यूं तो सभी नदियां हमारी आस्था से जुड़ी हैं, लेकिन गंगा-यमुना-सरस्वती भारतीय संस्कृति की धुरी हैं। गंगा नदी के लिए नमामि गंगे योजना चल रही है लेकिन यमुना का प्रदूषण छोटा मामला नहीं रहा। इसे लेकर कई ‘एक्शन प्लान’ बने, मगर नदियों और जल के प्रति उदासीन समाज ने स्थिति को संभलने ही नहीं दिया। देश के पांच राज्यों के भीतर से अपने 1376 किलोमीटर के बहाव में करीब 6 करोड़ लोगों के जीवन को सीधे छूने वाली यमुना की बात करना जरूरी है। जल-आन्दोलन के जरिये नमो यमुने शृंखला शुरू करने और इसकी सफाई-संरक्षण के लिए अब तक हुई पहल की पूछताछ करने का मकसद यही है, इस मसले का संदर्भ और समाधान पाठकों, नीति निर्माताओं के सामने रहे, जमीन पर उतरे
नदियों के पुनर्जीवन के मायने ये हैं कि वे अपने अविरल प्रवाह में रहें, अपने मूल रास्तों से न भटकें और अपने उद्गम से जिस निर्मल स्वरूप में वे बहती हैं, आगे की राह तय करते हुए उतनी ही शुद्ध रह सकें। यमुना हिमालय के कालिन्दी पर्वत से निकलती है, इसीलिए इसका पौराणिक नाम कालिन्दी भी है। सूर्य की पुत्री, यमराज और शनिदेव की बहन और कृष्ण की चौथी पत्नी यानी आष्टभार्या कही जाने वाली यमुना से जुड़ी कई कथाएं हैं, जिनमें से एक यह भी है कि यमुना में कालिया नाग का मर्दन करने पर इसके पानी का रंग काला हुआ और यह भी कि पत्नी सती के विरह में शिव ने यमुना में डुबकी लगायी, तब उसका रंग काला हो गया। यमुना का स्याह रंग उसकी पहचान रहा है और यह हमारी धरोहर, मगर आज बदरंग होती यमुना हमारी आस्था पर आघात है।
निर्मल देवभूमि, मलिन राजधानी
उत्तराखण्ड में यमुना किनारे बसे प्राचीन स्थान हरिपुर धाम को अब अपनी खोई पहचान मिल रही है, लेकिन यमुना के तट पर, दिल्ली, आगरा, मथुरा, हमीरपुर और प्रयागराज जैसे शहर भी बसे हैं। और, शहरों और नदियों का यहां भी वही नाता है जो अंधाधुंध दौड़ और कुदरत के बीच खिंचाव का है। उत्तराखण्ड के यमुनोत्री ग्लेशियर से हरियाणा के हथिनी कुंड बैराज तक 200 किलोमीटर में बहने वाली यमुना के बहाव क्षेत्र में खनन, बाजार, रिहाइशी और औद्योगिक प्रदूषण, कटते जंगलों के अलावा सिकुड़ते-पिघलते ग्लेशियर का संकट है। हिमालय से आगे बढ़ते हुए दिल्ली के वजीराबाद बैराज तक फिर से 200 किलोमीटर के रास्ते में इसका बहाव धीमा पड़ जाता है। बजरी खनन, बस्तियां और रासायनिक खेती के अंश इसमें घुलकर इसे जहरीली और झाग वाली नदी में बदल देते हैं। आगे उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ते हुए, करीब 500 किलोमीटर तक इटावा में सखी नदी चंबल तक इसका प्रवाह बनता है, जहां पहले वाली समस्याएं फिर खड़ी मिलती हैं। और आखिर के 500 किलोमीटर में यमुना, इटावा से प्रयागराज तक जाकर गंगा में समाहित हो जाती है।
एक ओर गंगा सफाई अभियान और दूसरी ओर यमुना के बहाव के साथ आयी गन्दगी, ऐसे तो नदियां स्वच्छ नहीं होने वालीं। पारदर्शी यमुना की जो छवि उत्तराखण्ड में देखने को मिलती है, वो आगे बहते-बहते गन्दे नाले में बदल जाती है। हरियाणा के करनाल, पानीपत, सोनीपत और उत्तर प्रदेश के नोएडा, फरीदाबाद, मथुरा, आगरा के उद्योगों का मैला हिंडन नदी और दूसरी छोटी नदियों के जरिये इसमें आकर मिल जाता है
यदि गंगा की यह सबसे लम्बी, सबसे प्रिय सखी नदी, सारी मलिनता समेटते हुए चलेगी तो आगे जाकर त्रिवेणी भी निर्मल कैसे रह पाएगी? एक ओर गंगा सफाई अभियान और दूसरी ओर यमुना के बहाव के साथ आयी गन्दगी, ऐसे तो नदियां स्वच्छ नहीं होने वालीं। पारदर्शी यमुना की जो छवि उत्तराखण्ड में देखने को मिलती है, वह आगे बहते-बहते गन्दे नाले का रूप ले लेती है। हरियाणा के करनाल, पानीपत, सोनीपत और उत्तर प्रदेश के नोएडा, फरीदाबाद, मथुरा, आगरा के उद्योगों का मैला हिंडन नदी और दूसरी छोटी नदियों के जरिये इसमें आकर मिल जाता है। उत्तराखण्ड और हिमाचल में खिसकी मिट्टी-जमीन, तूफानी बारिश और बादल फटने से मची तबाही को अंजाम दे रही हैं, तो नदी को खोखला करते जाना ही इसकी बड़ी वजह है। हिमाचल में यमुना किनारे बसे पांवटा साहिब को भी नदी के साफ होने का इंतजार है ताकि यहां मत्था टेकने आने वाले पानी के आकर्षण में और बंधें। दोष राजधानी दिल्ली का भी कम नहीं, जिसने यमुना के मैलेपन को असल में जग-जाहिर किया है।
शहरों की शह, शापित नदियां
यमुना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के रिहाइशी इलाकों का 90 प्रतिशत मलिन पानी यमुना में गिरता है। सालाना एक दफा काम में आने वाला ढाई लाख टन प्लास्टिक इसमें समा जाता है, जिसे यह निगल नहीं पाती। दिल्ली में वजीराबाद से ओखला तक करीब 48 किलोमीटर लंबी यमुना में गिरने वाले 19 नालों में जो कुछ घुल-मिलकर आता है, वो यमुना का गला घोंटने में कामयाब रहा है। कॉलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा का सामान्य से 500 गुना होना, भारी धातुओं की इस पानी में मौजूदगी, इन सबकी अनदेखी करने का खामियाजा मौजूदा और आने वाली पीढ़ी नयी-नयी बीमारियों के महामारी में बदलने तक सहेगी। असल में दिल्ली की यमुना कहीं दिखती ही नहीं क्योंकि दिल्ली के भीतर अपनी कुल लंबाई की केवल 2 प्रतिशत यमुना है जिसमें 70 प्रतिशत प्रदूषण ने इसे पूरा पाट दिया है।
बाढ़ में ये नदी जिस उफान पर रहती है, तभी लगता है, यह चेता रही है। संभलने और संभालने का इशारा कर रही है, नहीं तो बेकाबू पानी का कहर हमने देखा ही है। हरियाणा से दिल्ली तक आने के रास्ते में आने वाले करीब आधा सैकड़ा छोटे-बड़े बंधारे यमुना की कुदरती चाल को धीमा कर देते हैं जिसकी वजह से ज्यादा बारिश सोखने की उसकी ताकत यानी रिवर-स्पॉन्जीनेस खो जाती है और इसकी कीमत चुकता होती है बेकाबू बाढ़ और बेबसी से। राज्यों के आपसी तालमेल की कमी से नदी प्रबंधन और पानी के बंटवारे के छोटे-छोटे मसले भी उलझे हैं जिन पर खुलकर बात करनी होगी। शहरों की तेजी का जो असर यमुना सहित और नदियों ने भुगता है, उसके लिए भी राज्यों को मंथन तो करना होगा, और जुर्माना तय करने के साथ स्वच्छता के स्थायी और प्रामाणिक विकल्प भी तैयार करने होंगे।
देखना होगा आर-पार
बिना साफ किया 50-60 प्रतिशत सीवेज को नदी में डाला जाना, सिर्फ़ दिल्ली की नहीं, बल्कि देश भर के समृद्ध कहे जाने वाले शहरों के बीच से बह रही तमाम नदियों की असलियत है। चाहे फिर गुवाहाटी की भरालू हो या इंदौर की कान्ह नदी। इन सब नदियों के लिए जितनी भी कार्ययोजनाएं बनीं, या नमामि गंगे सहित दूसरी योजनाओं-अभियानों से फंड मिला, उसमें से काफी कुछ पानी में न बहा होता या वक़्त रहते इस्तेमाल होता तो ये नदियां, पर्यटन नहीं, जलवायु के लिए वरदान होतीं। नदियों के किनारे-किनारे निर्माण से बाजार पनपते हैं, छोटे-बड़े नये रोजगार सृजित होते हैं, शहरों के बाहरी चोले की चमक-दमक बढ़ती है, रौनक बढ़ती है। लेकिन इन सबसे पहले, इस बात का खयाल रखना ज्यादा जरूरी होता है कि नदियां अपनी तली तक, पानी की सदियों की मार से घिसे हुए गोल पत्थरों और जलीय जीवों-पौधों तक आर-पार नजर आयें।
जापान के सहयोग से सरकार के स्तर पर यमुना एक्शन प्लान भी बना, जो अलग-अलग चरण में जारी रहा, मगर नतीजे मन-मुताबिक नहीं आये। इसलिए पहली बात मन को मनाने की ही है। सरकारों का मन, शहरों का मन और फिर यहीं से बनता नया नदी-समाज। आस्था और स्वच्छता का समन्वय चाहे भावनाओं को भुना कर हो, या फिर कड़ाई बरतकर रास्ता तो निकालना पड़ेगा
अब तक सब जानते-बूझते, न उद्योगों से निकले रासायनिक कचरे पर लगाम लगी, न पर्यावरण कानूनों की बात किसी ने मानी। समाज ने जरूर बीड़ा उठाया और नागरिक, जन-संगठनों और अकादमिक संस्थाओं ने अपने-अपने सामर्थ्य से काम भी किया। इसीलिए हम भी यहां तक पहुंचे पाये हैं कि यह आवाज और बुलन्द हो। जो अभी तक हुआ है, वो नाकाफी है। हमें केवल पांच नहीं, बल्कि सात राज्यों में अपनी सखी नदियों को जोड़ते हुए चलने वाली यमुना के पूरे हिस्से की सफाई चाहिए। हमें यमुना के लिए समर्पित जल-योद्धा चाहिए, सिर्फ़ घोषणाएं नहीं। हमें आचमन लायक शुद्धता का पैमाना चाहिए, समझौते वाली मलिन नदियां नहीं।
नदी समाज की आवाज
यमुना को लेकर देश में कई संगठनों और समूहों ने अभियान छेड़े हैं। इनमें से यमुना संसद जन-अभियान बना, हरियमुना सहयोग समिति ने यमुना परिक्रमा पथ की पैरवी की, यमुना मित्रों ने अपनी छोटी-छोटी मंडली बनाकर यमुना की सफाई के लिए जागरूकता फैलायी। और भी कई नागरिक संगठन अपनी-अपनी तरह से यमुना मंथन में जुटे हैं। यमुना को स्वच्छ करने के राज्य सरकारों के वादे भी हैं जिन्हें सभी जन-संगठन राजनीति के लोक-लुभावन तरीके करार देकर खारिज करते हैं। करीब 30 साल पहले जापान के सहयोग से सरकार के स्तर पर यमुना एक्शन प्लान भी बना, जो अलग-अलग चरण में जारी रहा, मगर नतीजे मन-मुताबिक नहीं आये। इसलिए पहली बात मन को मनाने की ही है। सरकारों का मन, शहरों का मन और फिर यहीं से बनता नया नदी-समाज। आस्था और स्वच्छता का समन्वय चाहे भावनाओं को भुना कर हो, या फिर कड़ाई बरतकर रास्ता तो निकालना पड़ेगा।
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