भारत-भक्त नागा दिल्ली की अज्ञानता पर कुढ़ते रहे, दिल्ली के गलत निर्णयों का शिकार होते रहे, इनमें से अनेक भारत-भक्त लोगों की नागा आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी।
अभी कुछ ही दिन पहले एक पुस्तक आई है, ‘पूर्वोत्तर के प्रहरी : नागालैंड।’ नागालैंड की संस्कृति, परंपरा, सामाजिक ताने-बाने, भौगोलिक स्थिति एवं उससे जुड़े मिथकों आदि के बारे में जानने के इच्छुकों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। इसके लेखक हैं पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक जीवन और वहां के इतिहास की गहन जानकारी रखने वाले जगदम्बा मल्ल। यह पुस्तक उन्होंने क्यों लिखी, इसके बारे में उन्होंने ‘अपनी बात’ में बताया है, ‘‘नागा समाज के बारे में एक प्रचलित छवि है कि सभी नागा ईसाई हैं, हिंदू विरोधी हैं, जो सत्य से परे है। प्रारंभ में नागाओं की इस गलत छवि को प्रचारित करने वाली विदेशी मिशनरियां तथा अंग्रेजी लेखक थे। बाद में नागा लेखकों ने भी इस गलत छवि को ही प्रचारित किया। शेष भारतवर्ष से अलग विशिष्ट इतिहास के नाम पर नागा लेखकों व मीडिया ने भी इस गलत छवि को ही प्रचारित किया और अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारी। दिल्ली इस अपप्रचार का शिकार हुई और उसने कुछ गलत निर्णय लिए जिसके कारण नागा समस्या सुलझने के बदले उलझती गई। भारत-भक्त नागा दिल्ली की अज्ञानता पर कुढ़ते रहे, दिल्ली के गलत निर्णयों का शिकार होते रहे, इनमें से अनेक भारत-भक्त लोगों की नागा आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। ’’ (पृष्ठ 23)
आम लोगों में नागाओं को लेकर कई तरह की धारणाएं व्याप्त हैं कि नागाओं का खान-पान अजीब है लेकिन लेखक का कहना है कि ये सब बेकार की बातें हैं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कुछ नीतियों के कारण भी नागा समस्या बढ़ी। इनमें एक यह है कि उन्होंने नागालैंड में हिंदू साधुओं के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। पृष्ठ 57 पर लेखक लिखते हैं, ‘‘नेहरू ने ईसाई मिशनरियों के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के अनुसार, हिंदू साधुओं को नागालैंड में प्रवेश करने से प्रतिबंधित किया गया था। आज नागालैंड में 95 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है।’’
इसके लिए लेखक ने ‘द पैट्रियट’ के 13 अक्तूबर, 1964 के अंक में छपी एक खबर को उद्धृत किया है। नेहरू की इस नीति ने ही नागालैंड को ईसाई-बहुल बना दिया। हालांकि नेहरू-भक्तों ने इसे छिपाने की कोशिश की है। इसमें एक हैं रामचंद्र गुहा। इन्होंने हाल ही में अपने एक लेख में संतों के लिए ‘हिंदू मिशनरी’ लिखा है, जबकि हिंदू मिशनरी जैसा कुछ नहीं होता। नागालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री एस.सी. जमीर नागा समस्या पर खुलकर बोलते थे। पुस्तक में डॉ. जमीर पर अलग से एक अध्याय है। इस अध्याय में उनके भाषणोें को भी स्थान दिया गया है।
एक भाषण में डॉ. जमीर कहते हैं, ‘‘बहुत छोटी उम्र में ही जब से मैं राजनीति में आया तभी से मुझे पूरा-पूरा ज्ञात था कि नागा समाज के लोग भूमिगत नागाओं के ‘नागा देश’ की मांग से तंग आ चुके हैं, उनको यह मांग बिल्कुल बेकार लगती है। मैं जानता था और पूरा विश्वास था कि वर्तमान परिस्थिति में स्वतंत्र नागा देश की मांग न तो संभव है, न ही उचित। जब मैं मुख्यमंत्री बना तो पूर्ण राज्य बनने के कारण नागालैंड को जो विशेष सुविधाएं मिली थीं, उसका पूरा-पूरा लाभ लेने हेतु मैंने अपना ध्यान केंद्रित किया। अपने प्रदेश के विकास करने के लिए जितना हो सके, अधिक से अधिक संसाधन जुटाना मेरा एक मात्र लक्ष्य था। किंतु विदेशी उकसावे में आकर भूमिगत नागा-अपने स्वतंत्र ‘नागा देश’ की मांग पर अड़े हुए थे और निर्दोष लोगों का जीवन तथा बंदूक की गोलियों की बर्बादी कर रहे थे। मुझे अब भी पूर्ण भरोसा है कि नागा समस्या के समाधान तथा नागालैंड के सर्वांगीण विकास हेतु जो मेरे विचार व रूपरेखा है, वह सही सिद्ध होगा, काल के चक्र पर खरा उतरेगा।’’ (पृष्ठ 173)
लेखक पूर्वोत्तर भारत में लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य कर चुके हैं। इस दौरान उन्होंने अनेक कार्यकर्ताओं को संघ कार्य से जोड़ा। वे अपने प्रयासों से अनेक कार्यकर्ताओं को पूर्वोत्तर भारत ले गए। इन कार्यकर्ताओं को कार्य करने में किस तरह की कठिनाई आई, इसे भी पुस्तक में अनेक घटनाओं के माध्यम से बताया गया है। कई बार तो इन कार्यकर्ताओं को स्थानीय लोग किसी न किसी बहाने से पकड़ कर प्रताड़ित करते थे। एक ऐसे ही कार्यकर्ता थे रामनगीना यादव। वे नागालैंड में प्रथम पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। वे मूलत: उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के थे।
रामनगीना जी 1981 में वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता के तौर पर नागालैंड पहुंचे थे। उन्हें अभी नागालैंड आए कुछ ही दिन हुए थे कि नागा स्टुडेंट्स फेडरेशन (एन.एस.एफ.) के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने पकड़ लिया। इस घटना के बारे में लेखक ने जो लिखा है, वह बहुत ही मार्मिक है। वे लिखते हैं, ‘‘एन.एस.एफ. के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने 27 अक्तूबर,1981 को कोहिमा में प्रात: 9 बजे रामनगीना जी को पकड़ लिया। वे ‘इनर लाइन परमिट’ की जांच कर रहे थे। रामनगीना जी के पास ‘इनर लाइन परमिट’ थी, किंतु उसे नागा छात्रों ने फाड़ कर फेंक दिया तथा उन्हें बंदी बना लिया। कुछ लोगों ने रामनगीना जी को छोड़ देने हेतु आग्रह किया, किंतु एन.एस.एफ. के कार्यकर्ता नहीं माने और उन्हें कुछ साथियों के साथ कोहिमा लोकल ग्राउंड भेज दिया।’’ (पृष्ठ-731)
लेखक ने रामनगीना जी को अथक प्रयासों से छुड़ाया और 15 दिन तक अपने पास ही रखा। इसके बाद रामनगीना जी संघ कार्य में पूरी क्षमता के साथ लग गए।
जादोनांग छात्रावास
20 फरवरी, 1984 को जेलियांगरांग गांव में जेलियांगरांग हरक्का स्कूल प्रारंभ हुआ। रामनगीना जी इस स्कूल के संस्थापक प्रधानाचार्य बने। फिर जादोनांग छात्रावास शुरू हुआ। इस छात्रावास के बारे में लेखक ने लिखा है, ‘‘दूर-दराज के हरक्का और हिंदू बच्चों को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए टेनिंग में स्कूल के पास भाड़े की एक झोंपड़ी में न्गम गांव के चार बच्चों को लेकर छात्रावास प्रारंभ किया गया। रामनगीना जी स्वयं इस छात्रावास की व्यवस्था देखते थे। इस काम में न्दापिंग बाबा (न्जाओ वासी) उनकी मदद करते थे तथा स्कूल के साथ-साथ रामनगीना जी के रक्षक का कार्य करते थे। संसाधनों के अभाव में छात्रावास का भाड़ा कल्याण आश्रम देता था और भोजन सामग्री छात्र अपने घर से लाते थे।
उन दिनों रामनगीना जी तथा अन्य कार्यकर्ताओं को बहुत कम मानदेय मिलता था, किंतु उसी में से कुछ राशि बचाकर वे उसे छात्रावास की व्यवस्था में लगाते थे। इस छात्रावास व स्कूल की सफलता के लिए रामनगीना जी सतत प्रयासरत रहे। उनकी तपस्या के कारण ही यह स्कूल चर्च व आतंकवादियों के विरोध, शारीरिक प्रताड़ना और अपमान के बावजूद एक-एक कक्षा करके आगे बढ़ता गया। आज इसमें कक्षा 10 तक की पढ़ाई होती है। पक्का भवन बन गया है। आज नागालैंड के कुछ सफल विद्यालयों की सूची में जोलियांगरांग हरक्का स्कूल, टेनिंग का नाम है।’’ (पृष्ठ 734-735)
नागालैंड में वनवासी कल्याण आश्रम के प्रवेश पर भी लेखक ने कुछ बातें लिखी हैं। वे लिखते हैं, ‘‘1970 तथा उसके बाद नागालैंड में आतंकवाद, अलगाववाद तथा चर्च का आतंक चरम सीमा पर था। चर्च और उससे जुड़े चरमपंथी सनातन-धर्मी नागा हिंदुओं को प्रताड़ित करते थे, उनको ईसाई बनने के लिए विवश करते थे। इसी कारण वे रानी गाइदिन्ल्यू, हेपाउ जादोनांग तथा एन.सी. जेलियांग की घोर निंदा करते थे। इसी अवधि में वनवासी कल्याण आश्रम का प्रवेश नागालैंड में हुआ। उन दिनों नागालैंड में गैर-नागा कार्यकर्ता का प्रवास करना कठिन था। अपरिचित स्थान पर पहुंचते ही चर्च व एन.एन.सी. के बंदूकधारी उन्हें घेर लेते थे तथा तरह-तरह के प्रश्न करके आने का कारण पूछते थे।’’ (पृष्ठ 760)
कुल 1,146 पृष्ठ की यह पुस्तक नागालैंड की विशेषताओं के साथ-साथ वहां की समस्याओं को उजागर करती है। इसमें अनेक ऐसे वरिष्ठ लोगों का परिचय दिया गया है, जिन्होंने नागालैंड की किसी न किसी रूप में सेवा की है।
इसमें दो मत नहीं कि सामग्री के मामले में पुस्तक अद्वितीय है, लेकिन अशुद्धियां बहुत अधिक हैं। ऐसा लगता है कि प्रूफ ठीक से नहीं पढ़ा गया।
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