2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के साथ देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी जयंती मनायी जाती है। 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय जिले में एक निर्धन परिवार में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव और रामदुलारी देवी के घर पुत्र रूप में जन्मे माँ भारती का इस वीर सपूत का बचपन बेहद संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में बीता था। मात्र डेढ़ वर्ष की दुधमुही अवस्था में पिता के देहावसान के उपरांत मां को अपने मायके रामनगर जाकर रहना पड़ा। बेहद गरीबी में कर्ज लेकर मां ने किसी तरह उनकी स्कूली शिक्षा पूरी कराई। अध्ययन के लिए वे अपने सहपाठियों से उधार पर किताब लेकर पढ़ा करते थे। स्कूल जाने के लिए उन्हें रोज कई किलोमीटर तैरकर गंगा नदी पार करना पड़ता था। बचपन से ही अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के मेधावी छात्र लाल बहादुर अपनी कठोर मेहनत और योग्यता के बल पर वे उच्च शिक्षा अर्जित करने में सफल हुए।
वर्ष 1925 में उन्होंने काशी विद्यापीठ से संस्कृत भाषा में स्नातक की उपाधि ‘’शास्त्री’’ हासिल की और तभी से अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगाना शुरू कर दिया। शिक्षा पूरी कर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के सम्पर्क में आकर वे देशसेवा का व्रत लेकर भारत सेवक संघ से जुड़ गये। यहीं से उनका राजनीतिक जीवन शुरू हुआ। सच्चे गाँधीवादी शास्त्री जी दहेज प्रथा के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अपनी शादी में दहेज के नाम पर महज खादी का कपड़ा और कताई चक्र ही लिया था। अपना सारा जीवन सादगी और ईमानदारी से बिताने वाले शास्त्रीजी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1921 के असहयोग आंदोलन, 1930 के दांडी मार्च और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता निभायी थी। वे कई बार जेल भी गये और अपनी कार्य कुशलता, जनप्रियता और साफ सुथरी ईमानदार छवि के बल पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए देश के प्रधानमंत्री के शीर्षस्थ पद तक जा पहुंचे।
जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने देश के दूसरे प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था। गौरतलब हो कि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का भी प्रभार संभाला जिसमें रेल मंत्री, परिवहन एवं संचार मंत्री, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, गृह मंत्री प्रमुख थे। बतौर परिवहन मंत्री शास्त्री जी ने ही सार्वजनिक परिवहन बसों में महिला चालकों और कंडक्टरों के प्रावधान की शुरुआत की थी। साथ ही गृहमंत्री के रूप में उन्होंने भ्रष्टाचार की रोकथाम पर पहली समिति की शुरुआत की थी। इसके लिए के. संथानम की अध्यक्षता में उन्होंने एक कमेटी गठित की थी। इसी कमेटी की अनुशंसा पर केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की स्थापना की गयी। वहीं रेलमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान एक रेल दुर्घटना में कई लोगों की जान जाने से आहत होकर शास्त्री जी ने दुर्घटना के लिए उन्होंने खुद को जिम्मेदार मानते हुए पद से इस्तीफा दे दिया था।
‘’जय जवान-जय किसान’’ का नारा बुलंद करने वाले शास्त्री जी देश के ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिनकी एक आवाज पर देशवासियों ने संकटकाल में एक वक्त का खाना तक छोड़ दिया था। उन्हीं ही नेतृत्व में भारत ने वर्ष 1965 की जंग में पाकिस्तान को शिकस्त दी थी। कहने को तो शास्त्री जी अहिंसा के अनुयायी थे लेकिन अपनी मातृभूमि को सबसे ऊपर रखते थे। पाकिस्तान के तत्कालीन फील्ड मार्शल अय्यूब खां ने जब दुबले-पतले शरीर और पांच फीट दो इंच लंबाई वाले शास्त्री को कमजोर प्रधानमंत्री मानकर 1965 में जब दोबारा भारत पर आक्रमण कर दिया तब शास्त्री ने पाकिस्तान को उसकी हद याद दिला दी थी। काबिलेगौर हो कि शास्त्री शारीरिक रूप से जितने कमजोर दिखते थे, मानसिक रूप से वे उतने ही मजबूत और दृढ निश्चयी थे। 1965 के युद्ध के दौरान जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने धमकी दी कि अगर भारत, पाकिस्तान के साथ युद्ध नहीं रोकता है तो वह पीएल-80 समझौते के तहत गेहूं की आपूर्ति रोक देगा तो शास्त्री जी अमेरिका की इस धमकी से बिना डरे देशवासियों से सप्ताह में एक दिन एक वक्त का खाना छोड़ने की अपील की। उनकी अपील का यह असर हुआ कि देशवासियों ने सप्ताह में एक वक्त का खाना छोड़ दिया। यहां तक कि सोमवार की शाम को होटल और भोजनालय भी बंद रहने लगे।
हालांकि इस अपील से पहले शास्त्री जी ने इसका प्रयोग खुद अपने घर में किया था। वस्तुतः शास्त्री जी के क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यवहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। शास्त्रीजी ने इन परिस्थितियों में नेहरू जी के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और ‘’जय जवान-जय किसान’’ का नारा बुलंद कर देश की जनता का मनोबल बढ़ाया। उनके आह्वान पर सारा देश एकजुट हो गया, जिसकी कल्पना पाकिस्तान ने सपने में भी नहीं की थी। दरअसल 1965 के भारत पाक युद्ध के समय लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे। युद्ध के दौरान देश में अन्न की कमी हो गयी थी। देश भुखमरी की समस्या झेल रहा था। उस संकट के समय में लाल बहादुर शास्त्री ने अपना वेतन लेना बंद कर दिया। यहाँ तक की उन्होंने अपने घर पर काम करने वाली नौकरानी को भी काम पर आने से मना कर दिया और घर का सारा काम खुद ही करने लगे। देशवासी उनकी सादगी और विनम्रता के कायल थे।
अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान लालबहादुर शास्त्री ने देश को कई संकटों से उबारा। वे गरीबी और बेरोजगारी को देश का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। अपने 18 महीने के कार्यकाल में उन्होंने देशहित में कई उल्लेखनीय कदम उठाये थे। देश में दूध उत्पादन में वृद्धि के लिए श्वेत क्रांति जैसे ऐतिहासिक अभियान शुरू करने का श्रेय शास्त्री जी को ही जाता है। उन्हीं की पहल पर 1965 में गुजरात के आणन्द में नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) गठित हुआ था। उन्होंने भारत में हरित क्रांति को भी बढ़ावा दिया ताकि देश में किसानों की समृद्धि और भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। इसके तहत नवंबर 1964 में चेन्नई में केंद्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मार्च 1965 में आंध्र प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय (हैदराबाद), इलाहाबाद में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना की गयी। 1965 में ट्राम्बे में प्लूटोनियम प्रसंस्करण की शुरुआत हुई थी। डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा की पहल पर शास्त्री ने ‘स्टडी ऑफ न्यूक्लियर एक्सप्लोजन फ़ॉर पीसफुल परपजेस’ (एसएनईपीपी) का गठन किया था। देश के प्रति की गयी अप्रतिम सेवाओं के लिए माँ भारती के इस वीर सपूत को 1966 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी के जन्म-दिवस पर कोटि-कोटि नमन।
ताशकंद में शास्त्री जी की मौत या हत्या
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ही भांति स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत भी आज तक रहस्य बनी हुई है। 10 जनवरी 1966 को पाकिस्तान के साथ ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के महज 12 घंटे बाद 11 जनवरी को रात 1: 32 बजे उनकी मौत हो गयी। बताया जाता है कि शास्त्री निधन से आधे घंटे पहले तक बिल्कुल ठीक थे, लेकिन 15 से 20 मिनट में उनकी तबीयत खराब होने पर डॉक्टरों ने उन्हें इंट्रा-मस्कुलर इंजेक्शन दिया और इंजेक्शन देने के चंद मिनट बाद ही उनकी मौत हो गयी। आधिकारिक तौर पर कहा जाता है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई, जबकि इसके इतर कुछ रिपोर्ट में दावा किया गया है कि उनको साजिश तहत मारा गया था। गौरतलब हो कि 2 अक्टूबर 1970 को शास्त्री जी के जन्मदिन के मौके पर उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने स्पष्ट रूप से अपने पति की मौत की जांच कराने की मांग की थी। अपनी माँ के कथन से सहमति जताते हुए शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री ने भी अपने पिता की मौत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि उनके पिता की देह पर नीले व कट के निशान संदिग्धता जताते हैं। शास्त्री जी के प्रेस सचिव और उनके करीबी मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब ‘बियॉन्ड द लाइंस’ में शास्त्री जी मृत्यु वाली रात का पूरा ब्योरा दर्ज है। इस किताब में कई खटकने वाली बातों की ओर इशारा किया गया है जैसे उनकी निर्जीव देह में चेहरा नीला था और माथे पर चीरे का निशान का होना षड्यंत्र की आशंका जताता है क्योंकि हार्ट अटैक के मौत के मामले में ऐसा नहीं होना चाहिए था।
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