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श्री गुरुग्रंथ साहिब के प्रकाश पर्व : संत वाणी का प्रामाणिक स्रोत

श्री गुरुग्रंथ साहिब में कुछ ऐसे चुने महापुरुषों और संत-महात्माओं की वाणी संकलित है, जो तत्कालीन समाज में आई गिरावट के साक्षी थे। ये वाणीकार मध्ययुगीन सामाजिकता की गिरावट को दूर करने और सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे

by डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी
Sep 16, 2023, 07:11 am IST
in भारत, विश्लेषण
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यह ग्रंथ वास्तव में एक ज्ञानकोश है जिसमें न केवल परमतत्व के आध्यात्मिक स्वरूप की एक अनुपम झांकी मिलती है, अपितु इसमें गहरी अनुभूति पर आश्रित ऐसे अनेक संदेश भी मिलते हैं जिनसे एक सर्वांगीण मानव-जीवन के निर्माण की प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है।

डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी
कुलाधिपति, केंद्रीय विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश संत वाणी का प्रामाणिक स्रोत

श्रीगुरुग्रंथ साहिब मध्ययुगीन साहित्य एवं समाज का दर्पण है। इस महान ग्रंथ में भारत के लगभग 500 वर्ष (11वीं शती से लेकर 17वीं शती) का इतिहास दर्ज है। इस ग्रंथ में उस काल की आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक घटनाओं का उल्लेख है। भिन्न-भिन्न प्रांतों और भिन्न-भिन्न वर्गों से संबंधित भक्ति-काल के प्रतिनिधि कवियों की रचनाएं इस ग्रंथ में संकलित हैं। मशहूर विद्वान डॉ. हरभजन सिंह का कहना है, ‘‘पंजाब में हिंदी काव्य को प्रचारित एवं हिंदी कवियों को प्रोत्साहित करने का श्रेय मुख्यत: सिख गुरुओं को ही है। उन्होंने स्वयं ब्रज भाषा को अपनी वाणी का माध्यम बनाया एवं पंजाब-ब्राह्म, पूर्वकालीन भक्त कवियों की हिंदी रचनाओं का प्रचार पंजाब में किया।’’

डॉ. गुरनाम कीर बेदी मानती हैं, ‘‘श्री गुरुग्रंथ साहिब भारतीय चिंतन और संस्कृति का ऐतिहासिक दस्तावेज है। यह मध्यकाल के शीर्ष भक्तों की वाणी का प्रामाणिक संग्रह है। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इस महान दार्शनिक रचना को गुरु की पदवी से सुशोभित किया। गुरुमत धारा का सर्वप्रथम ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब ही है। गुरुमत आदर्श का संकल्प गुरुओं ने अपनी वाणी में प्रत्यक्ष रूप में प्रकट किया, जबकि भक्तों की वाणी का संपादन इस ढंग से हुआ है कि यह वाणी भी गुरुमत विचारधारा का एक अंग प्रतीत होती है।’’

वस्तुत: गुरु अर्जुनदेव जी ने इस महान ग्रंथ के माध्यम से राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं पंथनिरपेक्षता का एक जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ के वाणीकार हिंदू और मुस्लिम तथा अन्य संस्कृतियों का परस्पर संयोग कर रहे थे। कहना न होगा कि अपने इस प्रयास में वे पूरी तरह सफल हुए। वे सभी धर्मशाखाओं का मूल्यांकन कर रहे थे और गुरु अर्जुनदेव जी ने इन वाणीकारों की बहुमूल्य विरासत को इस महान ग्रंथ में सुरक्षित कर दिया।

गुरु ग्रंथ साहिब केवल सिख मत अथवा भारतमात्र की ही नहीं, अपितु मानवमात्र की अमूल्य निधि है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है, ‘‘यह ग्रंथ वास्तव में एक ज्ञानकोश है जिसमें न केवल परमतत्व के आध्यात्मिक स्वरूप की एक अनुपम झांकी मिलती है, अपितु इसमें गहरी अनुभूति पर आश्रित ऐसे अनेक संदेश भी मिलते हैं जिनसे एक सर्वांगीण मानव-जीवन के निर्माण की प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है।’’

गुरुग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- गुरुवाणी, भक्तवाणी और भट्टवाणी। इसमें छह गुरुओं की वाणियां संकलित हैं। ये हैं- गुरु नानक (1469-1539), गुरु अंगद (1504-1552), गुरु अमरदास (1479-1574), गुरु रामदास (1534-1581), गुरु अर्जुन देव (1563-1616) और गुरु तेगबहादुर (1621-1675)।

सन् 1604 में गुरु अर्जुनदेव ने भाई गुरदास की सहायता से इस महान ग्रंथ का संपादन किया था। 1,450 पृष्ठ की इस अमूल्य निधि में न केवल तत्कालीन धार्मिक प्रवृत्तियों का चित्रण है, बल्कि मानव की चित्तवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। मानव जाति के दु:ख-दर्द और उनकी समस्याओं को अत्यंत जीवंत मानवीयता के साथ उभार कर उनका समाधान भी बताया गया है। इस ग्रंथ के वाणीकार लोक जीवन और लोक संस्कृति से पूरी तरह जुड़े हैं। तभी तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1708 में आदि ग्रंथ को ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का नाम देकर इसे ‘गुरु’ के पद पर आसीन किया। गुरु गोबिंद सिंह जी की इस देन को सराहते हुए डा. धर्मपाल मैनी ने लिखा है, ‘‘शब्द के माध्यम से प्रभु को खोजने का संदेश देते हुए श्री गुरु साहिब को उन्होंने अमर गुरुत्व प्रदान कर दिया। संभवत: सिख पंथ को उनकी यह सबसे बड़ी देन है।’’

श्री गुरुग्रंथ साहिब सिखों का केवल पांथिक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि उनकी प्रेरणा और स्फूर्ति का एक मात्र साधन है। डॉ. जयराम मिश्र कहते हैं, ‘‘जिस भांति हिंदुओं के लिए वेद, पुराण, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता प्रभृति ग्रंथ, मुसलमानों के लिए कुरान और ईसाइयों के लिए बाईबिल मान्य है, उसी भांति श्री गुरुग्रंथ साहिब भी सिखों का परम पूज्य ग्रंथ है। सिखों के सभी दार्शनिक एवं पांथिक विचार इसी ग्रंथ से अनुप्राणित हैं।

’’गुरुग्रंथ साहिब के संकलन का इतिहास अत्यंत महत्वपूर्ण है। पांचवें गुरु अर्जुनदेव को गुरुओं की वाणियां कहां से प्राप्त हुई, इस संबंध में विद्वानों में परस्पर मतभेद हैं। भाई साहिब सिंह ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि गुरुवाणी का संग्रह पहले से होता चला आ रहा था। गुरुनानक जी अपनी वाणियों के संग्रह के प्रति सजग थे। कहते हैं कि उनके पास अपनी वाणियों के संग्रहीत रूप में एक पोथी विद्यमान थी। दूसरे गुरु अंगददेव और तीसरे गुरु अमरदास के पास गुरुनानक जी की वाणी उपस्थित थी। तभी तो गुरुनानक और गुरु अंगददेव जी की वाणियों में असाधारण समानता है। इसी प्रकार गुरु अमरदास जी ने भी गुरु नानकदेव जी द्वारा प्रयुक्त 19 रागों में से 17 रागों में अपनी वाणी उच्चारित की। उनके सम्मुख गुरु नानकदेव जी के 19 राग आदर्श रूप में उपस्थित थे, तभी तो उन्होंने इन रागों में अपनी वाणी उच्चरित की। इसके अतिरिक्त ये ‘सिरी रागु’ का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राग में चारों ओर गुरुओं ने कुछ वाणियों की रचना-‘मन रे’, ‘भाई रे’, ‘मुंधे’ संबोधनों से की है। इससे सिद्ध होता है कि गुरु अर्जुनदेव ने सारी गुरु वाणियां गुरु रामदास से प्राप्त कीं, क्योंकि इस प्रकार के संबोधन तभी हो सकते हैं जब पूर्ववर्ती वाणियों के परस्पर संबंध में रहा

जाए। इसके अतिरिक्त उनकी यह धारणा है कि गुरु अर्जुनदेव ने बाबा मोहन की स्तुति करके वाणियां प्राप्त नहीं कीं। ‘मोहन’ शब्द बाबा मोहन के लिए नहीं, बल्कि ‘अकालपुरख’ के लिए प्रयुक्त हुआ है।

डॉ. जयराम मिश्र भाई साहिब सिंह के इस मत से सहमत नहीं हैं कि जिसे बाबा मोहन की स्तुति समझा जा रहा है, वह शब्द परमात्मा के गुणगान के लिए प्रयुक्त हुआ है और उनमें केवल गुरु अकालपुरख की ही स्तुति हो सकती है। उनका कहना है कि बाबा मोहन साधक ही नहीं, सिद्ध पुरुष थे और उनमें अपूर्व आध्यात्मिक शक्ति थी। वे दिन-रात परमात्मा के ध्यान में निमग्न रहा करते थे और इस प्रकार बाबा मोहन की स्तुति चाटुकारिता मात्र नहीं है, बल्कि ये इसके अधिकारी भी हैं और इस शब्द के अंतिम पद-‘मोहन तू सफलु फलिआ सगु परवारे’ अर्थात् ऐ मोहन तू अपने परिवार समेत फूलो-फलो से यही प्रतीत होता है कि उपर्युक्त पद बाबा मोहन के लिए कहा गया है।
इस प्रकार गुरुग्रंथ साहिब में सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना पर्याप्त मात्रा में परिलक्षित होती है। मध्यकाल की विभूतियों ने समाज के अभावों और कमियों को प्रत्यक्ष रूप में देखा था। मूल्यों के पतन और आध्यात्मिक क्षेत्र में बढ़ रहे पाखंडों और कर्मकांडों के वे साक्षी थे। ईश्वर के नाम पर लड़ते और दूसरे का गला काटने को तत्पर लोगों पर उनकी दृष्टि थी और यही दृष्टि इस स्थिति को बदलने के लिए आतुर हुई और यही उनकी चेतना बनी और चेतना के अंतर्गत उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त पाखंडों, आडंबरों पर कसकर प्रहार किया और सामाजिक स्तर पर गली-सड़ी परंपराओं और रूढ़ियों का कड़ा विरोध किया।

संत कबीर और गुरुनानक ने समाज की बिगड़ती हुई वर्णाश्रम व्यवस्था, परिवार के रिश्ते-नाते, विवाह-संस्कार में आडंबर, स्त्रियों का तिरस्कार, मिथ्या कर्मकांड, निंदा, चुगली, चोरी, धन कमाने की दौड़, परस्त्रीभोग, भिक्षा, काम, क्रोध, मोह, अहंकार, लोभ आदि सामाजिक बुराइयों को जड़ समेत नष्ट करने की प्रेरणा अपनी वाणी में दी है और इस प्रकार श्री गुरुग्रंथ साहिब उस समय के समाज के चित्रण का एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाता है। यह ठीक है कि गुरु नानकदेव जी ने मुगल आक्रमणकारियों की निंदा की और मुसलमान शासकों की निंदा उनके गलत आचरण और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण की है, लेकिन मुस्लिम जनसाधारण से उनके प्रेम का उदाहरण इस बात से मिलता है कि उनका प्रिय साथी मरदाना मुसलमान था।

गुरु नानकदेव जी ने अपनी वाणी में जहां एक ओर हिंदुओं के अवतारवाद, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड, ब्राह्य-आडम्बरों पर कड़ी चोट की है और उन्हें सच्चे अर्थों में हिंदू बनने की प्रेरणा दी है, वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को भी उनके मजहब के आदर्श मूल्यों- समानता, सहनशीलता, धैर्य आदि पर दृढ़ रहने की भी प्रेरणा दी है। श्री गुरुग्रंथ साहिब का उद्देश्य किसी उत्कर्ष साहित्य की रचना करना नहीं था, बल्कि वे तो सीधे-सीधे शब्दों में लोक भाषा में अपनी अनुभूतियों और अनुभव को रख रहे थे। यह अलग बात है कि उनके साहित्य में जहां एक ओर रहस्यमय साहित्य प्रफुल्लित हुआ वहीं दूसरी ओर संगीत, राग और साहित्य का अद्भुत संगम भी प्रस्तुत हुआ।

इस ग्रंथ के प्रकाशन से भारतीय साहित्य में नए आयाम प्रस्तुत हुए। वस्तुत: भारतीय भाषाओं में तुलनात्मक साहित्य का आरंभ इस ग्रंथ से माना जा सकता है। विश्व में यह एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो अपने साहित्यिक स्तर तथा उच्च कोटि की निरंतर प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता रखता है। इस ग्रंथ के वाणीकारों का अनुभव स्वतंत्र था एवं सीधे जीवन से संबंध रखता था। यह वाणी उनकी अंतरात्मा में स्फुटित हुई जो लौकिक जीवन का अलौकिकता से संबंध स्थापित करती है। यह उनकी निश्छल अनुभूति की सरस एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति है। एक साहित्यिक कृति के मूल्यांकन में इसमें उत्कृष्ट साहित्य के सभी तत्व संग्रहीत मिलते हैं।

सारी वाणियां 33 भागों में

गुरु ग्रंथ साहिब में सारी वाणियां 33 भागों में विभक्त हैं, जिनमें 31 भागों के नाम 31 भारतीय रागों पर रखे गए हैं। पहला भाग सिख नित्य नेम की वाणी ‘जपुजी’ (गुरु नानक साहिब), ‘रहरासि’ (गुरु नानक, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव जी के संग्रहीत शबद) और ‘सोहिला’ (गुरु नानक, गुरु रामदास और गुरु अर्जुन देव जी के संग्रहीत शब्द) का है, जो श्री गुरुग्रंथ साहिब के पहले 13 पन्ने बनता है। राग आधारित वाणी 14 से लेकर 1,352 पृष्ठ तक है और तीसरा भाग जिसमें फरीद जी, कबीर साहिब और गुरु साहिबान के श्लोक और 11 भट्टों के सवैये शामिल हैं, वह पृष्ठ 1,355 से लेकर 1,450 तक है। इस प्रकार एक बहुत बड़ा भाग 31 रागों का है। इन 31 रागों के नाम इस प्रकार हैं-1. सिरि रागु 2. रागु माझ 3. रागु भउड़ी 4. रागु आसा 5. रागु गुजरी 6. देवगधारी 7. रागु बिहागड़ा 8. रागु बडहसु 9. रागु सोरठि 10. रागु धनासरी 11. रागु जैतालिरी 12. रागु टोड़ी 13. रागु वैराड़ी 14. रागु तिलंग 15. रागु सूही 16 रागु बिलावलु 17. रागु गोड़ 18. रागु रामकली 19. रागु वैराड़ी 20. रागु माली गउड़ा 21. रागु मारन 22. रागु तुआरी 23. रागु केदारा 24. रागु भैरउ 25. रामु वसंतु 26. रागु सारगु 27. रागु मलार 28. रागु कानड़ा 29. रागु कलिआन 30. रागु प्रभाती 31. रागु जैजावंती

डॉ. धर्मपाल मैनी के अनुसार यह ग्रंथ आध्यात्मिक रचना होने के कारण भावों और विचारों की ही प्रधानता देकर चलता है। कल्पना उसके सौंदर्य को बढ़ाती रही है और भाषा एवं शैली भावानुकूल होकर उसके अभिव्यक्ति पक्ष को सफल बनाने में सहायक सिद्ध हुई है। जहां तक श्री गुरुग्रंथ साहिब की भाषा का संबंध है, इस बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। डॉ. ट्रम्प जैसा विदेशी विद्वान ‘ग्रंथ’ की भाषा में इतना अधिक मिश्रण देखकर इसकी भाषा को एक नाम देने में स्वयं को असमर्थ पाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल इसे ब्रज भाषा मानते हैं वहीं डॉ. मोहन सिंह आदि इसे शुद्ध पंजाबी ग्रंथ मानते हैं। देखा जाए तो वाणीकारों ने वह भाषा इस्तेमाल की है जो उस समय सामान्य जन की समझ में आ सकती थी। इसमें 19 भक्तों की वाणी सम्मिलित है। ये भक्त कवि भिन्न-भिन्न प्रांतों से संबंध रखते थे।

स्वाभाविक ही था कि उन्होंने अपनी वाणी में उस प्रांत विशेष के मुहावरों, लोकोक्तियों, बोलियों का इस्तेमाल किया है। इसलिए ग्रंथ की भाषा में कहीं-कहीं प्राकृत एवं अपभ्रंश, कहीं ब्रजभाषा, कहीं खड़ी बोली तथा कहीं-कहीं लहदां आदि का प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त इसकी शब्दावली में पर्याप्त मात्रा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग मिलता है। जहां मुल्लाओं को संबोधित किया गया है, वहां फारसी के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। यह शब्दावली भावों के अनुकूल बदलती चलती है। इसी प्रकार छंदों के प्रयोग में ऐसा ही दिखाई देता है। अष्टपदियों का प्रयोग धार्मिक और दार्शनिक भावों को दर्शाने के लिए हुआ है, छंदों का प्रयोग भगवत-मिलन के आह्लाद अथवा वियोग का दु:ख प्रकट करने के लिए हुआ है। भावों के अनुकूल भाषा क्रमश: सरस, मधुर, सरल, स्पष्ट तथा उद्वेगपूर्ण है। योगियों के वर्णन में यौगिक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है।

श्री गुरुग्रंथ साहिब में 31 राग प्रयुक्त हुए हैं। अत: प्राय: सारी रचना ही संगीतात्मक है। अलंकारों में अनुप्रास, उपमा और रूपक स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। रूपक और उपमा का उत्कृष्ट उदाहरण गुरु नानक जी की आरती में देखा जा सकता है-‘गगन मैं थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती। धूप मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बन राइ फूलन जोती।’

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