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उपेक्षा कारण बनी कन्वर्जन का

सरकारों और लोगों को मिलकर यह समझ बनानी है कि हम एक-दूसरे के पास आने से कतराएं नहीं। ट्रांसजेंडर समुदाय को समझें, स्वीकारें और उन्हें अपनी पहचान के साथ सामने आने का वातावरण निर्मित करें।

by डॉ. क्षिप्रा माथुर
Oct 27, 2023, 08:17 am IST
in भारत, विश्लेषण, गुजरात
मंच पर (बाएं से) डॉ. क्षिप्रा माथुर, रेशमा प्रसाद और ध्वनि शर्मा

मंच पर (बाएं से) डॉ. क्षिप्रा माथुर, रेशमा प्रसाद और ध्वनि शर्मा

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समाज में एक वर्ग के लिए ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’, ‘छक्का’ ‘ट्रांसजेंडर’ जैसे शब्द प्रचलन में हैं, लेकिन इस वर्ग का कहना है कि ये शब्द गलत हैं। इनके स्थान पर ‘लैंगिक-यौनिक अल्पसंख्यक’ का इस्तेमाल करना चाहिए। इस वर्ग से जुड़ी कुछ बातों को ‘साबरमती संवाद’ के ‘पहचान और प्रश्न’ सत्र में रेशमा प्रसाद ने बड़ी प्रखरता के साथ रखा। इसका संचालन वरिष्ठ पत्रकार डॉ. क्षिप्रा माथुर ने किया। रेशमा पटना में यौनिक-लैंगिक अल्पसंख्यकों के लिए ‘दोस्ताना सफर’ रेस्तरां का संचालन करती हैं। इसके साथ ही वे चुनाव आयोग की ‘समावेशी चुनाव समिति’ में सलाहकार भी हैं। प्रस्तुत हैं उनके संबोधन के संपादित अंश-

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी हमारे वर्ग की स्थितियां नहीं बदलीं। सरकारों और लोगों को मिलकर यह समझ बनानी है कि हम एक-दूसरे के पास आने से कतराएं नहीं। ट्रांसजेंडर समुदाय को समझें, स्वीकारें और उन्हें अपनी पहचान के साथ सामने आने का वातावरण निर्मित करें। किसी के लिए अपने आपको स्वीकार करना भी वर्षों की प्रक्रिया है। लोगों और मीडिया के संबोधन में ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’, ‘छक्का’ जैसे शब्द आ जाते हैं। और समाज में वही शब्द स्थापित हो जाते हैं। लोग तो हमसे यह भी कह देते हैं कि आपके लिंग अविकसित होंगे। लेकिन हम परिपूर्ण हैं, ईश्वर ने हमें कुछ कम नहीं दिया है। यह बात परिवारों को समझनी होगी।

21 सर्वनाम और सम्मान

पहचान निर्धारित करने के लिए शरीर पैमाना नहीं है। शरीर तो तीन ही पैदा होते हैं- स्त्री, पुरुष और अलैंगिक। जिन्हें अलैंगिक या उनकी पहचान के आधार पर संस्कृत में किन्नर या किन्नारी कहा गया, उनमें 40 प्रकार के भेद हैं। पश्चिमी नजरिए से देखें तो वहां केवल सात प्रकार ‘एलजीबीटीक्यूएआई’ को इंगित किया गया है। लेकिन भारतीय परंपरा में हर प्रकार की विविधता को स्वीकारा गया था, जिसे फिर से स्मृति में लौटाना होगा। आधुनिक दौर में ट्रांसजेंडर यह तय कर रहे हैं कि उन्हें ‘शी/हर या ही/हिम और दे/देम’ में से क्या कहा जाना पसंद है। हमारे यहां संस्कृत और पालि भाषा में 21 सर्वनाम हैं, 21 स्त्री भाव के लिए और 21 पुरुष भाव के लिए।

मंच पर (बाएं से) डॉ. क्षिप्रा माथुर, रेशमा प्रसाद और ध्वनि शर्मा

सामाजिक कार्यकर्ता ध्वनि शर्मा ने कहा कि भले ही हमारा शरीर अलग है, लेकिन हम सबकी आत्मा एक है। यदि हम किसी से भेदभाव रखते हैं, तो इसका अर्थ है हम आत्मा को ही चुनौती दे रहे हैं। इसलिए किसी से लैंगिक आधार पर भेदभाव न हो, उसके शरीर के आधार पर उसकी पहचान न हो। ऐसा करने से ही परिवार और समाज बचेगा। उन्होंने यह भी कहा कि बड़े परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम होते हैं

भेदभाव से उपजा कन्वर्जन

चोल, अहोम या फिर नंद वंश, भारत के किसी भी हिस्से और राजतंत्र में लैंगिक-यौनिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं रहा। वे सत्ता और समाज दोनों में स्वीकार्य रहे। लेकिन कालांतर में बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव में उपहास का पात्र बनने लगे तो अपने मूल समाज से दूरी बनी। इसके साथ ही शुरू हुआ उनका अपराधीकरण और व्यापारीकरण। समाज की इस कमजोरी को सूफी, मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध धर्म ने पकड़ा। लाहौर से लेकर गंगा के इलाके, सिंध और अजमेर तक उन्हें सम्मान मिलने लगा। उनकी मजारें और कब्रें भी बनीं। इस तरह मजहब आधारित पहचान स्थापित हुई। इस अल्पसंख्यक समुदाय के कन्वर्जन की यही बड़ी वजह रही जिस पर गौर करना होगा।

भौतिकता से जोड़ी पहचान

आज हमारे लिए अवसर भी सीमित हैं। समाज में सम्मान पाने वाले काम जैसे शिक्षा, पुलिस या न्यायिक पेशे से जुड़ने पर ही उसकी पूछ है, अन्यथा नहीं। हम भौतिकता के सिद्धांत को भी पहचान के साथ जोड़ रहे हैं। 200 वर्ष के महिला आंदोलन के बाद उसके संघर्ष को समझा गया। ट्रांस स्त्री के तौर पर जब साथी पुरुष हम पर हिंसा करते हैं, तो हम उसी दर्द को भोगती हैं और सामान्य महिला की तरह ही उस पुरुषवादी सोच का विरोध नहीं कर पातीं। ये अल्पसंख्यक समुदाय अपनी पहचान के साथ स्वीकारें, हम वह खुला माहौल तैयार करें, तभी उत्पीड़न भी रुकेगा और ये मसले हाशिए पर नहीं रहेंगे।

नपुंसक कहना एकदम गलत

नपुंसकता की बात तो सबके लिए है, यह तो निर्जीवता की बात है। स्त्री भी संतान उत्पत्ति में सक्षम न होने पर बांझ कही जाती है, तिरस्कृत होती है और पुरुष भी लैंगिक तौर पर नपुंसक हो सकते हैं। लोग और मीडिया अपनी समझ की कमी को स्थापित कर देते हैं। वही प्रचलन में आ जाता है। पुरुष का स्त्रैण होना उपहास और मनोरंजन का विषय हो जाता है, जबकि स्त्री के पुरुष जैसे व्यवहार को अलग तरीके से देखा जाता है। लैंगिक द्रव्यता का अर्थ है हम अपने को कैसे समझ रहे हैं। यह क्रोमोसोम या हार्मोन, दोनों में से किसी भी वजह से हो सकती है। ऐसी बड़ी आबादी है जो अभी सामने नहीं आ पाई है। इस ओर पारिवारिक व्यवस्थाओं के स्तर पर काम करना है।

संविधान भी रहा नाकाम

सत्र संचालन की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार डॉ. क्षिप्रा माथुर ने कहा कि 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहली बार हाशिए पर रहे एक पूरे समुदाय को ‘थर्ड जेंडर’ की पहचान हासिल हुई। इससे यह साबित हुआ कि इस अल्पसंख्यक तबके को, संविधान में जाति, लिंग और पंथ सहित किसी भी तरह के भेदभाव की मनाही के बाद भी 65-70 साल तक अपने अस्तित्व और अपनी पहचान से ही वंचित रहना पड़ा। इसके बाद 2019 में बने कानून ने उनके हक को सुनिश्चित किया। लेकिन परिवार व्यवस्था और समाज में इनकी स्वीकार्यता नहीं होने से जटिलताएं आई। हमें आज भी नहीं मालूम कि लैंगिक-यौनिक अल्पसंख्यकों के लिए गरिमामय संबोधन क्या हो।

हम जब किसी स्त्री और पुरुष से उनकी लैंगिकता के बारे में असहज सवाल नहीं करते तो इस समुदाय से यह सवाल क्यों किया जाता है? हमारे धर्म-ज्ञान ग्रंथों में मोहिनी अवतार सहित अनेक उदाहरण हैं जहां स्त्री-पुरुष भाव की सभी विविधताओं की स्वीकार्यता रही। लेकिन वे बच्चे-किशोर-किशोरियां और युवा, जिन्हें अपने खास लैंगिक-यौगिक झुकाव के कारण कुटुंब व्यवस्था से बाहर कर दिया गया, जीवन भर संघर्ष करते हैं। लेकिन जो कुटुंब में रहे, स्वीकारे गए उन्होंने अपने बूते हर पेशे में अपनी जगह पाई और बनाई। लेकिन ये अवसर अब भी सीमित ही हैं और संघर्ष बड़ा है। इसीलिए ये विषय समुदाय विशेष के नहीं, पूरे समाज और पारिवारिक संस्कृति के पुनर्स्थापन और अपनी विविधताओं की स्वीकार्यता के हैं।

वहीं सामाजिक कार्यकर्ता ध्वनि शर्मा ने कहा कि भले ही हमारा शरीर अलग है, लेकिन हम सबकी आत्मा एक है। यदि हम किसी से भेदभाव रखते हैं, तो इसका अर्थ है हम आत्मा को ही चुनौती दे रहे हैं। इसलिए किसी से लैंगिक आधार पर भेदभाव न हो, उसके शरीर के आधार पर उसकी पहचान न हो। ऐसा करने से ही परिवार और समाज बचेगा। उन्होंने यह भी कहा कि बड़े परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम होते हैं। इसलिए बड़ा समाज बनाएं, बड़ी सोच रखें। परिवारों के विघटन पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि इन्हें बचाने के लिए अपनी सदियों पुरानी संस्कृति का सहारा लें।

Topics: ‘हिजड़ा’‘किन्नर’‘छक्का’थर्ड जेंडर’Friendly TravelGender-Sexual MinorityThird Gender'कन्वर्जनConversionदोस्ताना सफरलैंगिक-यौनिक अल्पसंख्यक
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