भारत में जी-20 का सफल आयोजन हो गया है और इस भव्य आयोजन को लेकर विश्व भी आश्चर्यचकित है। वह भारत के उस समृद्ध वैभव की कल्पना से अचंभित है जिसकी झलक इस जी-20 के आयोजन में दिखाई गयी, फिर चाहे वह कोणार्क मंदिर की पृष्ठभूमि हो या फिर भारतीय अन्न का स्वाद। एक अत्यंत सफल, समृद्ध भारत की झलक देखकर विश्व के नेता विस्मय से भरे हैं।
परन्तु फिर भी इन दो दिनों में ऐसे भी लोग रहे, जिन्हें भारत के इस वैभव से घृणा है और जिन्होंने भारत के प्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन करने में झिझक का अनुभव नहीं किया। बहुत ऐसे लोग रहे, जिन्होंने विदेशी मीडिया के सम्मुख भी वही राग अलापा कि भारत अब विभाजित है आदि आदि! ऐसी ही एक कार्यकर्ता हैं, कविता कृष्णन ! वामपंथी विचारों वाली कविता कृष्णन ने भारत में हुए जी-20 के सफल आयोजन के दौरान ही भारत को लेकर उस कुंठा का वमन किया, जो उनके हृदय में संभवतया इस देश के प्रति है। उन्होंनें फ्रांस 24 न्यूज़ चैनल से बात करते हुए भारत की स्वायत्तता पर तो प्रश्न उठाए ही, साथ ही देश की छवि को भी खराब करने का प्रयास किया।
उनकी बातों में प्रधानमंत्री मोदी को दो बार प्रधानमंत्री बनने से न रोक पाने की उनकी कुंठा भी सम्मिलित थी। उन्होंने युक्रेन युद्ध को आरंभिक बिंदु बताते हुए कहा कि भारत की विदेश नीति दरअसल रूस को लाभ पहुंचाने वाली है और इसकी जांच की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि “हम जानते हैं कि यूक्रेन एक कठिन बिंदु है। विदेश नीति, तथाकथित रणनीतिक स्वायत्तता, और घरेलू नीति जिसमें विचारधारा और यहां की राजनीतिक अर्थव्यवस्था शामिल है। मोदी सरकार ने जो विदेश नीति निर्णय लिया है, उससे वास्तव में दो कंपनियों को फायदा हुआ है- एक है मोदी की ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ कंपनी और दूसरी रूसी राज्य के स्वामित्व वाली कंपनी है। यह एक भ्रष्टाचार घोटाला है और इसकी जांच होनी चाहिए।’”
कविता कृष्णन दरअसल यह समझाने के प्रयास में हैं कि भारत को रूस से सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए और भारत को रूस से तेल नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह केवल यूक्रेन की ही बात नहीं है, बल्कि यह इस पूरे विश्व में लोकतंत्र का प्रश्न है।
इसके बाद उन्होंने वह बात कही, जिसे कहे बिना भारत के विपक्षी दलों का भोजन हजम नहीं होता है और वह है कथित धार्मिक सहिष्णुता। और यह बात वह वामपंथी लोग कहते हैं, जिनके शब्दकोष में धार्मिक सहिष्णुता जैसा कोई शब्द होता ही नहीं है। जो मार्क्स की इस पंक्ति की लकीर पीटते हैं कि धर्म अफीम है। परन्तु सारे विश्व को धोखा देने वाले यह लोग अपने गुरु मार्क्स के साथ भी यहाँ पर छल करते हैं। बिना यह समझे कि उस पंक्ति का अर्थ क्या है और किस लिहाज से कही गयी है, वह उस पंक्ति के सहारे भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने का प्रयास करते हैं। कविता कृष्णन जैसे लोग रिलिजन के चश्मे से धर्म को देखते हैं। क्या मार्क्स ने यह पंक्ति हिन्दू धर्म के परिद्रश्य में कही थी? यदि नहीं तो क्या कविता कृष्णन जैसे लोगों के पास यह नैतिक अधिकार है कि वह भारत पर बात भी कर सकें, जिसकी आत्मा में ही राम एवं कृष्ण बसे हुए हैं।
खैर! अब आते हैं उस पंक्ति पर जो उनकी सबसे बड़ी कुंठा का प्रदर्शन करती है। उन्होंने कहा कि “हिंदू वर्चस्ववादी आकांक्षाएं सभी भारतीयों की इच्छा नहीं है!” फिर उन्होंने भारत के कथित विपक्षी नेताओं द्वारा इस सरकार का मुकाबला किए जाए की बात दोहराई।
कविता कृष्णन शायद उसी एकता की बात कर रही हैं, जिसके विषय में अभी हाल ही में तमिलनाडु के मंत्री के पोंमुडी ने कहा है कि आईएनडीआईए गठबंधन का गठन सनातन धर्म के विरुद्ध लड़ने के लिए ही किया गया है। कविता कृष्णन आगे कहती हैं कि विश्व को इस आतंरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए। उन्होंने कहा कि “दुनिया को एक साथ आने की जरूरत है। हमारा आंतरिक लोकतंत्र खतरे में है और वही ताकतें जो भारत की तरह आंतरिक लोकतंत्र को कमजोर कर रही हैं, वही विश्व व्यवस्था को कमजोर करने पर जोर दे रही हैं जिसमें लोकतंत्र के कुछ मानकों को हल्के में लिया जाता है।”
कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार के हर विरोधी का स्वर जी-20 सम्मलेन के दौरान कब भारत विरोध में बदल गया, यह या तो उन्हें पता नहीं था या फिर उन्होंने जान बूझकर किया, क्योंकि जो स्वर यहाँ पर वामपंथी विचारों वाली कविता कृष्णन उठा रही थीं, वही बात विदेश में बैठकर विपक्षी दलों के युवराज कर रहे थे। भारत में आतंरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया है और इसके लिए विश्व को आगे आना चाहिए, जैसी बातें अब विपक्षी स्वरों में आम हो गयी हैं। परन्तु कविता कृष्णन जब अपनी पार्टी से अलग हुई थीं और पार्टी की नीतियों पर प्रश्न उठाए थे तो सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने ही उन्हें ट्रोल किया था। यह वही कविता कृष्णन हैं, जो भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए विदेशी सहयोग चाहती हैं, परन्तु अपनी खुद की पार्टी में लोकतंत्र नहीं ला पाई थीं और कुछ कथित भ्रमित विचारों के चलते उन्होंने पार्टी से अलग होना उचित समझा था।
पार्टी से अलग होने के बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि “पार्टी की नीति होती है कि हमने जो इस समय कुछ तय कर लिया है, हमें उसी पर बात करनी चाहिए। हमें उससे इतर नहीं बात करनी है, और अगर कोई बात भीतर भी चलाएं तो अभी क्यों चलानी है? यह कहा जाता है कि अभी हम मोदी के फासीवाद से लड़ रहे हैं, तो ऐसे में हमें स्टालिन की बात क्यों करनी है कि स्टालिन ने सत्तर साल पहले क्या किया था?”
बीबीसी के साथ हुए इस साक्षात्कार में उन्होंने बात की थी कि कैसे वामदल प्रश्नों से भागते हैं और कैसे वह मोदी के नाम पर तमाम प्रश्न दबाते हैं। परन्तु अपनी पार्टी में रहकर लोकतान्त्रिक तरीके से प्रश्न न उठा पाने वाली कविता कृष्णन को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी भारत की सरकार से इसलिए समस्या है क्योंकि वह उनके अलोकतांत्रिक राजनीतिक विचारों के अनुकूल नहीं है। यह वही कविता कृष्णन हैं, जो एक नहीं कई बार झूठी ख़बरें और एजेंडा वाली ख़बरें फैलाती हुई पकड़ी गयी थीं। जिसमें वह झूठी तस्वीर भी थी, जिसमें वह पुलवामा हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी की ऐसी हंसने वाली तस्वीर फैला रही थीं, जो दरअसल चार वर्ष पहले की थी। हालांकि लोगों ने तब भी कहा था कि वह तस्वीर झूठी है, परन्तु उन्होंने वह तस्वीर नहीं हटाई थी।
यह और भी बड़ा दुर्भाग्य है कि विदेशी मीडिया द्वारा ऐसे लोगों के विचार इतने प्रतिष्ठित समारोह के मध्य प्रचारित एवं प्रसारित किए गए, जो सरकार ही नहीं बल्कि भारत के समृद्ध अतीत के प्रति भी दुर्भावना रखे हुए हैं।
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