण में स्वयंसेवकों से ज्यादा किसी का योगदान नहीं है। मेरा कर्तव्य भावी पीढ़ियों को गीत-संगीत के माध्यम से हमारी संस्कृति के प्रति शिक्षित करना, इसे प्रसारित करना है। मैं युवाओं और बच्चों के साथ बातचीत में, अपने शो, रियलिटी शो और यहां तक कि फिल्मी गानों में भी यही करने की कोशिश करता हूं।
यहां आकर आज मुझे अद्भुत अनुभव हुआ। मुझे संघ के इस विजयादशमी उत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने का निमंत्रण मिला तब कई लोगों ने मुझे इसके लिए बधाई दी। उन्होंने कहा, ‘मैं भाग्यशाली हूं।’ मुझे बहुत आत्मीयता के साथ इस कार्यक्रम के लिए निमंत्रित किया गया। मैं हृदय से चाहता हूं कि संघ के स्वयंसेवक देशहित के जिस कार्य में लगे हुए हैं उसे और गति मिले, क्योंकि हमारे देश की संस्कृति और परंपरा की रक्षा हेतु आपके जैसा सद्प्रयास किसी और ने नहीं किया है।
मैं कहना चाहता हूं कि मुझे आज अपने भारत का नागरिक होने को लेकर गर्व की अनुभूति होती है। मेरा इतना ही आग्रह है कि देशवासी जहां, जिस क्षेत्र में काम कर रहे हों, वे अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करके राष्ट्र के निर्माण में योगदान दें।
स्व का हो पूर्ण ज्ञान
कुल मिलाकर आज देश आगे बढ़ रहा है, आत्मविश्वास से बढ़ रहा हैै। हमें दुनिया की नकल नहीं करनी है। हमें अपना रास्ता बनाना है। हमें आज के समय में अपनी बातों के आधार पर एक सफल प्रयोग दुनिया को देना है। स्व के आधार पर देश का समाज जीवन खड़ा करना है, यह हम कर रहे हैं। सरकार की नीतियों में भी यह प्रकट हो रहा है। नई सोच और नीतियां इसी दिशा में चल रही हैं। लेकिन प्रशासन को भी ऐसे ही चलना चाहिए। समाज को भी इस दिशा में बढ़ने की आवश्यकता है। समाज को भी अपने स्व का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। देखना चाहिए कि हमारी कौन-सी बात काल-सुसंगत हैं, हमें उन्हें सामने रखना चाहिए। दुनिया में चल रही अच्छी बातों को सीखना है, परंतु उन्हें देशानुकूल बनाकर ही। जो बातें कालबाह्य हो गईं, उनको छोड़ते हुए, अपने आचरण को बदलकर आगे बढ़ना चाहिए। शासन की स्व आधारित युगानुकूल नीति बन रही है। हम गलत नीति पर पोथी निष्ठता के कारण या भ्रामक कल्पनाओं के कारण बहुत आगे चले गए थे। अब धीरे-धीरे वापस लौट रहे हैं। हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है समाज का मन-वचन-कर्म से सहयोग और समर्थन। इससे देश की स्थिति में परिवर्तन आएगा। हम आज की हालत में अगर अपने मूल्यों पर खड़े होकर परिवर्तन लाते हैं तो उससे दुनिया को नया रास्ता मिल जाएगा। लेकिन यहां एक और बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा।
दुनिया में एक नया नाम सुनाई देता है-‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’। या ‘वोक’ जैसे शब्द चलते हैं। उन्होंने 1920 में ही मार्क्स को भुला दिया था। आजकल वे अपनी भ्रामक बातों से विश्व की सारी सुव्यवस्था का विरोध करते हैं
वैमनस्य फैलाने वालों से सजग रहें
दुनिया में कुछ लोग हैं, भारत में भी कुछ लोग हैं जो नहीं चाहते कि भारत आगे बढ़े। इसके लिए वे समाज में विभेद पैदा करते हैं, समाज की सामूहिकता को तोड़ने, अलगाव और टकराव पैदा करने के प्रयास करते हैं। अपनी असावधानी के कारण, अपने अविवेक और परस्पर अविश्वास के कारण हम भी कभी-कभी उसमें फंस जाते हैं और अप्रत्याशित उपद्रव खड़े हो जाते हैं। लेकिन स्मरण रहे, भारत का उत्थान होगा तो कलह मिटेगी। भारत का उत्थान होगा तो दुख जाएगा, शोषण जाएगा। इनके आधार पर अपने स्वार्थ का कारोबार करने वाली दुनिया और अंदर की जो ताकतें हैं, उनमें भारत के बढ़ने से मर्यादा आएगी। वे अपने खेल नहीं खेल सकेंगे। उनका निरंतर विरोध चलता है। ये ताकतें विरोध करने के लिए किसी विचारधारा का आवरण ओढ़ लेती हैं। लेकिन उनका उद्देश्य अपना उल्लू सीधा करने का रहता है इसलिए वह हर प्रामाणिक विचारधारा, नि:स्वार्थ बुद्धि से काम करने वालों के लिए बाधा ही बनता है।
मार्क्स के नाम पर ‘वोकिज्म’
आज दुनिया में एक नया नाम सुनाई देता है-‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’। या ‘वोक’ यानी ‘जगे हुए’, ‘वोकिज्म’-जैसे शब्द चलते हैं। ये नाम तो मार्क्स का लेते हैं, लेकिन 1920 में ही उन्होंने समझा कि मार्क्स ने जो भविष्यवाणी की है, वैसा होने वाला नहीं है। उन्होंने उसी समय मार्क्स को भुला दिया, आजकल वे अपनी भ्रामक बातों से विश्व की सारी सुव्यवस्था का विरोध करते है। विश्व में मांग्लय, संस्कार, संयम का विरोध करते है।
ये लोग अनिर्बंध स्वैराचार के प्रसार के लिए मीडिया और अकादमियों में अपना वर्चस्व स्थापित कर उनका दुरुपयोग करते हैं। देश की शिक्षा को भ्रष्ट करते हैं। देश के संस्कारों को भ्रष्ट करते हैं। राजनीतिक, सामाजिक वातावरण को भ्रम और भ्रष्टता का शिकार बनाते हैं। असत्य, विपर्यस्त और अतिरंजित वृत्त के द्वारा भ्रम और द्वेष फैलाना, भय फैलाना आसान हो जाता है। उसके चलते जो झगड़े बनते हैं, समाज को उन झगड़ों में उलझाकर अपनी पकड़ में लेना, अपनी अधिसत्ता में लाना, वे यह सब करते हैं। किसी भी राष्ट्र की जनता में ऐसी अनास्था, दिग्भ्रम, परस्पर द्वेष उत्पन्न करने वाली ये जो प्रणाली है, अपने यहां चाणक्य नीति में उसका नाम है-मंत्र विप्लव।
विष से एक आदमी मरता है, बाण से एक को ही मार सकते हैं। लेकिन मंत्र विप्लव से प्रजा सहित राजा का नाश होता है, इनकी ऐसी युक्ति है। ऐसे लोगों से हमको बचना पड़ेगा। राजनीतिक स्वार्थों के लिए अपने प्रतिस्पर्धी को पराजित करने के जो प्रयास चलते हैं, उनसे इन शक्तियों के साथ गठबंधन करने का अविवेक भी आता है। यह अपेक्षित नहीं है, लेकिन होता है। और समाज में अगर आत्म विस्मृति है, अनेक प्रकार के भेद हैं, स्वार्थों की प्रतिस्पर्धा है, ईर्ष्या है, द्वेष है तो फिर उनका काम आसान हो जाता है। इसलिए इन आसुरी शक्तियों का बल ना बढ़े, हमें यह सुनिश्चित करना है। इधर-उधर की अनेक घटनाओं से स्पष्ट है कि ऐसे कुप्रयास चल रहे हैं।
शांति भंग करने के दुष्प्रयास
मणिपुर की परिस्थिति आज शांत हो रही है। लेकिन वहां आपस में झगड़ा कैसे हुआ? वहां वर्षों से मणिपुरी मैतेई और मणिपुरी कुकी साथ में रहते आए हैं। फिर अचानक झगड़ा क्यों हुआ? यह भारत का सीमा क्षेत्र है। वहां पर ऐसा होना, अलगाव की बातें खड़ी होना, आपस में झगड़े होना, इसमें किसका फायदा है? निस्संदेह बाहर की शक्तियों का फायदा है। वहां मजबूत सरकार हैै, स्वयं केन्द्रीय गृह मंत्री तीन दिन वहां रहे, अन्य मंत्री भी वहां कई-कई दिन रहे, सारे प्रयास किएा। देश की सरकार प्रतिबद्ध है। शांति का प्रयास हुआ, जो सफल हो रहा है। अचानक कोई हादसा करवा दो, तो दूरी बढ़ती है, द्वेष बढ़ता है। ऐसा करने वालों के पीछे कौन थे, हिंसा भड़काने वाले लोग कौन थे? पता चला कि यह सब कराया जा रहा है। इसलिए वहां बहुत काम या बहुआयामात्मक काम करना पड़ेगा। वहां लोगों के मनों में हताशा आई है।
आज समाज को जोड़ने का सवाल है। संघ के स्वयंसेवक शुरू से अंत तक वही करते रहे, आज भी वही कर रहे हैं। वे सब की सेवा कर रहे हैं। सम दृष्टि से सबको देख रहे हैं। सबके पास जा रहे हैं, सब से बात कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में भी समाज में टूटन पैदा ना हो, इसके लिए उस परिस्थिति में भी अपनी जान हथेली पर रखकर काम कर रहे हैं। उस उकसावे में, भड़काने वाली परिस्थिति में दिमाग ठंडा रखकर उन्होंने काम किया है। हमको उन स्वयंसेवकों पर गर्व है कि उन्होंने मणिपुर में इतना बड़ा काम किया है। लेकिन वहां सबको काम करना पड़ेगा। सरकार की इच्छाशक्ति तो है ही, साथ-साथ प्रशासन को लाना पड़ेगा, सक्रियता-कुशलता दिखानी पड़ेगी। अविश्वास की खाई को पाटने में वहां के प्रबुद्ध नेतृत्व को भी भूमिका निभानी पड़ेगी।
ऐसी अनेक घटनाएं हम देखते हैं। इसका समाधान क्या है? समाधान है-परस्पर टीका-टिप्पणी में ना उलझते हुए, हमको एकता की ओर बढ़ना पड़ेगा। हर परिस्थिति में एकता का भान समाज के विवेक को जाग्रत रखता है। समाज किसी चंगुल में नहीं फंसता, षड्यंत्रों के अधीन नहीं होता तो उसकी वजह यह एकता ही है। संविधान में इसी एकता को, एकात्मता को एक मार्गदर्शक तत्व के नाते उद्धृत किया गया है। डॉ. आंबेडकर ने संविधान प्रस्तुत करते हुए दो भाषण दिए हैं, उन भाषणों को हम ध्यान से पढ़ें तो ध्यान में आता है कि उसमें भी बंधुभाव का ही संदेश है।
एकजुटता का आधार संस्कृति
आज हम दुनिया को देखें तो विभिन्न देशों ने एकता के कुछ मानव निर्मित आधार खोजे हैं। कहीं पर एक रिलीजन आधार बना, कहीं पर एक भाषा आधार बनी, कहीं पर समान आर्थिकी आधार बनी। इनके रास्ते वहां एकता लाई गई। लेकिन यह आधार टिकाऊ नहीं है, उसमें बहुत ज्यादा विविधता नहीं है। उन देशों को ये समझ में नहीं आता है कि भारत में इतनी भाषाएं हैं, इतने पथ-संप्रदाय हैं, इतने खान-पान, रीति-रिवाज हैं, इतनी भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों वाले प्रांत होने के बाद भी सदियों से भारत एक होकर चल रहा है। इसका आधार क्या है? उनको समझ में नहीं आता। उनको ये बात आश्चर्यचकित करती है और आकर्षित भी करती है। इसलिए वे लोग भारत में आते हैं, और आकर बोलते हैं कि हमें भारत से ‘हार्मनी’ या सद्भाव सीखना चाहिए। सारी दुनिया को उसकी जरूरत है, इसे भारत सिखाएगा।
हमारी एकता का आधार क्या है? हमारी एकता का आधार है, हमारी सर्वसमावेशक संस्कृति। जो किसी को पराया नहीं मानती है, विविधताओं को अलगाव नहीं मानती, विविधता को शृंगार मानती है। उसका उत्सव करती है, उसका स्वीकार करती है। हमारी सर्वसमावेशक संस्कृति हम सब को जोड़ती है और केवल जोड़ती नहीं है, हमको सिखाती है कि तुम अकेले नहीं हो, तुम्हारा कुटुंब है। तुम्हारा कुटुंब अकेला नहीं, तुम्हारा गांव है। तुम्हारा गांव अकेला नहीं, तुम्हारा जनपद है। ऐसा करते-करते जनपद से देश, देश से राष्ट्र, राष्ट्र से अंतरराष्ट्रीयता, वसुधैव कुटुंबकम् तक… विश्व के साथ एकात्मता, जड़-चेतन सारा विश्व, यह सिखाने वाली हमारी संस्कृति हमको एक करती है। वह ऐसी बनी, इसका कारण क्या है? हमारे पूर्वजों ने ये प्रत्यक्ष देखा। ये थ्योरी नहीं है, थ्योरी के आधार पर प्रयोग नहीं किया। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभूति की कि सारा विश्व एक है। एक से ही अनेक निकला है। इसलिए अनेकता का शृंगार के नाते स्वागत करो, स्वीकार करो, उत्सव करो। लेकिन हमेशा उसके अंदर जो एकता है, उस पर दृढ़ रहो।
इस सत्य के साक्षात्कार के आधार पर उन्होंने और तीन मूल्यों को आगे बढ़ाया। सत्य है, सब अपने हैं क्योंकि सब एक से ही निकले हैं। और इसलिए परस्पर सद्भाव, करुणा, प्रेम होना चाहिए। ऐसा होने में विकार आड़े आते हैं, स्वार्थ आड़े आता है, काम, क्रोध, मोह आड़े आते हैं। उसको दूर हटाओ, अंतर्बाह्य पवित्र हो जाओ। शुचिता लाओ, जीवन में इसके लिए परिश्रम करो, तपस्या करो। तपस्या केवल अपना पेट भरने या सिर्फ अपने उपभोग के लिए नहीं। मेरे सुख से दूसरों का सुख बढ़े, दूसरों का सुख बढ़ाने के लिए मेरा सुख काम आ जाए। हमारे पूर्वजों ने इस तपस्या का संदेश दिया, उन्होंने कहा कि ये जो चार मूल्य हैं, इसकी चौखट में रहना। ये जो आचरण है, यही धर्म है। इसको धर्म कहते हैं। सत्य, करुणा, तप और शुचिता। इस धर्म के आधार पर जो आचरण करना है वह बुद्धि से नहीं होता, वह तो आदत से होता है। इसलिए आदत बनाने वाले संस्कार जिसमें हैं, ऐसी जीवन पद्धति उन्होंने दी, उससे हमारा स्वभाव बना। पीढ़ी दर पीढ़ी छोटी-छोटी कृतियों में से उस आदत का अभ्यास करते हुए हम एक स्वभाव वाले बनते हैं। वह हमारी संस्कृति है।
‘‘तमस से प्रकाश की ओर ले जाने वाली, असत् से सत् की ओर ले जाने वाली और मर्त्य जीवन के सार से अमर्त्य जीवन की सार्थकता तक बढ़ाने वाली अपनी संस्कृति के आधार पर विश्व के खोए संतुलन को वापस लाने वाला भारत बनाना है। ऐसा भारत बनने का, हमारे राष्ट्र के नवोत्थान का दुनिया में यही प्रयोजन है।’’
एक भारत, एक रीति
उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम, अखंड भारत में, जो अखंड भारत था-उसमें आज भी कहीं भी जाओ, एक रीति मिलेगी। आप दुकान में जाएं, चावल खरीदें, तो दुकानदार एक किलो पर एक मुट्ठी चावल और डाल देता है। उसका पैसा नहीं देना पड़ता, क्योंकि दुकानदार सोचता है कि ‘गलती से मेरे से कम ना चला जाए। मैंने कीमत ली है, मैं पूरा सामान दूंगा’। ये केवल भारत में दिखता है, अखंड भारत के क्षेत्र में। क्या यह किसी ग्रंथ में लिखा है? क्या इस विषय पर प्रवचन होते हैं? यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी हर घर, हर गांव में आदत बनाई गई, वही चल रही है। उससे यह हमारा स्वभाव बना है, यह हमारी संस्कृति है। यह संस्कृति ऐसी रहे, फलती-फूलती रहे, इसलिए जिन लोगों ने अपना खून पसीना बहाया, इस संस्कृति का आचरण किया, समाज के संरक्षण के लिए बलिदान दिए, उद्यम किया, पराक्रम किया वे सब महापुरुष हमारे आदर्श हैं। उनके व्यवहार का हम अनुकरण करते हैं। तो यह सब ऐसे हुआ है।
इसका और एक कारण है और वह सबसे महत्वपूर्ण कारण है, हमारी भारत माता सुजल, सुफल, मलयज शीतल थी। इसलिए हम समृद्ध थे और तीनों ओर से पर्वतमालाएं हैं, उस पूरे क्षेत्र को पहले हिमालय कहा जाता था। तीन ओर से सागर, ऐसी सुरक्षित परिस्थिति में हम थे, हम सुरक्षित थे। इसलिए हमको लड़ाई-झगड़े का काम नहीं पड़ा। हमको जीवन के लिए बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा, हमने फुर्सत का उपयोग सत्य की खोज के लिए किया। जहां दुनिया बाहर का सीमित सत्य देखकर रुक गई, वहीं हमने उससे परे जाकर अंदर के सत्य को खोजा। तब हमको वह सत्य मिला, विश्व की एकता का। यह हमारी भारत माता का उपकार है। उसकी भक्ति हम सबको जोड़ती है, हम रहें या ना रहें, यह भारत रहना चाहिए। यह सब पर लागू है। सब जातियों पर लागू है। सब पंथ-संप्रदायों पर लागू है। हमारे देश में इतने सारे पंथ-संप्रदाय हैं। विदेशी आक्रांताओं के कारण और भी कुछ आ गए, और हमारे यहां ही रह गए।
सबको स्वीकारा हमने
हम सर्वसमावेशक हैं, सबको स्वीकारते हैं। भारत माता की भक्ति सबके लिए है। हम सबके पूर्वज वही हैं, समान हैं। समान पूर्वजों का गौरव, उनके आदर्शों का अनुकरण और इस सर्वसमावेशक, सबको स्वीकार करने वाली, संस्कार देने वाली, भद्रता सिखाने वाली, सत्य, करुणा, शुचिता, तपस के चौखट में चलने वाली संस्कृति को स्वीकार करके चलना ही हमारी एकता का आधार है। उसी में से हमारी एकता निकलती है।
क्या स्वार्थ के आधार पर एकता होती है? तुम मुझे ये दो, मैं तुम्हें वह दूंगा। यह सौदा कितने दिन चलेगा? यह नहीं चलता, राष्ट्र की एकता सौदों के आधार पर नहीं होती। राष्ट्र की एकता अपनेपन के कारण होती है। वह स्थायी अपनापन इन तीन बातों से हमको मिलता है, लेन-देन से नहीं मिलता। बहुत लोग मिलते हैं जो चिंतित हैं। देश में छोटी-मोटी घटनाएं तो होती हैं, लेकिन लगभग पूरे समाज में एकता का वातावरण है। पर उसको भी तोड़ने का प्रयास हो रहा है, इसलिए वे चिंतित हैं।
वे कहते हैं -यह फसाद ठीक नहीं, आपस में संघर्ष ठीक नहीं, एक-दूसरे को मारना ठीक नहीं है, हिंसा ठीक नहीं है, विवाद ठीक नहीं है। उसकी जगह सुलह, सलामती, अमन पर होना चाहिए। आपस में बात करनी चाहिए, सुरक्षित रहना चाहिए, शांति से रहना चाहिए। यह बात ठीक है, चलना ऐसे ही चाहिए। लेकिन इसके लिए ध्यान रखना पड़ेगा कि हम लोग दिखने में भले अलग हैं, वास्तव में अलग नहीं हैं। हमारी पूजा पद्धतियां अलग हैं, भाषाएं अलग हैं, दिखने में हम अलग हैं। लेकिन यहां बात भिन्न लोगों के एक होने की नहीं है। जिनमें सारी विविधता का पूर्ण स्वीकार पहले से था, हम ऐसे लोग हैं। अपनी एकता के इन तीन सूत्रों को हम भूल गए, इसलिए आज एक-दूसरे को अलग-अलग मान रहे हैं। हर प्रकार के भेद को भूलकर अपनी एकता का स्मरण हमें जोड़ेगा। हमें इसी आधार पर फिर से जुड़ना है।
अपनेपन का स्मरण आवश्यक
हमारी समस्याएं हैं, आपस में हमारे कुछ विवाद हो सकते हैं। विकास चल रहा है तो विकास में हमको कुछ चाहिए, दूसरे से ज्यादा चाहिए, यह स्पर्धा है। ऐसा नहीं है कि मन, वचन, कर्म से सारा समाज ऐसे ही चल रहा है। लेकिन जिनको ऐसा होना है और देश को ऐसा बनाना है उनको ध्यान में रखना पड़ेगा कि पहले यह सब ठीक हो, बाद में हम एक होंगे। यह ठीक नहीं है। इसका कारण यही है कि हमने अपने उस अपनेपन को भुला दिया है। इसलिए हमको पहले अपने में उस अपनेपन को रखना पड़ेगा। यह सब होता है तो भी क्षोभ नहीं होना चाहिए, अविवेक, असंतुलन नहीं होना चाहिए। ऐसी उथलपुथल में भी हमको अपना दिमाग ठंडा रखकर, सबको अपना मानकर चलना पड़ेगा, धीरे-धीरे सबको अपने साथ चलाना पड़ेगा। अपनेपन की दृष्टि आने पर इन सारी बातों के समाधान होंगे, दूसरा कोई समाधान नहीं है। ये बातें उपायों से ठीक नहीं होतीं, व्यवस्थाओं से ठीक नहीं होती। ये मरहम-पट्टियां होती हैं जो कालांतर में निकल जाती हैं। नए घाव भी बनते हैं। कई अन्य घाव तो बहुत गहरे हैं।
मतदान करना हर नागरिक का राष्ट्रीय कर्तव्य है। सबका अनुभव भारत की जनता के पास है, सबका अनुभव लिया है। इसमें कौन सर्वोत्तम है, उसे मत देना है
संघर्ष की लंबी परंपरा
भारत विभाजन जैसी घटना का घाव बहुत गहरा है। अपनी संघर्ष की लंबी परंपरा चली, उसके कारण मन में एक दूसरे के प्रति कितना अविश्वास है, उसकी वजह से भी विवाद होते हैं। बेकार की बहसें होती हैं, धमकाने की बातें होती हैं, चुनौती देने की बातें होती हैं। यह सब हो रहा है, लेकिन उसमें हमको ठंडे दिमाग से आगे चलना पड़ेगा। इस दृष्टि को जानना पड़ेगा, इस दृष्टि का प्रचार-प्रसार परिस्थिति विपरीत होने के बावजूद करना पड़ेगा, तब एकता आएगी, तब ये सारे सवाल ठीक हो जाएंगे और इसलिए इस परिस्थिति के चलते यह समझना चाहिए कि समस्या सबकी है। विकास कौन नहीं चाहता और अपने विकास के लिए किसकी दौड़ नहीं चल रही है? देश के अपने मर्यादित संसाधनों पर 140-42 करोड़ जनसंख्या में से सबका अधिकार है तो स्पर्धा तो रहेगी। लेकिन समस्या यह सोच है कि हमको मिला उनको नहीं मिला, मुझे नहीं मिला, उसको मिला। सब को जल्दी है कि सब ठीक हो। परंतु ये सारी समस्याएं हैं। ‘इनके कारण हम पर अन्याय हो रहा है, हमको अलग किया जा रहा है’, यह विक्टिमहुड की मानसिकता है। उसके अधीन होने से काम नहीं चलेगा। कोई विक्टिम नहीं है। एक परिस्थिति है जिसमें से हमको गुजर कर सबका भला करना है। हमारा भी भला हो और बाकी सबका भी, हम सबके साथ हैं। पूरा समाज ठीक होगा, उसके साथ हम भी ठीक हो जाएंगे। मैं ठीक हो जाऊं बाकी समाज वैसा ही रहे, यह सोच नहीं चलेगी।
एक दूसरे के प्रति जो अविश्वास है, उससे बाहर आकर एक साथ चलना पड़ेगा और ध्यान में रखना पड़ेगा कि अपने देश में राजनीति स्पर्धा पर चलती है। इस स्पर्धा में अपने पीछे ज्यादा अनुयायी खड़े हों, इसलिए दुर्भाग्य से समाज को बांटने की रीति बन गई। इसलिए राजनीति से इन प्रश्नों का हल नहीं निकलेगा। राजनीतिक वर्चस्व अर्जित करके हम इसको ठीक करेंगे, यह सोच बेकार है। हमारे यहां लोकतंत्र है, प्रजातंत्र है, इसमें सब लोग समान हैं। कोई ऊपर-नीचे नहीं है। उसकी पद्धति से ही हमको चलना पड़ेगा, परंतु समाज की एकता के लिए हमको राजनीति से अलग होकर सारे समाज का विचार करते हुए चलना पड़ेगा।
यह नहीं मानना कि ऐसा करने से हम किसी की शरण जा रहे हैं, यह भी नहीं मानना कि लड़ाई चल रही थी, अब युद्ध बंदी हो गई, ऐसा नहीं है। यह किसी के स्वार्थ की, किसी पार्टी की पुकार नहीं है। यह अपनी छवि ठीक करने की कसरत नहीं है, यह अपनेपन की पुकार है। जिनको यह सुनाई देगी, उनका भला होगा। जो फिर भी नहीं सुनेंगे, उनका क्या होगा, पता नहीं। अपनेपन का भाव लेकर चलना पड़ेगा।
फिर से याद दिलाता हूं-डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के दो भाषण पढ़िए, बार-बार पढ़िए। वे पारायण करने लायक हैं। जैसे हम अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी पवित्र ग्रंथ को प्रतिवर्ष पढ़ते हैं, हमारे संघ के स्वयंसेवक डॉक्टर साहब का चरित्र प्रतिवर्ष पढ़ते हैं, ऐसे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का समग्र नहीं पढ़ सकते तो कम से कम वे दो भाषण प्रतिवर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को पढ़िए। उनमें यही संदेश है। यह काम एकाएक होने वाला नहीं है, लंबा प्रयास करना पड़ेगा।
बल भी जरूरी, शील भी जरूरी
जैसा मैंने कहा कि घाव बहुत गहरे हैं, उनको भरने में समय लगेगा। ये घाव गहरे हैं, इसके कई तरह के अनुभव आते हैं। वाणी अविवेक तो दिख ही रहा है, यहां तक कि किसी को घर चाहिए तो उसे वह अपने समुदाय की बस्ती में ही मिलता है। एक ही देश के रहने वाले लोग इतने पराए हो गए! लेकिन ये अनुभव आते हैं। समाज में यह कटुता है। लेकिन जो संपूर्ण समाज की एकता चाहते हैं, उनको उससे अलिप्त रहना है। भारतवर्ष एक होकर परम वैभव संपन्न बने, वे ऐसा चाहते हैं। जो वास्तव में हिन्दुत्व के अभिमानी हैं, ऐसे सब लोगों को, जो-जो उक्त स्थिति चाहते हैं, उनको अपनी जिह्वा पर संयम रखना पड़ेगा। झगड़े की भाषा अलग होती है, दोस्ती की भाषा अलग होती है। दोस्ती की भाषा शरणागति नहीं है। दोस्ती की भाषा दुर्बलता नहीं है। शक्ति संपन्न बनकर दोस्ती करना। जब अच्छे लोग शक्तिसंपन्न बन जाते हैं तो उससे वे गुंडागर्दी नहीं करते, वे सबको शक्तिसंपन्न बनाते हैं, दुर्बलों की रक्षा करते हैं। सबको अपना मानकर चलते हैं। समदृष्टि रखते हैं। शारीरिक शक्ति के साथ-साथ शील की भी ताकत रहती है।
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:
पंडित या विद्वान सबको समान नजर से देखते हैं। हमको इसी तरह चलना पड़ेगा। बहुत कुछ सहन करना पड़ेगा, उकसावे में आना छोड़ देना होेगा, अविश्वास छोड़ना पड़ेगा, अपनी जबान पर लगाम लगानी पड़ेगी। यह संकेत किसी एक तरफ नहीं है, सभी तरफ है। सब जगह ऐसे लोग हैं जो यह समझते नहीं या ऐसे लोग हैं जो यह होने नहीं देना चाहते हैं। जो यह होने नहीं देना चाहते, उनको छोड़ दो, उनको अनदेखा करो। अपने रास्ते पर चलो, सब कुछ जुटाओ, हमें ऐसा होना पड़ेगा। ऐसा होने पर इस देश में इन घातक खेलों की माया से बचकर हम लोग आगे बढ़ेंगे। ये बातें चलेंगी, गुंडागर्दी होगी तो उसका एक ही इलाज है-संगठित बलसंपन्न समाज, नागरिक अनुशासन, कानून सुव्यवस्था और संविधान का पालन। इस गुंडागर्दी के प्रतिकार में शासन-प्रशासन का सहयोगी बनकर चलें, यही एक उपाय है। इसलिए संघ बलसंपन्न संगठित समाज बनाने का काम कर रहा है। हमें सावधान रहना है क्योंकि अब आने वाले दिनों में चुनाव हैं। अभी राज्यों के चुनाव हैं, आगे लोकसभा का चुनाव है। चुनाव में तो खूब लांछन लगाए जाएंगे, लोगों को इधर से उधर लाने का प्रचार चलेगा। उसमें ये हथकंडे और बढ़ सकते हैं। बातों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जा सकता है।
मतदान हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य
हमें ध्यान रखना है कि चुनाव में मतदान करना हर नागरिक का कर्तव्य है। वह हम सब को करना चाहिए, मतदान को छोड़ना नहीं चाहिए। वह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। नागरिक अपना कर्तव्य करें। इसके लिए संघ के स्वयंसेवक काम करेंगे। परंतु यह ऐसी छोटी बातों के आधार पर नहीं करना है। भड़काऊ बातों से भड़क कर उकसावे में आकर नहीं करना है। ठंडे दिमाग से सोचिए, कौन अच्छा है, किसने अच्छा काम किया है। सबका अनुभव भारत की जनता के पास है, सबका अनुभव लिया है। अब इसमें कौन सर्वोत्तम है, उसे मत देना है। मतदान के प्रचार के समय विभिन्न हथकंडे फिर से अपनाए जाएंगे। उसके प्रभाव में हमको नहीं आना चाहिए।
संघ का शताब्दी वर्ष
रा.स्व.संघ का आरम्भ 1925 में हुआ। आगे 2025 में 100 साल पूरे होने हैं। 2026 को हम 100 साल पूरे होने पर शताब्दी वर्ष के रूप में मनाएंगे और इसलिए ऊपर निर्दिष्ट सभी बातों में संघ के स्वयंसेवक पहल करेंगे। संपूर्ण समाज के आचरण में, उच्चारण में संपूर्ण देश के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो, मंदिर, पानी, श्मशान…कहीं भेदभाव बाकी है तो वह समाप्त हो। परिवार के सभी सदस्यों में (कुटुंब में) नित्य मंगल संवाद, संस्कारित व्यवहार व संवेदना बनी रहे-बढ़ती रहे, उनके द्वारा समाज की सेवा होती रहे। सृष्टि के साथ संबंधों का आचरण अपने घर से पानी बचाकर, प्लास्टिक हटाकर और घर-आंगन तथा देश में हरियाली बढ़ाकर हो।
हम सब जानते हैं कि स्वदेशी के आचरण से देश का भला होता है, देश आत्मनिर्भर होता है। आत्मनिर्भरता के कई प्रकार के प्रयास सरकार के द्वारा हो रहे हैं, समाज भी इसमें साथ चले। स्व निर्भर होना, स्वावलंबी होना, फिजूलखर्ची नहीं करना, देश में रोजगार बढ़ाना, देश का पैसा देश के ही काम आना, इस सबमें स्वदेशी का भाव ही है। स्वदेशी का आचरण भी अपने घर से प्रारंभ होना चाहिए। कानून व्यवस्था और नागरिकता के नियमों का पालन हो, समाज में परस्पर सद्भाव और सहयोग की प्रवृत्ति सर्वत्र व्याप्त हो। ये सभी आचरणात्मक बातें हों, यह सब चाहते हैं, लेकिन छोटी-छोटी बातों से प्रारंभ कर उनके अभ्यास के द्वारा इस आचरण को अपने स्वभाव में लाने का सतत प्रयास आवश्यक है।
संघ के स्वयंसेवक वह प्रयास स्वयं करेंगे और समाज को भी उस प्रयास में जोड़ेंगे। संघ के स्वयंसेवक अभावग्रस्त बंधुओं की सेवा, आपदाओं में समाज की सेवा हमेशा ही करते रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे। लेकिन आगे इस आयाम पर भी संघ के स्वयंसेवक जुटेंगे, इसकी तैयारियां उन्होंने प्रारंभ कर दी हैं। शासन समाजहित में सोचता है। प्रशासन और समाज शक्ति, समाज की सज्जन शक्ति भी कुछ करती है, तो उन सब कार्यों में भी संघ के स्वयंसेवकों का योगदान रहेगा। समाज की एकता, सजगता और सभी दिशाओं में नि:स्वार्थ उद्यम, जन-हितकारी शासन और जनोन्मुक्त प्रशासन स्व के अधिष्ठान पर खड़े होकर परस्पर सहयोगपूर्वक प्रयासरत रहते हैं, तब राष्ट्रबल वैभव संपन्न बनता है।
ऐसा राष्ट्र ही, सबको अपना कुटुंब मानने वाली, तमस से प्रकाश की ओर ले जाने वाली, असत् से सत् की ओर ले जाने वाली और मर्त्य जीवन के सार से अमर्त्य जीवन की सार्थकता तक बढ़ाने वाली अपनी संस्कृति के आधार पर विश्व के खोए संतुलन को वापस लाते हुए, विश्व को सुख-शांतिमय नवजीवन का वरदान प्रदान करता है। हमें ऐसा भारत बनाना है। ऐसा भारत बनने का, हमारे राष्ट्र के नवोत्थान का दुनिया में यही प्रयोजन है।
चक्रवर्तियों की संतान लेकर जगत्गुरु का ज्ञान
बढ़े चले तो अरुण विहान, करने को आए अभिषेक
प्रश्न बहुत से उत्तर एक
भारत माता की जय
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