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प्रथम साहित्य शिल्पी महर्षि वाल्मीकि

by WEB DESK
Oct 28, 2023, 10:05 am IST
in भारत
महर्षि वाल्मीकि

महर्षि

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भारतीय परम्परा के अनुसार साक्षात् प्रजापति ब्रह्मा प्रचेता के पुत्र महर्षि वाल्मीकि हैं इसी से उनका नाम प्राचेतस् भी है। प्राचेतस् अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट चिन्तन, चित्त एवं भावभूमि को धारण करने वाला महापुरुष।

 

एक तपस्वी, मनस्वी, यशस्वी, विचारक, उदार, महामना युगद्रष्टा महापुरुष के रूप में संस्कृत साहित्य में आदि कवि के नाम से विख्यात महर्षि वाल्मीकि वस्तुतः ऐसे प्रथम साहित्य शिल्पी हैं जो कालजयी रचनाओं का सूत्रपात करते हैं। उनकी रचना ‘वाल्मीकि रामायणम्’ विश्व की प्रथम कविता है जो आज तक सारे विश्व में रामकथा का मूल स्रोत मानी जाती है, जिसका अध्ययन, वाचन, पाठ, समीक्षा और अनुष्ठान आज इक्कीसवीं सदी तक अनवरत होता है, हो रहा है और जब तक मानवता में विश्वास रखने वाले मानव उत्पन्न होते रहेंगे तब तक होता ही रहेगा।
यह एक चिरन्तन एवं भावुक सत्य है कि जिस व्यक्ति और रचना को अपने पिता-माता-गुरु एवं आचार्य का निष्पक्ष आशीर्वाद मिल जाता है वह व्यक्ति और उसकी रचना अमर हो जाती है। महर्षि वाल्मीकि को उनके पिता प्राचेतस् ब्रह्मा ने सच्चे हृदय से आशीष देते हुए कहा था—

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।।

अर्थात् पुत्र! जब तक पृथ्वी पर पर्वत और नदियाँ रहेंगी तब तक रामायण की यह महाकथा भी संसार में जीवित ही रहेगी। रामायण जो मानवीय मूल्यों की रत्नभूमि है, रामायण जो व्यवहार शास्त्र की जननी है, रामायण जो नीतिशास्त्र की खान है, रामायण जो ईश्वरीय वरदान का स्वरूप है, रामायण जो व्यक्तित्व के विकास की पराकाष्ठा है, रामायण जो वाल्मीकि की वैश्विक चेतना में स्थित पूर्णमानव की प्रतिमूर्ति है, उस अमर रामकथा को अपनी लेखनी से साकार करने वाले महर्षि वाल्मीकि सदैव मानवता के लिए पूज्य रहेंगे।
भारतीय परम्परा के अनुसार साक्षात् प्रजापति ब्रह्मा प्रचेता के पुत्र महर्षि वाल्मीकि हैं इसी से उनका नाम प्राचेतस् भी है। प्राचेतस् अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट चिन्तन, चित्त एवं भावभूमि को धारण करने वाला महापुरुष। तो वाल्मीकि प्राचेतस् हैं। वाल्मीकि इसलिए कि तपश्चर्या में स्थिर भाव से बैठे प्राचेतस् के शरीर पर इतनी मिट्टी एकत्रित हो चुकी थी कि दीमकों ने उसमें अपने बिल बना लिये थे। अविचल, स्थिर भक्ति में बैठे महर्षि वाल्मीकि को स्वयं ब्रह्मा ने अपने कमण्डलु की जलधारा से अभिषिक्त कर उठाया तभी से वे वाल्मीकि के नाम से जाने गये। वही कमण्डलु की धारा जो सुरसरिता है- गंगा है – पतित पावनी है जो साक्षात् ब्रह्म द्रव है

समुत्पत्तिः पद्मारमणहरिपद्मामलनखाद्,
निवासः कन्दर्पप्रतिभट जटाजूट भवने।
अथायं व्यासंगो हतपतितनिस्तरणविधौ,
न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्ति जगताम्।।

और तपःपूत ब्रह्मा प्राचेतस् का यह पुत्र वाल्मीकि महर्षि वाल्मीकि बना। तमसा नदी के तट पर, गंगा यमुना के संगम से दक्षिणी ओर बहती हुई एक चंचल पहाड़ी नदी जो विन्ध्याचल से निकलती है और मिलती है गंगा से। तमसा अर्थात् तमस् का प्रक्षालन करने वाली। अपने उस एकान्त आश्रम पर प्रिय शिष्य भरद्वाज के साथ आर्ष जीवन व्यतीत करते हुए महर्षि वाल्मीकि चिन्तन, मनन, लेखन, अध्ययन-अध्यापन-यजन-याजन के पवित्र संसार में प्रसन्न थे। मित्रे! संसार मात्र उतना ही नहीं है जितना हमारे सामने है। संसार में वह भी है जो हमें प्रिय नहीं है, वह भी है जो अपरूप है, अपद्रव्य है, कुत्सित है, घृणित है। यह ईश्वरीय संरचना ही है जो हमारे जीवन में सौन्दर्य की अधिकता और कुरूपता की अल्पता बनी रहती है, जीवन की जीवन्तता दिखाई देती रहती है और मृत्यु की विभीषिका कभी-कभी दृग्गोचर होती है। मेरे अत्यन्त प्रिय संत कवि सौमित्र जी ने बड़ी मार्मिक उक्ति की थी।

बिन तपे कुन्दन कनक काया नहीं होती
आपसे बाहर कहीं माया नहीं होती
धूप में चलते चरण ही जानते हैं ये
बादलों की छाँव से छाया नहीं होती।

एक दिन सायंकालीन स्नान के लिए नदी तट पर विचरण करते महर्षि वाल्मीकि और उनके प्रिय शिष्य भारद्वाज जी के समक्ष एक अमानवीय घटना घटी। धान के हरे-भरे खेत के बीच प्रेमालाप में निबद्ध क्रौंच पक्षी का एक युगल अपने ही प्रेम संसार में खोया हुआ था। अचानक एक सरसराता हुआ वज्र कल्पतीर कहीं से आया और उस जोड़े में से एक जो नर था उसकी गरदन को भेद गया। रक्त-धार बह निकली, पखेरू की गर्दन लुढ़क गयी, अंगनिश्चेष्ट होने लगे, मृत्यु का आवाह्न सिर पर आ गया। क्रौंची चीखने लगी, रोने लगी, ममता के बंधन शोक बनकर पिघलने लगे। ठीक उसी क्षण वह व्याध-निषाद-परशरीरोपजीवी बहेलिया आया और अपने भोजन के लिए उस पक्षी को उठाने के लिए आगे बढ़ा।
यह करुणापूर्ण एवं हृदयविदारक दृश्य देखकर प्राचेतस् वाल्मीकि का चित्त हाहाकार कर उठा, करुणा शोेक में और शोक शाप में बदलने लगा। क्रुद्ध, क्षुब्ध और व्याकुल वाल्मीकि के मुख से वाणी फूट पड़ी—

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

अरे क्रूर निषाद! तुम्हारे जैसे क्रूर-कर्मा लोगों को और स्वयं तुम्हें भी सैकड़ों, हजारों वर्षों तक कभी मानव समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त न हो क्योंकि तुमने एक निरपराध, प्रेम में निमग्न निर्दोष पक्षी का वध किया है। ऐसे निर्दोष जघन्य हत्याओं की अनुमति मानव समाज में सदैव निन्दा की ही पात्र बनेगी। एक सामान्य पक्षी के लिए भी करुणा का यह जो उदात्त प्रस्तुतीकरण है वही वाल्मीकि की कविता का मूल स्वर है—

एको रसः करुण एक निमित्तभेदात्
(भवभूनि)
संसार का मूल रस है करुण। यहाँ का स्थायी भाव है, दुःख और अशाश्वतता। यहाँ का प्राप्तव्य है वियोग। यहाँ का भोग है क्षण पर्यवसायी। यहाँ के संबंध है स्वार्थाभिषिक्त। ऐसी विद्रूपताओं का भण्डार है हमारा संसार। और इसे निरन्तर संवारने, सुधारने, सजाने, बनाने की चिन्ता का नाम ही है तपस्या। यही है पुरुषार्थ। यही है चेतना का साक्षीभाव, द्रष्टाभाव। प्रिय आत्मन्। शाप तो दे दिया महर्षि वाल्मीकि ने पर बाद में निषाद की क्षमायाचना पर शान्त हुए। वे सोचने लगे कि इस अशिक्षित निषाद की त्रुटि भी क्या है? इसने अपनी और अपने परिवार की क्षुधा शान्त करने के लिए पक्षी को मारा है। यह और कोई आजीविका वृत्ति धारण करता नहीं। फिर उस पक्षी का भी कोई ऋणानुबन्ध रहा होगा—

ऋणानुबन्धीनि मनुष्यलोके भवन्ति कर्माणि शुभाशुभानि।
विनोपभोगं न च तान्ति याक्ति कृतार्थतामत्र मनुष्यलोके।।

इसे शाप देकर मैंने ही अपना तपःक्षीण कर लिया। शोक उनके हृदय को मथने लगा। पुत्र चिन्ता से व्याकुल हो तो पिता का बेचैनी होना स्वाभाविक है। प्रचेता ब्रह्मा ने देखा तो उतर आये वाल्मीकि के पास। बोले-वत्स! इतने उद्विग्न मत होओ। यह जो शाप की वाणी तुम्हारे मुख से प्रस्फुटित हुई है वह मेरी आकांक्षा, मेरी प्रेरणा, मेरे संकल्प का प्रतिफल है।
यह तंत्री के नाद से आबद्ध, समान अक्षरों से युक्त, लय और ताल से समन्वित सारे संसार को सुख एवं आनन्द देने वाला तुम्हारा काव्यात्मक वाक्य श्लोक हो जाये और कुछ न हो। यह तुम्हारा शोक श्लोक बन जाये। श्लोक अर्थात् पवित्रता, श्लोक अर्थात् पुण्य देने वाला, श्लोक अर्थात् कीर्ति प्रदान करने वाला। शोक और श्लोक में एक छोटा सा ही अन्तर है। यदि श्लोक में से लोक हट जाय तो शोक ही शोक है और यदि लोक चिन्तन समा जाय तो शोक ही श्लोक है। ब्रह्माजी ने कहा- यह एक प्रविधि है चिन्तन की जो मेरे आशीष से तुम्हें मिली है। यह एक शस्त्र है ज्ञान का जो मेरे आदेश से तुम्हें मिला है, यह एक साधन है परमानन्द को पाने और बाँटने का जो तुम्हें वाल्मीकि से महर्षि वाल्मीकि बना देगा।
शोकः श्लोकत्वमागतः।
शोक ही परिवर्तित होकर श्लोक बन गया। अपने स्वार्थ चिन्तन का ही दूसरा नाम शोेक है। परमार्थ चिन्तन ही श्लोक है। वाल्मीकि पिता के जाने बाद सोचने लगे कि इस श्लोक का क्या किया जाय? इस प्रविधि से क्या रचा जाय। इस शाब्दिक छान्दस् शक्ति से आखिर क्या संरचना हो जो अद्भुत हो सके? अपने भीतर की इस ऊर्जा को संवारना, अपने भीतर उठती भावनाओं की भाप को ठीक से उपयोग कर इस संसार में कुछ नया करने की कला कितनों को आती है? यक्ष प्रश्न वाल्मीकि के सामने भी था। वाल्मीकि अपने चारों तरफ त्रेता युग के समाज को, उसकी मान्यताओं को, उसके आचार विचार को भी देख रहे थे और वे सारे सुख-दुख, हर्षामिर्ष, योग नवयोग उनके भीतर भी अन्तर्द्वन्द्व बनकर उभर रहे थे जो उनके सम-सामयिक विश्व में चल रहे थे।
कभी-कभी हम चिन्तन तो बहुत करते हैं पर उस चिन्तन को दिशा नहीं मिलती। उस विचार ऊर्जा को रचनात्मकता का संस्पर्श नहीं मिलता। फलतः वे क्षुद्र समुद्र तरंग की तरह उठते हैं और वही हृदय सागर में डूब जाते हैं। ईश्वर कृपा का दूसरा नाम है गुरु कृपा। ईश्वर जब मिलेगा, गुरु बनकर ही मिलेगा। और एक दिन व्याकुल वाल्मीकि के आश्रम पर आ पहुँचे देवर्षि नारद। महर्षि और देव का यह संयोग ही इस युगान्तरकारी रचना का केन्द्र बना। वाल्मीकि ने पूछा—

तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिः नरपुंगवम्।।
कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्?

हे देवर्षे! मुझे यह बताइये कि विसंगतियों से भरे इस संसार में इस समय ऐसा कोई दिव्य, चरित्रवान्, पराक्रमशाली, गुण सम्पन्न महापुरुष है जो मेरी इस कविता यात्र का महानायक बन सके। वह जिसके चरित्र की ऊंचाई हिमालय से भी ऊपर हो और गहराई सागर के अनन्तल से भी ज्यादा हो। वह जिसका चरित्र श्रवण करने से शरीर रोमाि×चत हो उठे और वाणी गद्गद्। और इसी प्रश्न के उत्तर में देवर्षि ने महर्षि वाल्मीकि को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का परिचय दिया। देवर्षि ने महर्षि को एक मार्ग दे दिया, एक नेता दे दिया, एक गन्तव्य बता दिया और वाल्मीकि की करुणापूर्ण लेखनी अमरकथा का सृजन करने लगी।
24000 श्लोकों में विस्तीर्ण यह वाल्मीकि रामायण न केवल एक महाकाव्य है, महागाथा और अपितु यह एक सम्पूर्ण वंश का, एक नायक का ऐसा इतिहास है, ऐसा सत्य वृत्तान्त है जो सदैव मानवता के पक्षधरों को दिशा-निर्देश कराता रहेगा।

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