पूनम नेगी
चरैवेति… चरैवेति…अर्थात चलते रहो! चलते रहो ! हर्ष का विषय है कि भारतीय संस्कृति का यह ऋषि सूत्र आज पर्यटन के माध्यम से हमारे भारत को एक अनूठी वैश्विक पहचान दे रहा है। भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक, अरुणाचल प्रदेश से गुजरात तक के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्टता और संस्कृति है। हमारी विविधतापूर्ण भव्य प्राकृतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक धरोहरें हमारे भारत को पर्यटन की दृष्टि से आकर्षक व महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाती हैं। यही वजह है कि आज हमारा देश तीर्थ पर्यटन, पारिस्थितिकी पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन, वन्य पर्यटन, पर्वतीय पर्यटन साहसिक पर्यटन व ग्रामीण पर्यटन आदि विभिन्न श्रेणी के पर्यटनों के लिए पूरी दुनिया में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। ज्ञात हो कि वर्ल्ड ट्रेवल एण्ड टूरिज्म कांउसिल (डब्ल्यूटीटीसी), 2018 की रिपोर्ट में भारत को पर्यटन के मामले में विश्व में तीसरा स्थान मिला है। इस रिपोर्ट में 185 देशों के पिछले सात वर्षों (2011-2017) के प्रदर्शन पर अवलोकन किया गया था। इस रिपोर्ट के चार मुख्य आधार थे- सकल घरेलू उत्पाद में कुल योगदान, अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन खर्च, घरेलू पर्यटन खर्च और पूँजी निवेश। इन चार स्तरों पर अपना स्थान ऊपर उठा पाने की दृष्टि से यह भारत के लिए एक गौरवशाली उपलब्धि कही जा सकती है।
दरअसल पर्यटन एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो किसी भी देश के राष्ट्रीय, सामाजिक, सामूहिक और व्यक्तिगत जीवन को एक नयी गति, प्रगति व विकास तो देता ही है; इसके माध्यम से हम अपनी संस्कृति संस्कार दूसरों तक पहुंचाते हैं तथा दूसरों की संस्कृति व संस्कारों से भी परिचित होते हैं। यदि पर्यटन के इस उपयोगी पक्ष पर सरकारों के साथ हर देशवासी गंभीरता से अमल करे तो पर्यटन हमारी संस्कृति व संस्कारों को विकसित करने की एक अनूठी पाठशाला बन सकता है। जबकि इस पक्ष की उपेक्षा कर सिर्फ मौज मस्ती की मानसिकता से किया गया पर्यटन पर्यावरण को दूषित करने में बड़ी भूमिका निभाता है। इसलिए इस बिंदु पर गंभीरता से अमल कर कुछ नीति नियमों को अमली जामा पहनाया जा सके तो पर्यटन की सार्थक परिभाषा गढ़ी जा सकती है।
ज्ञात हो कि बीती सदी के सुप्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक जॉन नैसविट ने अपनी पुस्तक ‘’ग्लोबल पैराडॉक्स’’ में उल्लेख किया था कि 21वीं पर्यटन उद्योग विश्व का सबसे बड़ा उद्योग होगा। आज नैसविट की बात की सच्चाई हम सबके सामने है। भारत हो या दुनिया का कोई अन्य देश; हर जगह पर्यटन सुविधाओं की विस्तृत जानकारी प्रिंट टीवी इंटरनेट के माध्यम से सहज उपलब्ध है। आर्थिक आंकड़ों की दृष्टि से तो विदेशी पर्यटकों एवं राष्ट्रीय आय का संबंध साफ उजागर होता है। लेकिन; इससे यह पता नहीं चलता कि इन पर्यटकों में से कितनों को भारत के राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व का पता चला तथा कितनों ने भारत की बहुरंगी संस्कृति के बारे में जानने व सीखने में अभिरुचि दिखायी।
गौरतलब हो कि भारत के प्राचीन इतिहास को पलटें तो पाएंगे कि उस दौर में पर्यटन का लक्ष्य सदा से माँ प्रकृति का सानिध्य प्राप्त करना और आध्यात्मिक उत्कर्ष का होता था। कालांतर में ज्ञान अर्जन और समृद्धि के लिए भी पर्यटन किया जाने लगा। चीनी पर्यटक ह्वेनसांग और फाह्ययान के बारे में तो प्रायः प्रत्येक प्रबुद्ध भारतीय जानता ही होगा जिन्होंने हमारे देश की ज्ञान व संस्कृति की अनगिनत बातें सीख कर अपने देशवासियों को सिखायी थीं। इसी तरह भारत से विदेश जाने वाले कुमारजीव, कौडिन्य और बौद्ध धर्मानुयायियों ने अपने आचरण व ज्ञान से वहां के निवासियों को लाभान्वित किया था।
अतीत के इस सच का पुनर्मूल्यांकन करना व इसका नवीनीकरण करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। आंकड़े बताते हैं कि विदेशों से भारत आने वाले पर्यटक यहां औसतन 10 से 29 दिन तक ठहरते हैं। इतने समय में उन्हें देश की प्राचीन गौरवशाली विरासत और राष्ट्रीय विशेषताओं के बारे में सहजता बताया सिखाया जा सकता है। किन्तु यह दायित्व केवल सरकारी ढांचे से जुड़े लोगों का ही नहीं है; सारी जिम्मेदारी सरकार के माथे मढ़कर देशवासियों का स्वयं को राष्ट्रीय दायित्वों से मुक्त कर लेना एक तरह से राष्ट्रीय अपराध ही माना जाना चाहिए। इस दोष के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। पर्यटन से जुड़े सरकारी ढांचे के साथ संस्कृति व संस्कार का सच बताना और सिखाना देश के प्रत्येक सुशिक्षित नागरिक का दायित्व होना चाहिए। इनमें पर्यटन उद्योग से जुड़े लोगों के अलावा होटल व्यवसायी, दुकानदार परिवहन व्यवस्था से जुड़े लोग; या फिर कलाकार व शिल्पकार तथा सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक संस्थाओं को भी अग्रणी भूमिका निभाने की जरूरत है।
यह सच है कि पर्यटन उद्योग धन अर्जन का कारगर माध्यम है किन्तु परंतु भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों का प्रसार सबसे बढ़कर है। कारण कि इनके न रहने पर आखिर अपनी किन विशेषताओं के आधार पर हम देशी व विदेशी सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित कर पाएंगे। इसलिए पर्यटन उद्योग को संस्कृति एवं संस्कारों की पाठशाला बनाने पर गहरायी से विचार करना होगा। यह कर्तव्य राष्ट्रीय व प्रांतीय सरकारों के साथ प्रत्येक भारतवासी का भी होना चाहिए। आखिर जो पर्यटक हमारे देश व प्रांत में अपना बहुत सारा धन व समय खर्च करके आते हैं; उनके मन में निश्चित ही बहुत कुछ देखने के साथ बहुत कुछ जानने और सीखने की भी प्रबल लालसा होती होगी। उनकी देखने की लालसा तो जैसे तैसे पूरी हो जाती है परंतु जानने और सीखने की लालसा अधूरी रह जाती होगी। इसलिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है कि हम अंतर प्रांतीय और बाहर से आने वाले पर्यटकों को अपने प्रांत देश की कौन सी अनूठी बात बताएंगे, सिखाएंगे। यदि हम सब देशवासी मिलकर उनकी यह इच्छा पूरी कर सकें, पर्यटकों से अपनी आर्थिक सम्पन्नता बढ़ाने के बदले उन्हें अपने राष्ट्र की संस्कृति व संस्कारों से समृद्ध कर सकें तभी हम अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को सही रूप में निभाकर पर्यटन के ऋषि सूत्र को सार्थक कर सकेंगे।
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