भारत के उन विरल मुख्य चुनाव आयुक्तों में से हैं, जो मुख्य चुनाव आयुक्त रह चुकने के बाद कांग्रेस की ओर से न केवल राज्यसभा के सदस्य रहे, बल्कि उसने उन्हें केन्द्र में मंत्री भी बनाया।
मनोहर सिंह गिल भारत के उन विरल मुख्य चुनाव आयुक्तों में से हैं, जो मुख्य चुनाव आयुक्त रह चुकने के बाद कांग्रेस की ओर से न केवल राज्यसभा के सदस्य रहे, बल्कि उसने उन्हें केन्द्र में मंत्री भी बनाया। कांग्रेस सरकार के काल में उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया। हालांकि भारतीय चुनाव प्रक्रिया में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की शुरुआत उनके मुख्य चुनाव आयुक्त रहते हुए ही हुई। 2015 में भारत के चुनाव आयोग ने स्वयं ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का प्रस्ताव किया था। इसके तीन वर्ष बाद भी, प्रतिरोध के दृष्टिकोण के पीछे के तर्क को समझने के लिए पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने उनसे मार्च 2018 में बातचीत की थी। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत पर आधारित डॉ.एम.एस.गिल के विचार
पूरे देश में संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के संदर्भ में मेरा कहना है कि यह न तो संभव है, न ही ठीक है। इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं, जिन पर हमें गौर करना होगा। पहली बात, हमने अपना जो संविधान बनाया है वह ब्रिटिश संसद के 1935 के एक्ट के आधार पर, उसमें थोड़ा रद्दोबदल करके बनाया है। हमारा संविधान संसदीय शासन प्रणाली वाला है। इसमें धारा 356 भी उसी 1935 के एक्ट से आई है।
आज इस संविधान को 70 साल हो गए और इसी के अनुसार संसदीय और राज्यों के चुनाव कराए जाते रहे हैं। जनादेश के तहत केन्द्र में जिस दल का बहुमत होता है उसका नेता प्रधानमंत्री बनता है। जनता का विश्वास न रहने पर उसे हटना होता है, फिर से चुनाव होते हैं। ऐसे ही राज्यों में बहुमत पाने वाले दल की सरकार और मुख्यमंत्री बनता है। बहुमत न रहे तो उसे इस्तीफा देना पड़ता है। मैं 6 साल मुख्य चुनाव आयुक्त रहा, इस बीच मैंने 3 संसदीय चुनाव कराए।
आज जो कहा जाता है कि बार-बार चुनाव कराने से खर्च बहुत होता है, विकास कार्यों में बाधा आती है। ये तर्क सही नहीं हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव खर्च देखेंगे तो पाएंगे कि हमारे यहां यह खर्च कम होता है। देश को चूना लगाने वाले ही उससे ज्यादा पैसा ऐंठ कर ले जाते हैं। माल्या है, नीरव मोदी है। मेरा कहना है कि लोकतंत्र के लिए खर्च मायने नहीं रखता। इसमें जनादेश की ताकत होती है, जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनाती।
फिर, कहा जाता है कि आचार संहिता लागू होने पर विकास नहीं हो पाता। चुनाव आयोग में अपने कार्यकाल में मैंने कहा था कि आचार संहिता लागू होने से विकास का कोई लेना-देना नहीं है। आम प्रक्रिया में चल रहे विकास कार्यों में इससे बाधा नहीं आती, पर चुनाव घोषित होने के तुरंत बाद कोई मुख्यमंत्री 50 हजार करोड़ का कोई काम घोषित कर दे, जिससे चुनाव में उसे फायदा मिलता हो, तो वह गलत है।
जो एक साथ चुनाव की बात करते हैं, उन्हें संविधान की मर्यादाओं को समझना चाहिए जिसे हम 70 साल से सिर-माथे बैठाते आए हैं
तीसरी बात, इतने सारे राज्य हैं और सबकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं, जिनके लिए वहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल हैं, जो स्थानीय स्तर पर चीजों को ठीक करने की चिंता करते हैं। आजकल टीवी और सोशल मीडिया के सहारे झूठी-सच्ची चीजें उड़ाकर अपने पाले में हवा बनाने की होड़ दिखती है। हर दल चाहता है कि हर जगह के चुनाव परिणामों को कैसे भी अपने पाले में कर लिया जाए। इससे तो हमारे लोकतंत्र को ही नुकसान पहुंचेगा।
जो एक साथ चुनाव की बात करते हैं, उन्हें संविधान की मर्यादाओं को समझना चाहिए जिसे हम 70 साल से सिर-माथे बैठाते आए हैं। क्या कोई हमारे संविधान को पूरी तरह पलटकर रख सकता है? संविधान में आमूल-चूल बदलाव के लिए क्या सब एक साथ सहमत हो पाएंगे? आधी से ज्यादा धाराएं बदल सकेंगे? उसमें संसद और राज्य विधानसभाओं के संदर्भ में जो धाराएं हैं, उन्हें हटा सकेंगे? क्या हर राज्य का अलग संविधान बनाएंगे? समझ नहीं आता, ये बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हकीकत पर नजर क्यों नहीं डालते। भारत, जो कई विचारों, संस्कृतियों, संप्रदायों का मेल है, यहां विविध मत-पंथ हैं। हमने संविधान में गत 50-60 साल में 100 से ज्यादा बदलाव किए हैं, अगर इसके मूल भाव को बदला जाएगा तो सब खराब हो जाएगा। मेरे हिसाब से यह संभव नहीं है, बहुत मुश्किल है।
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