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उच्च शिक्षा क्षेत्र में बदलाव की पहल

अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारम्भ से ही मोदी सरकार शिक्षा क्षेत्र में आधारभूत परिवर्तनों के लिए प्रयत्नशील है

by प्रो. रसाल सिंह
Sep 26, 2023, 04:07 pm IST
in मत अभिमत
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारम्भ से ही मोदी सरकार शिक्षा क्षेत्र में आधारभूत परिवर्तनों के लिए प्रयत्नशील है। हालांकि, इन परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पहले कार्यकाल में ही तैयार होने लगी थी। व्यापक विचार-विमर्श और जनभागीदारी से निर्मित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 उसी तैयारी का फलागम है। मैकॉले और मैकॉले-पुत्रों द्वारा निर्मित-विकसित भारत का शिक्षा-तंत्र भारत और भारतीयों की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा है। इसलिए इस औपनिवेशिक तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए उसे भारत केंद्रित बनाने और उसके भारतीयकरण पर जोर दिया जा रहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनराविष्कार और प्रतिष्ठा राष्ट्रीय शिक्षा नीति की केंद्रीय चिंता है। शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाकर और उसकी पहुँच सर्वसाधारण तक सुनिश्चित करके ही भारत में अंतर्निहित अपरिमित  संसाधनों और भारतवासियों की असीम क्षमताओं का पूर्ण विकास संभव है। गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ शिक्षा, समाजोपयोगी नवाचारी शोध तथा युवा पीढ़ी के कौशल विकास द्वारा ही राष्ट्रीय विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा 2018 में ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ तथा 2019 में ‘राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन’ के गठन की घोषणा की गयी थी। हालाँकि, कुछ कारणों से इन दोनों के कार्यान्वयन की गति धीमी रही। पिछले दिनों संसद में अधिनियम पारित करके भारत सरकार ने इन दोनों का कार्यान्वयन प्रारम्भ कर दिया है।

अब तक उच्च शिक्षा क्षेत्र में अनेक नियामक संस्थाएँ थीं। उनके अपने अपने मानदंड व मापदंड हुआ करते थे। यूजीसी, आईसीएसएसआर, आईसीएआर, एआईसीटीई, एनसीटीई, नैक, एनआईआरएफ जैसी एक दर्जन से अधिक नियामक संस्थाएँ देश के कला, विज्ञान, व्यवसाय, अभियांत्रिकी, शिक्षा, प्रबंधन, कृषि शिक्षा आदि अनुशासनों से सम्बंधित उच्च शिक्षण संस्थानों व शोध-संस्थानों की संबद्धता, मूल्यांकन, प्रत्यायन, रैगिंग, वित्तपोषण और नियंत्रण आदि का काम किया करती थी। इन अलग-अलग नियामक संस्थाओं के अधीन उच्च शिक्षा पृथक्करण और बहुपरतीय नियंत्रण का शिकार थी। देशभर में ऐसे अनेक उच्च शिक्षण संस्थान व शोध-संस्थान हैं, जहाँ एक साथ कई प्रकार के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं एवं इनसे सम्बद्ध शोध-कार्य किया जाता है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सभी संस्थानों को क्रमशः बहु-अनुशासनिक बनाने पर जोर दिया गया है। विभिन्न पेशेवर और परम्परागत संस्थानों की आपसी दूरी और अलगाव के ‘स्टील फ्रेम’ की क्रमिक समाप्ति प्रस्तावित है।

इन बहु-अनुशासनिक उच्च शिक्षण संस्थानों व शोध-संस्थानों को अपनी मान्यता, मूल्यांकन, प्रत्यायन, रैगिंग एवं वित्तपोषण आदि के लिए अलग-अलग नियामक संस्थाओं का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। इस प्रक्रिया में ये संस्थान अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करते रहे हैं। कई बार इन नियामक संस्थाओं में अनियमितता एवं पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का दोषारोपण भी होता रहा है। पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं उनके कार्यान्वयन में भी ये नियामक संस्थाएँ दोषमुक्त नहीं रही हैं। ये स्वायत्त नियामक संस्थाएं आपसी टकराव और अंतर्विरोध का भी शिकार रही हैं। इससे संबंधित संस्थानों को अनावश्यक अड़चन और अवरोध का सामना करना पड़ता था। इसीलिए मोदी सरकार ने इन सभी नियामक संस्थाओं की कार्यशैली का मूल्यांकन करते हुए इन्हें एक निकाय के अधीन लाने का निर्णय लिया है। अब अलग-अलग नियामक संस्थाओं में बंटी-बिखरी हुई उच्च शिक्षा एक ही नियामक संस्था ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’, जो कि सीधे तौर पर शिक्षा मंत्रालय की निगरानी में काम करेगा, के अधीन होगी।

भारतीय उच्च शिक्षा आयोग की विशेषता यह है कि यह एक साथ देश के तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालयों और शीर्षस्थ उच्च शिक्षण संस्थानों जैसे आईआईटी, एनआईटी, आईआईआईटी आदि का नियमन और नियंत्रण करते हुए उनके मूल्यांकन, प्रत्यायन, रैगिंग एवं वित्तपोषण आदि का काम करेगा। इस आयोग के चार आयाम (वर्टिकल) होंगे। इन चार आयामों को क्रमशः राष्ट्रीय उच्च शिक्षा विनियामक परिषद्, राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद्, उच्चत्तर शिक्षा अनुदान परिषद् तथा सामान्य शिक्षा परिषद् के नाम से जाना जाएगा। राष्ट्रीय उच्च शिक्षा विनियामक परिषद् उच्च शिक्षण संस्थानों के नियंत्रक के रूप में काम करेगी। वहीं, राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद् उच्च शिक्षण संस्थानों के मूल्यांकन, प्रत्यायन, रैगिंग का काम करेगी।

उच्च शिक्षण संस्थानों के वित्तपोषण का काम उच्चत्तर शिक्षा अनुदान परिषद् द्वारा किया जाएगा। अब तक इन संस्थानों के वित्तपोषण का काम यूजीसी आदि कई एजेंसियां करती थीं। वहीं, सामान्य शिक्षा परिषद् पाठ्यचर्या और शिक्षण से जुड़े मामले देखेगी। इनके नवीकरण की जिम्मेदारी भी इसी की होगी। अब देश के उच्च शिक्षण संस्थानों को मौजूदा अलग-अलग नियामक संस्थाओं के चक्कर काटने से मुक्ति मिलेगी एवं ये शिक्षण संस्थान राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में तत्पर हो सकेंगे। यह आयोग भारत में उच्च शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ बनाने के लिए उत्तरदायी होगा। संस्कारपूर्ण, कौशल संवर्द्धक और रोजगारपरक शिक्षा देने वाले सर्वसमावेशी उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता, संरक्षण और प्रोत्साहन देने का काम भी यह आयोग करेगा।

यह आयोग उच्च शिक्षण संस्थानों के दोहरे-तिहरे नियमन की वर्तमान व्यवस्था का सरलीकरण और स्तरीकरण करेगा, ताकि शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन में दोहरा/तिहरा हस्तक्षेप न हो। इस आयोग द्वारा उच्च शिक्षा में मानकों और गुणवत्ता के संबंध में पारदर्शी तरीके से सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण और योग्यता आधारित निर्णय के माध्यम से विनियमन किया जायेगा। भारतीय उच्च शिक्षा आयोग को अधिगम परिणामों (लर्निंग आउटकम) पर विशेष ध्यान देने के अलावा शैक्षणिक मानकों में सुधार, संस्थानों के शैक्षणिक प्रदर्शन का मूल्यांकन, संस्थानों का परामर्श, शिक्षकों का प्रशिक्षण, अधुनातन शैक्षिक पद्धतियों और प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने आदि का काम भी करना होगा। यह आयोग संस्थानों के नियमन और संचालन के लिए अनुकूलित वातावरण बनाते हुए अधिक लचीलेपन के साथ स्वायत्तता प्रदान करेगा। इस आयोग के पास उच्च शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक गुणवत्ता मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करवाने तथा स्तरहीन और कागजी संस्थानों को बंद कराने की शक्ति भी होगी।

औपनिवेशिक काल से ही जनसंख्या के अनुपात में उच्च शिक्षण संस्थानों की  संख्या एवं गुणवत्ता की दृष्टि से भारत की स्थिति सुखद  नहीं है। भारत लगभग एक हजार विश्वविद्यालयों एवं चालीस हजार कॉलेजों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के अनुपात में यह बहुत सीमित है। भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र के विस्तार और विकास की अत्यधिक आवश्यकता  एवं असीम संभावनाएं हैं।

उच्च शिक्षा की वर्तमान दशा स्वतंत्रता के बाद देश में अपनाई गयी उच्च शिक्षा नीति के मूलभूत दोषों को उजागर करती है। किंतु अब ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ उच्च शिक्षा की खामियों को चिह्नित करते हुए उन्हें दूर करने तथा शिक्षा के भारतीयकरण का काम करेगा। यह शिक्षा तंत्र के विस्तार को भी सुनिश्चित करेगा। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पूर्ण कार्यान्वयन करते हुए भारत को ज्ञान अर्थव्यवस्था बनाने में सहायक होगा। उच्च शिक्षण संस्थानों को योग्य शिक्षक और सक्षम नेतृत्व प्रदान करने में भी इस आयोग द्वारा निर्मित नीतियों और मानकों की निर्णायक भूमिका होगी। इस एकीकृत और सर्वसक्षम आयोग के गठन से समय, संसाधन और धन की भी बचत होगी।हालाँकि, इस आयोग की सीमा यह है कि इस आयोग में विधि तथा चिकित्सा से जुड़े उच्च शिक्षण संस्थानों को शामिल नहीं किया गया है। साथ ही, उपरोक्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सरकार को उच्च शिक्षा तंत्र में भारी निवेश करने की भी आवश्यकता होगी।

भारत सरकार ने इस आयोग के साथ ही विगत 4 अगस्त, 2023 को ‘राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन अधिनियम’ को  भी संसद से पारित कराया है। भारतीय उच्च शिक्षा आयोग की भांति यह फाउंडेशन भी अनुसंधान की दशा व दिशा को बदलने की युगांतकारी पहल है। यह फाउंडेशन गणित, प्राकृतिक विज्ञान, इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और पृथ्वी विज्ञान, स्वास्थ्य और कृषि तथा मानविकी और सामाजिक विज्ञान की अंतर्क्रिया और अभिक्रिया को संभव करेगा। यह अनुसंधान, नवाचार एवं उद्यमिता के लिए रणनीतिक दिशा एवं आवश्यक संसाधन और ढांचागत सुविधाएं प्रदान करने वाला देश का सर्वोच्च निकाय होगा। आज भारत चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर तिरंगा लहरा रहा है। यह भारत के वैज्ञानिकों की गंभीर अनुसंधान-वृति का प्राप्य है। भारत की प्राचीनतम अनुसंधान-वृत्ति का पुनराविष्कार, प्रोत्साहन इस फाउंडेशन के ध्येय है। संसाधनों की कमी और लालफीताशाही को समाप्त करके और अनुसंधान को समाज और उद्योग जगत से जोड़कर ही भारत को 2047 में विकसित राष्ट्र बनाया जा सकता है।

(लेखक किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)

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