जानें! गणेशोत्सव में क्यों किया जाता है गणपति बप्पा मोरया का उद्घोष

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पूनम नेगी

हिन्दू संस्कृति के व्रतों-त्योहारों व पर्वों की सुदीर्घ श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है गणेश चतुर्थी। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रति वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से अनंत चतुर्दशी तक विघ्नहर्ता गणेश का जन्मोत्सव पूरी श्रद्धा व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। गणपति बप्पा का यह दस दिवसीय उत्सव इस बार 19 से 28 सितम्बर तक मनाया जा रहा है। गजानन गणेश भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। हिन्दू धर्म में इन्हें “प्रथम पूज्य” की गरिमामय पदवी से विभूषित किया गया है। सनातन संस्कृति का कोई भी कार्य गणपति को नमन के बिना शुरू नहीं किया जाता क्योंकि वे विघ्नहर्ता व शुभत्व का पर्याय हैं और सुख-समृद्धि, वैभव एवं आनंद के अधिष्ठाता भी। दस दिवसीय गणेशोत्सव के दौरान देशभर का हिंदू समाज पूर्ण भक्ति भाव के साथ बल, बुद्धि व विद्या के प्रदाता मंगलपूर्ति गणेश का आरती-वंदन करता है।

इस दौरान बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी “गणपति बप्पा मोरया” के जयकारे लगाते हैं। मगर क्या आप गणपति बप्पा से जुड़े इस “मोरया” नाम का अर्थ जानते हैं ! इस बाबत गणेश-पुराण में एक रोचक कथा आती है। कहा जाता है कि एक बार सभी देवगण जब सिंधु नामक महा दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो गये क्योंकि उस समय उनके अग्रज व देव सेनापति कार्तिकेय उच्च शक्तियां अर्जित करने के लिये तप साधना में लीन थे। तब उन देवों की रक्षा के लिए गणेश जी ने अपने अग्रज के वाहन मयूर को अपना वाहन बनाया और छह भुजाओं वाला अवतार लेकर उस दैत्य का विनाश कर देवों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। तब सभी देवों ने “मयूरेश्वर” के रूप में उनकी विजय पर जयकारे लगाये और उनकी पूजा अर्चना की। तभी से जन समाज के बीच वे “मयूरेश्वर” पूजे जाने लगे और कालान्तर में “मोरया” के रूप में लोकप्रिय हो गये।

रूप-स्वरूप ही नहीं, तत्वदर्शन भी अनूठा
ज्ञात हो कि गणेशोत्सव के दौरान गिरिजानंदन अपने प्रत्येक भक्त के घर में अलग-अलग सुंदर स्वरूपों में पधारते हैं। प्रथम पूज्य श्री गणेश ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनकी विशाल आकृति इतना लचीलापन लिए हुए है कि हर चित्रकार को अपने-अपने नजरिए से उन्हें चित्रित करने का अवसर प्रदान करती है। गजानन की किसी मूर्ति में हाथ में लड्डू रहता है तो किसी में वे सिर पर सुंदर पगड़ी धारते हैं; किसी प्रतिमा में गणपति चूहे पर आसीन रहते हैं तो किसी में आराम से पालथी मार कर बैठते हैं तथा कहीं रोचक भाव भंगिमा में नृत्य करते दिखायी देते हैं। गौरतलब हो कि गजानन गणेश की आकृति जितनी मनोहारी है, उसका तत्वदर्शन भी उतना ही शिक्षाप्रद। गणेश का गज मस्तक उनकी सर्वोपरि बुद्धिमत्ता व विवेकशील होने का प्रतीक है। उनकी सूंड़ रूपी लंबी नाक कुशाग्र घ्राणशक्ति की द्योतक है, जो हर विपदा को दूर से ही सूंघ लेती है। छोटी छोटी आंखें गहन व अगम्य भावों की परिचायक हैं, जो जीवन में सूक्ष्म लेकिन तीक्ष्ण दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। उनका लंबा उदर दूसरों की बातों की गोपनीयता, बुराइयों, कमजोरियों को स्वयं में समाविष्ट कर लेने की शिक्षा देता है।

बड़े-बड़े सूपकर्ण कान का कच्चापन न होने की सीख देते हैं। स्थूल देह में वह गुरुता निहित है, जो गणनायक में होनी चाहिए। गणेश शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के भी प्रतीक हैं। उनके हेरंब रूप में युद्धप्रियता का, विनायक रूप में यक्षों जैसी विकरालता का और विघ्नेश्वर रूप में लोकरंजक एवं परोपकारी स्वरूप का दर्शन होता है। गण का अर्थ है समूह। गणेश समूह के स्वामी हैं इसीलिए उन्हें गणाध्यक्ष,लोकनायक, गणपति आदि नामों से पुकारा जाता है। भगवान गणेश की सहजता व सरलता ही उन्हें सर्वाधिक जनप्रिय और जनग्राह्य बनाए हुए है। ये न केवल भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली के कण-कण में व्याप्त है बल्कि विदेशों में भी घर, कारों, कार्यालयों एवं उत्पाद केंद्रों में विद्यमान हैं। हर तरफ गणेश ही गणेश छाए हुए हैं। व्यापारी अपने बही-खातों पर ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखकर नए वर्ष का आरंभ करते हैं। प्रत्येक कार्य का शुभारंभ गणपति पूजन एवं गणेश वंदना से किया जाता है। विवाह का मांगलिक अवसर हो या नए घर का शिलान्यास, मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का उत्सव हो या जीवन में षोड्स संस्कार का प्रसंग- गणपति का स्मरण सर्वप्रथम किया जाता है। हजारों स्थानों पर भारतीय कला और संस्कृति की भिन्न-भिन्न गणेश-छवियों के दर्शन होते हैं। प्रथम पूज्य श्री गणेश ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनकी विशाल आकृति इतना लचीलापन लिए हुए है कि हर चित्रकार को अपने-अपने नजरिए से उन्हें चित्रित करने का अवसर प्रदान करती है।

अष्ट विनायक : मंगलमूर्ति के सिद्ध तीर्थ
कोई कहे ‘गणेश’ तो कोई ‘एकदंत’। कहीं ‘विनायक’ तो कहीं ‘गजानन’। विभिन्न नामों से संबोधित भक्‍तों के प्‍यारे गणपति बप्पा भारतीय जनमानस की आस्था का अटूट केंद्र हैं। विश्व का शायद ही कोई कोना हो जहां हिन्दू धर्मावलम्बी गणेश पूजन न करते हों। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी को संपन्न होने वाले इस दस दिवसीय मंगल उत्सव के दौरान पूरे देश में ‘विघ्नहर्ता’ के भक्तों की आस्था पूरे चरम पर दिखायी देती है। यूं तो इस मंगलमयी बेला में देशभर के सुप्रसिद्ध गणेश मंदिरों और पूजा पंडालों में लाखों श्रद्धालु गणपति बप्‍पा का आशीर्वाद पाने को उमड़ पड़ते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में गणपति उत्सव की अलग ही धूम दिखायी देती है। जिस प्रकार हमारी सनातन संस्कृति में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों की विशेष महत्ता है; हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए महाराष्ट्र के ‘अष्ट विनायक’ भी उसी तरह आस्था के प्रमुख केंद्र हैं। महाराष्ट्र में पुणे के आसपास के सवा सौ किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित मंगलमूर्ति गणेश के आठ पवित्र मंदिर अष्ट विनायकों के नाम से विख्यात हैं।

पुणे से 80 किलोमीटर दूर मोरेगांव स्थित अष्ट विनायकों में प्रथम श्री मयूरेश्वर तीर्थ गणेशजी की पूजा का महत्वपूर्ण केंद्र है। इस मंदिर के चारों कोनों में निर्मित प्रस्तर मीनारें और चार द्वार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक माने जाते हैं। मंदिर के द्वार पर बनी शिव वाहन नंदी की मूर्ति का मुंह भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है। पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन काल में शिवजी और नंदी एक बार इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे, लेकिन बाद में नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। तभी से नंदी यहीं स्थित हो गये। नंदी और मूषक, दोनों ही इस मंदिर के रक्षक के रूप में तैनात हैं। मंदिर में गणेश जी बैठी मुद्रा में विराजमान है तथा उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। मान्यता के अनुसार इस स्थान पर गणेशजी ने मोर पर सवार होकर सिंधुरासुर नामक राक्षस का वध किया गया था। इसी कारण यहां स्थित गणेशजी मयूरेश्वर विनायक के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

अष्ट विनायकों में दूसरे हैं- सिद्धि विनायक। यह मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूरी पर भीम नदी के किनारे एक पहाड़ की चोटी पर बना हुआ है। मंदिर में गणेशजी की तीन फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी उत्तर मुखी मूर्ति स्थापित है, जबकि गणेश की सूंड सीधे हाथ की ओर है। इस सिद्धि विनायक मंदिर की परिक्रमा के लिए पहाड़ी की यात्रा करनी होती है। अष्टविनायकों की इस श्रेणी में तीसरा है श्री बल्लालेश्वर विनायक मंदिर। मुंबई-पुणे हाइवे के किनारे बसे पाली गाँव का यह मंदिर गणेशजी के परम भक्त बालक बल्लाल के नाम से जाना जाता है। कथा है कि प्राचीन काल में बल्लाल नामक एक भक्त बालक ने एक बार अपने दोस्तों के साथ मिलकर पाली गांव में गणेश जी की विशेष पूजा का आयोजन किया था। यह पूजा कई दिनों तक चली, इस कारण उस पूजा में शामिल उसके मित्र कई दिनों तक अपने घर नहीं गये। इस बात से नाराज होकर उन बच्चों के माता-पिता ने बल्लाल को मार-पीट कर गणेश प्रतिमा के साथ उसे पास के जंगल में फेंक दिया, किन्तु उस गंभीर हालत में भी बल्लाल गणेश जी के मंत्रों का जप करता रहा। तब उसकी गहन भक्ति से प्रसन्न होकर गणेशजी ने उसे दर्शन दिए और उसके कहने पर सदा के लिए वहीं विराजमान हो गये। तभी से यह मंदिर बल्लालेश्वर विनायक के नाम से विख्यात हो गया। अष्ट विनायक में चौथे हैं श्रीवरद विनायक। यह मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर क्षेत्र में एक सुन्दर पर्वतीय गांव महाड़ में स्थित है। मान्यता है कि इस मंदिर में नंददीप नाम का एक दीपक सैकड़ों वर्षों में प्रज्जवलित है।

पांचवें विनायक हैं- चिंतामणि गणपति। पुणे जिले के हवेली क्षेत्र में स्थित इस मंदिर के पास ही तीन नदियों भीम, मुला और मुथा का संगम है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शीश नवाने वाले भक्त सहज ही चिंता से मुक्त हो जाते हैं। छठे स्थान पर आते हैं श्री गिरजात्मज विनायक। पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूर नारायणगांव के निकट यह मंदिर एक पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। यहां लेनयादरी पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं और इनमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। गिरजात्मज का अर्थ है गिरिजा यानी माता पार्वती के पुत्र गणेश। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 300 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। सातवें स्थान पर हैं विघ्नेश्वर विनायक। यह मंदिर पुणे के ओझर जिले में जूनर क्षेत्र में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान गणेश ने इसी क्षेत्र में विघ्नासुर का वध कर साधु-संतों को उसके कष्टों से मुक्ति दिलवायी थी। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर विनायक के रूप में जाना जाता है। अष्टविनायकों में आठवें व अंतिम हैं महागणपति। पुणे के रांजणगांव में पुणे-अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर का इतिहास 9-10वीं सदी के बीच माना जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है। मंदिर में स्थित भगवान गणपति की विशाल और सुन्दर मूर्ति को ‘माहोतक’ नाम से भी जाना जाता है।

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