जो वीभत्सता, नृशंसता और पाशविकता इस्राइल की महिलाओं और बच्चों के साथ दिखाई गई, उसमें ऐसा कुछ नहीं था, जो भारत ने बार-बार, और हाल के समय में कश्मीर में, न झेला हो।
भारत और इस्राइल एक दूसरे के और एक जैसे दर्द के सहभागी हैं। लेकिन इस्राइल पर हमास के आतंकवादी हमले के बाद विश्व भर में, और भारत में भी, जिस प्रकार के स्वर और व्यक्ति सामने आए हैं, वह एक चिंतनीय परिदृश्य उत्पन्न करते हैं। हमने वामपंथियों-उदारपंथियों द्वारा आतंकवादी हमले का जश्न मनाने के दृश्य दुनिया के लगभग हर कोने से देखे हैं। निरीह और निश्चित नागरिकों पर अत्यंत वीभत्स ढंग से हमला करना, हत्याओं और तमाम अन्य अत्याचारों के अलावा शवों तक के साथ वीभत्स आचरण करना किस जश्न का आधार हो सकता है? यही कारण है कि जब इस्राइल ने जवाबी कार्रवाई शुरू की, तो विक्टिम कार्ड खेलने का पुराना हथकंडा इस बार विश्व में शायद किसी ने भी जरा भी गंभीरता से नहीं लिया।
यह जरूर कहा जाना चाहिए कि जो वीभत्सता, नृशंसता और पाशविकता इस्राइल की महिलाओं और बच्चों के साथ दिखाई गई, उसमें ऐसा कुछ नहीं था, जो भारत ने बार-बार, और हाल के समय में कश्मीर में, न झेला हो। लेकिन शायद इससे भी बड़ी त्रासदी यह थी कि जिस तरह भारत तमाम झंझावातों के बाद फिर धीरे-धीरे अपनी सामान्य लय में लौट आता था, उसे भारत की स्वाभाविक कमजोरी मान लिया गया था। क्षोभ की बात यह है कि भारत के इस दर्द को समझने की चेष्टा न के बराबर की गई। अपनी वीभत्सता और पाशविकता के लिए क्षमा प्रार्थना करना तो दूर, एक वर्ग ऐसा भी देखने में आया है, जो आज तक इसी का दंभ भरता है।
अगर निर्दोषों की हत्या पर उत्सव मनाना किसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, तो नौकरी पर रखना अथवा न रखना तो नियोक्ता का सीधा विशेषाधिकार है। इसका अर्थ यही हुआ कि जो संदेश वे देना चाह रहे थे वह सही स्थान तक पहुंच गया है। अब देखना यह है कि इसके प्रत्युत्तर में दिया गया संदेश सही स्थान तक पहुंच पाता है या नहीं।
इस प्रकार के दंभ प्रदर्शन से घाव सूखते नहीं, उलटे हरे होते हैं। यही कारण है कि उमेश कोल्हे की हत्या का प्रकरण, जिसे उसके ही पुराने मित्र ने धोखा देकर और हत्यारों का गिरोह एकत्रित करके सिर्फ इस कारण जान से मार दिया था कि उसने सोशल मीडिया पर नूपुर शर्मा के समर्थन में बात क्यों की थी, एक वर्ष से अधिक अवधि बीत जाने के बाद फिर सोशल मीडिया पर तेजी से उभरा है और इस कारण उभरा है, क्योंकि उसके हत्यारोपी इस्राइल विरोधी और हमास के समर्थक थे। इसे किसी तरह का तर्क देकर टालने अथवा टरकाने का प्रयास करना निरर्थक होगा। हम सभी ने देखा है कि कम से कम 1500 निर्दोषों की हाल ही में हत्या करने वाले हमास के समर्थन में पाकिस्तानी खिलाड़ी मोहम्मद रिजवान ने श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर जीत गाजा को समर्पित करने का ट्वीट किया, मेहमान होने के बावजूद हैदराबाद के ग्राउंड में दुआ पढ़कर एक संदेश देने की कोशिश की। क्या संदेश था यह? और किसके लिए था?
अच्छी बात यह है कि अब इस प्रकार के संदेश न केवल सही पते-ठिकाने पर पहुंच रहे हैं, बल्कि सही ढंग से सुने और समझे भी जा रहे हैं। यही कारण है कि जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय के वामपंथी-उदारपंथी छात्रों ने अपना जश्न और समारोह कर लिया, तो इसी विश्वविद्यालय के वरिष्ठ छात्रों और विश्व की बड़ी कंपनियों के नेतृत्वकारी लोगों ने सीधे विश्वविद्यालय को यह चेतावनी दी कि वह इस तरह के प्रदर्शनों में शामिल होने वाले छात्रों को अपने यहां नौकरी नहीं देंगे।
आखिर हम इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि विक्टिम कार्ड के तमाम हाहाकार के साथ-साथ ये घोषणाएं भी बार-बार की जा रही हैं कि दुनिया में हर व्यक्ति को एक विशेष मजहब को मानना होगा अथवा मरना होगा होगा। हमास ने तो वैश्विक स्तर पर जिहाद की भी धमकी दी है, और ऐसी धमकियां देने वाले सिर्फ घोषित आतंकवादी नहीं हैं। बल्कि इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को पूरी तरह ब्रेनवाश हो चुके नजर आते हैं।
अगर निर्दोषों की हत्या पर उत्सव मनाना किसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, तो नौकरी पर रखना अथवा न रखना तो नियोक्ता का सीधा विशेषाधिकार है। इसका अर्थ यही हुआ कि जो संदेश वे देना चाह रहे थे वह सही स्थान तक पहुंच गया है। अब देखना यह है कि इसके प्रत्युत्तर में दिया गया संदेश सही स्थान तक पहुंच पाता है या नहीं।
यह आवश्यक भी है और महत्वपूर्ण भी। आखिर हम इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि विक्टिम कार्ड के तमाम हाहाकार के साथ-साथ ये घोषणाएं भी बार-बार की जा रही हैं कि दुनिया में हर व्यक्ति को एक विशेष मजहब को मानना होगा अथवा मरना होगा होगा। हमास ने तो वैश्विक स्तर पर जिहाद की भी धमकी दी है, और ऐसी धमकियां देने वाले सिर्फ घोषित आतंकवादी नहीं हैं। बल्कि इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को पूरी तरह ब्रेनवाश हो चुके नजर आते हैं।
आखिर सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस युग में सत्य और तथ्य को न छिपाया जा सकता है और न ही बहानेबाजी करके दबाया जा सकता है। आवश्यकता इसके प्रति जागरूक रहने की है। हर समाज के हर व्यक्ति को पूरी तरह सचेत, सचेष्ट और जागरूक रहना होगा। जिस प्रकार एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर सकती है, उसी प्रकार कई बार गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। दोनों ही स्थितियां नितांत अवांछनीय हैं।
@hiteshshankar
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