बिहार के पूर्णिया, अररिया, भागलपुर, बेगूसराय, पटना समेत कई शहरों में बंगाली पद्धति से दुर्गा पूजा सैकड़ों वर्ष से हो रही है।
शारदीय नवरात्रि की षष्ठी तिथि यानी छठे दिन से बंगाली समुदाय की दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है। बंगाली समुदाय के लोग आश्विन शुक्ल पक्ष षष्ठी को घट स्थापना (कलश स्थापना) करते हैं। शारदीय नवरात्रि की षष्ठी तिथि को दुर्गा पूजा का पहला दिन कल्पारंभ के नाम से जाना जाता है। मान्यता के अनुसार इस दिन मां दुर्गा, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी और कार्तिकेय-गणेश के साथ धरती पर आती हैं। कल्पारंभ पूजा के दिन मां दुर्गा की प्रतिमा से पर्दा हटाया जाता है। इस दौरान कलश में जल भरकर मां दुर्गा को समर्पित करते हुए इसकी स्थापना की जाती है।
घट स्थापना के बाद महासप्तमी, महाअष्टमी और महानवमी, इन तीनों दिन मां दुर्गा की विधिवत पूजा-आराधना की जाती है। सप्तमी को विशेष स्नान, अष्टमी को कन्या पूजन और नवमी को विशेष पूजन होता है। आखिरी दिन यानी विजयादशमी पर सिंदूर खेला होता है। महिलाएं इस दिन सिंदूर के साथ होली खेलती हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे सुहाग और समृद्धि बढ़ती है। इसके बाद मां को विदाई दी जाती है।
पूर्णिया
कभी पूर्णिया जिले में बंगाली परिवार बड़ी संख्या में रहते थे। नवरतन, मधुबनी और पूर्णिया सिटी में इनकी अच्छी संख्या थी, लेकिन 1990 के बाद इनकी संख्या कई कारणों से कम होती चली गई। आज भी पूर्णिया में कई स्थानों पर बंगाली रीति—रिवाज से पूजा होती है। इसमें मधुबनी मुहल्ले की पूजा काफी प्रसिद्ध है। यहां गत 57 वर्ष से पूजा हो रही है। यहां के लोगों के लिए श्री श्री 108 सार्वजनिक दुर्गा मंदिर आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहां सभी समुदाय के लोग मां दुर्गा का दर्शन करने आते हैं। मधुबनी कॉलोनी सार्वजनिक दुर्गा पूजा समिति के अध्यक्ष सुब्रत राय और सचिव दीनबंधु पाल बताते हैं कि यहां वर्ष 1966 से मां दुर्गा की मूर्ति बनाकर मेला का आयोजन किया जा रहा है। अमूमन समिति द्वारा बंगाल से बाउल संगीत के कलाकारों को बुलाया जाता है। बाउल संगीत बंगाली समुदाय के लोगों में काफी लोकप्रिय है।
भागलपुर
भागलपुर में भी अच्छी संख्या में बंगाली परिवार रहते थे। यहीं प्रख्यात कलाकार अशोक कुमार का जन्म हुआ था। विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने भी अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय यहां बिताया है। यहीं उन्होंने अपना बहुचर्चित उपन्यास ‘देवदास’ की रचना की थी। यहां कई स्थानों पर बंगाली रीति—रिवाज से पूजा होती है
मारवाड़ी पाठशाला परिसर में पूजा
जुबन संघ द्वारा मारवाड़ी पाठशाला परिसर में षष्ठी पूजा को बोधन घट स्थापित की गई। इसे माता का आगमन पूजा भी कहा जाता है। इस दिन प्राण-प्रतिष्ठा पूजा बांग्ला विधि-विधान से होने के बाद पट श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए जाते हैं। कचहरी चौक पर सत्कार क्लब का पंडाल है। इसके कोषाध्यक्ष धर्मेंद्र कुमार ने बताया कि षष्ठी पूजन के बाद माता दुर्गा की ननद को बेल निमंत्रण दिया गया। सप्तमी पर शनिवार को सुबह नौ बजे प्राण-प्रतिष्ठा पूजन की गयी। अष्टमी व नवमी को खिचड़ी व दशमी को हलवा का भंडारा होगा।
महाशय ड्योढ़ी और सूजापुर दुर्गा स्थान में होती है दो चली पूजा
भागलपुर की महाशय ड्योढ़ी और सूजापुर दुर्गा स्थान की एक विशेषता है। यहां मेढ़ पर मेढ़ चढ़ाया जाता है। दुर्गा पूजा में मेढ़ पर मेढ़ चढ़ाने की परंपरा महाशय परिवार के राम घोष के द्वारा किया गया था। बिहार में पहली बार इसे यहीं प्रारंभ किया गया था। उस समय से दो चली दुर्गा पूजा अर्थात मेढ़ पर मेढ़ चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई।
सप्तमी पूजा के लिए महाशय ड्योढी दुर्गा स्थान से कलश भरने का कार्यक्रम बंगाली टोला घाट तक किया गया। कलश यात्रा में कोलाबो नव पत्रिका को बहू के रूप में सजाया जाता है। उन्हें पालकी में डाल कर घाट पर पहुंचाकर नव द्रव्य से नहलाया जाता है। इस बार भी यह प्रक्रिया अपनाई गई। वापस आने के बाद कौड़ी भी लुटाई गई।
नाथनगर में दुर्गा मां की पूजा
महाशय ड्योढ़ी के अलावा शहरी क्षेत्र में मनसकामना नाथ, सीटीएस रोड, एमटीएन घोष रोड, पासीटोला, नसरतखानी, नूरपुर आदि में स्थापित दुर्गा मां की पूजा धूमधाम से की जा रही है।
पटना
पटना के मीठापुर, जक्कनपुर, राजेंद्र नगर जैसे कई मुहल्ले बंगाली परिवार से आबाद थे। इस शांतिप्रिय समुदाय के अधिकांश बंगाली परिवारों का पलायन लालू राज में हो गया। पटना में ही बंगाल के मुख्यमंत्री रहे डा. विधान चंद्र राय का जन्म हुआ था।
पुराना पटना ही आज पटना सिटी कहलाता है। वहाँ के मारुफगंज मोहल्ले में प्लासी की लड़ाई (1757 ई.) के आसपास बटकृष्ण कमलाकांत साहा द्वारा दुर्गा पूजा की शुरुआत की गई। पहले यह पारिवारिक पूजा थी, लेकिन खर्च बढ़ने के कारण बाद में यह सार्वजनिक हो गई। संभवतः ऐतिहासिक कारणों से उस देवी को बड़ी देवी कहा जाने लगा। करीब छह पीढ़ियों से इस पूजा के पुजारी बंगाल के श्रीरामपुर से, मूर्तिकार कृष्णनगर और ढाक बजाने वाले मुर्शीदाबाद से आते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारियों की गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र दुर्गा पूजा स्थल होते थे। कई स्थानों पर इन्हें बंगाली अखाड़ा भी कहा जाता था। इस प्रकार के पटना में छह बंगाली अखाड़े हैं। इनमें एक लंगरटोली स्थित ऐतिहासिक बंगाली अखाड़ा भी है।
लंगरटोली में 129 साल से हो रही है दुर्गा पूजा
पटना की लंगरटोली स्थित सूर्योदयान पूजा सेलिब्रेशन कमेटी 129 साल से दुर्गा पूजा का आयोजन कर रही है। कमेटी के प्रधान पुरोहित अशोक कुमार घोषाल बताते हैं कि पूजा की शुरुआत 1893 में बिहार साव लेन शरद कुमार के घर से हुई थी। उस जगह को टुनटुन सिंह का बगीचा कहा जाता था। उस समय दो से तीन फीट की मूर्ति ही स्थापित होती थी और छोटे स्तर पर सामान्य ढंग से पूजा होती थी। दो वर्ष तक यानी 1893 से 1895 तक वहां पर पूजा हुई। 1896 में वकील विनोद बिहारी मजूमदार ने पूजा कमिटी को बंगाली अखाड़ा की जमीन दे दी। उस समय से दुर्गा पूजा का आयोजन बंगाली अखाड़ा में हो रहा है। विनोद बिहारी मजूमदार पटना हाई कोर्ट के वकील थे और पूजा कमिटी के संस्थापक सदस्य भी। अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए बंगाली अखाड़ा में गुप्त बैठक हुआ करती थी। शुरुआत के दिनों में बंगाली अखाड़ा में शेड के नीचे दुर्गा पूजा का आयोजन छोटे पैमाने पर हुआ करती थी।
पंडाल से लेकर प्रतिमा तक में बंगाली शैली
इस बार पंडाल की ऊंचाई 35 फीट और चौड़ाई 50 फीट है। पंडाल का निर्माण पटना के कारीगरों ने किया है। पश्चिम बंगाल के निमाई पाल की टीम ने मां की प्रतिमा बनाई है।
कभी यहां वर्धमान से ढ़ाक बजानेवाले आया करते थे। बंगाली अखाड़ा में अखाड़ा चलता था। इसलिए शक्ति की पूजा के लिए यहां दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाने लगा। इस अखाड़े में कई राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता भी हो चुकी है।
चार पीढ़ियों से एक ही परिवार करा रहा पूजा
सुर्योद्यान पूजा सेलिब्रेशन कमेटी बंगाली अखाड़ा के प्रधान पुरोहित अशोक कुमार घोषाल बताते हैं कि यहां पर सबसे पहले मेरे परदादा गिरीश चंद्र विद्यारत्न पूजा कराते थे। उनके निधन के बाद दादा श्यामा प्रसाद घोषाल पूजा कराने लगे। दादाजी के बाद मेरे पिताजी सतीश चंद्र घोषाल इस कमेटी के लिए पूजा किए। वर्तमान समय में ये 1990 से पूजा करा रहे हैं। नवरात्र में मांस-मछली नहीं खाते हैं। षष्ठी को यहां कलश स्थापना होती है। कलश स्थापना के दिन से ही वे उपवास पर चले जाते हैं। दिन भर पानी और फल और शाम में आटे की रोटी खाते हैं। बंगाली पूजा विधान के अनुसार शाम में पुजारी चावल का ग्रहण नहीं करते हैं।
इसके अलावा पटना के जक्कनपुर, मीठापुर बी एरिया, नया टोला, गर्दानीबाग और यारपुर ठाकुरबाड़ी समेत कई स्थानों पर भी धूमधाम से दुर्गा पूजा हो रही है।
बेगूसराय
बेगूसराय के लखनपुर में स्थापित भगवती और दुर्गा पूजा की चर्चा बंगाल तक होती है। करीब 400 साल पहले यहां बंगाल से ही पैदल पूरे रास्ते छागर (खस्सी) की बलि देते हुए मां दुर्गा को लाकर स्थापित किया गया था। उस समय से यहां बंगाली पद्धति से मां की पूजा-अर्चना हो रही है। समय के अनुसार मंदिर में बदलाव हुआ, लेकिन यहां की प्रतिमा में कोई बदलाव नहीं किया गया। प्रति वर्ष एक ही ऊंचाई और स्वरूप की प्रतिमा बनाई जाती है।
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