तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र और द्रमुक नेता उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म एवं संस्कृति पर अपमानजनक बयान देकर एक राजनीतिक बवंडर खड़ा कर दिया है। क्या है सनातन, उदयनिधि कितना जानते हैं सनातन के बारे में, क्या है तमिलनाडु की संस्कृति, सनातन के किन बिंदुओं पर विरोधी हमला करते हैं , वह कितना तर्कसम्मत है, इन सभी प्रश्नों पर पाञ्चजन्य की ओर से तृप्ति श्रीवास्तव की हिंदू संस्कृति के शोधकर्ता और हिंदू एनसाइक्लोपीडिया के लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रतिकुलपति प्रो. कपिल कपूर से बातचीत के अंश
सनातन धर्म के बारे में उदयनिधि स्टालिन ने जो बयान दिया है, उसे क्या समझा जाए?
उदयनिधि स्टालिन ने अपने बयान में कहा है कि सनातन संस्कृत का शब्द है। इसे हटाना चाहिए। इसमें मैं तो यही कहूंगा कि उदयनिधि शुद्ध संस्कृत का शब्द है और इसको हटा देना चाहिए। उदयनिधि पहले अपना नाम बदल लें, तब थोड़ी चेष्टा करें सनातन धर्म को बदलने की। धर्म का विरोध करना तो बड़ी बात है, पहले अपने पिता का ही विरोध करके देखें। जब कोई व्यक्ति इस तरह की बात करता है तो उस व्यक्ति को अपनी शक्ति की सीमा समझनी चाहिए। एक बात और, उनका ज्ञान बहुत सीमित है। ऐसा बयान कोई बहुत अज्ञानी व्यक्ति ही दे सकता है जिसको कुछ नहीं पता। सनातन का अर्थ ही है अति प्राचीन। सनातन के साथ दूसरा शब्द चलता है शाश्वत, हमेशा सच। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए एक प्रकार की प्राकृतिक प्रक्रिया है। यदि कोई व्यक्ति समाज से अच्छे रिश्ते बनाकर रहना चाहता है, और रहता है, वह सनातनधर्मी ही है।
उन्होंने सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों से की। यह भी कहा कि इसे खत्म कर देना चाहिए?
यह तो ऐसा है कि मैं कह दूं कि मैं कल जाकर कि एवरेस्ट की चोटी को खत्म कर दूंगा। वहां पर जाकर माथा मारूंगा तो मेरा ही माथा फटेगा, चोटी को तो कुछ नहीं होगा। इतना अहंकार, इतना अज्ञान और इतनी मूर्खता। मैं तो यह नहीं समझ पा रहा कि ऐसे व्यक्ति हमारी विधानसभाओं में कैसे पहुंच जाते हैं। शायद ये सब इसलिए होता है कि हमारे यहां परिवारवाद है। नेता का बेटा नेता। उन्होंने जिन बीमारियों का नाम लिया, उन्हें उनके साथ परिवारवाद की बीमारी को भी जोड़ना चाहिए था। उनको डेंगू या मलेरिया हुआ कि नहीं, यह मैं नहीं जानता परंतु उनके ऊपर परिवारवाद का बहुत अच्छी तरह संक्रमण है। वे इसके बारे में जानते तो कुछ और कहते। जिस तरह सनातन धर्म को विस्तृत बुराई मान रहे हैं, तब शायद ये बीमारियां छोटी लगतीं। सनातन तो धर्म के मायने में है ही नहीं, ये संस्कृति है। भारत की संस्कृति ज्ञान की संस्कृति है। संस्कृति बौद्धिक है। इसलिए शरीर को मार देने से, संस्कृति खत्म नहीं होती। चीन में 1986 में सांस्कृतिक क्रांति हुई, वहां के बहुत बड़े चिंतक कन्फ्यूशियस की सारी की सारी किताबें जला दी गयीं। पर इससे विचार जल जाते हैं? आज चीन ने दुनियाभर में 100 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में कन्फ्यूशियस के नाम पर ही चेयर बना रखी है।
सनातन संस्कृत का शब्द है। इसे हटाना चाहिए। इसमें मैं तो यही कहूंगा कि उदयनिधि शुद्ध संस्कृत का शब्द है और इसको हटा देना चाहिए। उदयनिधि पहले अपना नाम बदल लें, तब थोड़ी चेष्टा करें सनातन धर्म को बदलने की। धर्म का विरोध करना तो बड़ी बात है, पहले अपने पिता का ही विरोध करके देखें। जब कोई व्यक्ति इस तरह की बात करता है तो उस व्यक्ति को अपनी शक्ति की सीमा समझनी चाहिए।
– उदयनिधि स्टालिन
तमिलनाडु का सनातन धर्म से जुड़ाव क्या है, जड़ें क्या हैं?
दुनिया की प्राचीनतम जीवित संस्कृति हमारी भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति ज्ञान की संस्कृति है। भारतीय सभ्यता पहले ही दिन से ज्ञान केंद्रित है। भारतीय संस्कृति मूल्य आधारित है। हमारा बौद्धिक ग्रंथ भंडार इतना विशाल है कि सारी दुनिया के बौद्धिक ग्रंथ एक तरफ और भारत के संस्कृत, पालि, प्राकृति और पुरातन तमिल के ग्रंथ एक तरफ। सनातन की जड़ें पूरे देश में मिलेंगी और पूरे भक्ति आंदोलन का स्रोत तो तमिलनाडु ही है। सबसे पहला भक्त कवि बल्कि कवयित्री श्रीरंगम की अंदाल थीं जिन्होंने भगवान के लिए जो श्लोक लिखे, वे आज तक यानी 1400 साल से तमिलनाडु के सभी मंदिरों में पूजा के समय गाये जाते हैं। तमिलनाडु की भक्ति परंपरा इतनी सक्षम है कि वहीं से निकलकर कर्नाटक में वसवन्ना तक पहुंची, वहां से महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वर, फिर गुजरात में नरसिंह, फिर वहां से पंजाब में शाह हुसैन और गुरुनानक के पास पहुंची। वहां से रामानंद, जयदेव, उड़ीसा में सरलादास, फिर असम में शंकरदेव तक पहुंची। एक पूरी भक्ति की माला है जिसका उद्गम तमिलनाडु से हुआ। पहले तो पूरे देश में संस्कृत बोली जाती थी। समय के साथ भाषा बदलती है, उसका रूप बदलता जाता है। पर जिस भाषा में ग्रंथ लिखे जाते हैं, उन ग्रंथों में भाषा बंध जाती है। वेदों में संस्कृत वही है, जो उस वक्त बोली जाती थी, परंतु महात्मा बुद्ध के आने तक, जो बोलचाल की भाषा थी, वह बदल गयी। जब उन्होंने बात की तब लोकभाषा पालि में की। पालि – पल्ली यानी बाजार और गांव की भाषा। तब बौद्धिक ग्रंथ पालि में लिखे गये। उसके बाद जब जैन ऋषि आये तो पालि तो ग्रंथों में बंध गयी परंतु जो भाषा थी, वह बन गयी प्राकृत। भाषाएं बदलती रहीं परंतु जो ज्ञान का स्रोत है, वह सारे भारत की भाषाओं में एक ही है।
11वीं शताब्दी में संस्कृत को पढ़ना-पढ़ाना वर्जित कर दिया गया। जगह-जगह पुस्तकालयों को जला दिया गया। तब हमारे चिंतकों ने संस्कृत के ज्ञान ग्रंथों का लोक भाषाओं में अनुवाद किया। वाल्मीकि रामायण का सबसे पहला अनुवाद तमिलनाडु में हुआ। कंबन ने 9वीं शताब्दी में वाल्मीकि रामायण का तमिल में अनुवाद किया। मैं समझता हूं कि उदयनिधि जी को कुछ ज्ञान नहीं है। उनको यह सोचना चाहिए कि जो बोल रहे हैं, उसमें अपने गुरु के उपर आक्षेप लगा रहे हैं। तमिलनाडु में चोल साम्राज्य, जिसका प्रतीक सेंगोल अभी नयी संसद में लगाया गया है, से लेकर चालुक्य, चेरा, पांड्या जैसे सक्षम साम्राज्य बने जिन्होंने देश और धर्म की रक्षा की। उन्होंने ही न जाने कितने विशाल सनातन मंदिरों का निर्माण किया। तमिलनाडु ऐसे सनातन मंदिरों से भरा पड़ा है। ये मंदिर उत्कृष्ट कलाकृतियां हैं। वे केवल पूजा-पाठ की जगह नहीं हैं, बल्कि सामाजिक क्षेत्र भी हैं। मंदिरों में एक-एक मिलीमीटर पत्थर को ऐसे चिनते थे जैसे मानो मक्खन है। अब देखिए, धर्म कहां आता है? हर मंदिर में एक पत्थर को छोड़ देते थे, उस पर नक्काशी नहीं करते थे क्योंकि पूर्णता मात्र भगवान कर सकते हैं। वेदांत में अद्वैत को पूरे भारतवर्ष का दर्शन बना दिया।
इस वक्त हर भारतवासी अद्वैत है। किसी भी धर्म-मजहब के लोगों से पूछ लीजिए, सब यही कहेंगे कि हम वही हैं, जो वे हैं। हम तो उसी का भाग हैं। यही अद्वैत है। इस चीजों को पूरे देश की मन:स्थिति में आदिशंकराचार्य ने बिठाया। आदि शंकराचार्य केरल के थे जो उस वक्त चोल साम्राज्य था जो द्विड़ साम्राज्य था। अद्वैत की जो बौद्धिक परंपरा चलायी गयी, उसमें दो सबसे बड़े नाम तमिलनाडु के हैं। इमें रामानुजाचार्या श्रीपेरंबदूर के गांव में पैदा हुए और बड़े होने पर शाम के समय गांव वालों को तमिल भाषा में वेदांत सूत्र या ब्रह्म सूत्र समझाते थे। यानी ज्ञान का जो स्रोत संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाओं में निहित था, उसे लोकभाषा में पूरे भारत में फैला दिया और जनमानस का भाग बना दिया। यहीं चिंतकों ने किया और उसका उद्गम तमिलनाडु में हुआ। चोल राजा ने कहा कि आप वेदांत सूत्र का भाष्य तमिल में नहीं दे सकते, संस्कृत में देना होगा। तब रामानुजाचार्य ने कहा कि हम तो वही कर रहे हैं जो महात्मा बु़द्ध करते थे, लोकभाषा में बोलते थे। तब चोल राजा ने कहा कि तब आप मेरा राज्य छोड़ दीजिए। फिर आज के कर्नाटक में स्थित मांड्या के राजा ने उन्हें शरण दी। वहीं नरसिंह मंदिर के चबूतरे पर बैठकर रामानुजाचार्य ने बारह साल तक तमिल में वेदांत सूत्रों का श्रीभाष्य किया। उस समय पूरे देश में श्रीभाष्य की परंपरा चल पड़ी। अब उदयनिधि में न तो उदय है और न ही निधि है। उदय तो ज्ञान का होता है, अगर ये उनके पास होता तो वे ऐसी बात नहीं करते।
रामानुजाचार्य ने पूरे भारत की ज्ञान परंपरा को लोकभाषा में डालने की परंपरा स्थापित की। इसके बाद संत ज्ञानेश्वर ने 15 वर्ष की आयु में मराठी में भगवद् गीता का अनुवाद किया। फिर लोकभाषा में यह पूरी परंपरा चली। और अंत में जाकर गुरु गोविंद सिंह जी ने 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताव्दी के प्रारंभ में भगवत पुराण के दशम स्कंध, जो कृष्ण लीला पर है, पूरा कृष्णावतार का पंजाबी में अनुवाद किया। रामानुजाचार्य जी की तमिलनाडु से चलायी परंपरा पूरे देश तक फैल गयी। उदयनिधि को तो अपने प्रदेश पर इसके लिए बहुत गर्व होना चाहिए था। परंतु गर्व भी तो उसी चीज पर होता है, जब आप उसकी कीमत जानते हैं। अगर आप हीरे को पत्थर मानेंगे तो उसकी आपके लिए कीमत नहीं होगी। तो जो ज्ञान जरूरी है, वह उदयनिधि को है नहीं।
दुनिया की प्राचीनतम जीवित संस्कृति हमारी भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति ज्ञान की संस्कृति है। भारतीय सभ्यता पहले ही दिन से ज्ञान केंद्रित है। भारतीय संस्कृति मूल्य आधारित है। हमारा बौद्धिक ग्रंथ भंडार इतना विशाल है कि सारी दुनिया के बौद्धिक ग्रंथ एक तरफ और भारत के संस्कृत, पालि, प्राकृति और पुरातन तमिल के ग्रंथ एक तरफ। सनातन की जड़ें पूरे देश में मिलेंगी और पूरे भक्ति आंदोलन का स्रोत तो तमिलनाडु ही है।
सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए वर्ण व्यवस्था की आड़ ली जाती है कि इससे समाज में असमानता पैदा हुई। उदयनिधि जैसे लोग इसी को हथियार बनाते हैं। इस पर क्या कहेंगे?
समानता तो परिवार में भी नहीं होती। समानता के सिद्धांत पर फ्रांसीसी क्रांति में जो कहा गया कि सभी व्यक्ति समान पैदा होते है, इससे बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता। एक पिता के दो पुत्रों में समानता नहीं होती। दुनिया का कौन सा समाज है, जहां पर समानता है? वर्ण का अर्थ समाज के भाग से है। दुनिया के हर समाज में चार भाग हैं। एक भाग उन लोगों का होता है जो सोचते हैं। दूसरा भाग होता है जो रक्षा करते हैं। तीसरा भाग जो कि धन पैदा करते हैं और चौथा भाग जो इन तीनों को चलाने के लिए जो व्यवस्थाएं हैं, उसकी देखरेख करता है। इस हिसाब से आज के आईएएस, शिक्षक जो समाज के लिए काम कर पैसा लेते हैं, हम सब शूद्र हैं। हम सेवा करने वाले हैं। हम समाज की व्यस्वस्था की देखरेख करने वाले हैं। और समाज के चार भाग सभी जगह हैं, इस्लाम में भी है, ईसाइयत में भी है। जो ब्रह्म का ज्ञान रखता है, वह ब्राह्मण है। मनु खुद कहते हैं कि जिसे ब्रह्म ज्ञान नहीं, वह गधे से भी बदतर है और जिसको ज्ञान है, वह ब्राह्मण है। यह हमेशा से कर्म और ज्ञान पर आधारित था।
यह तो पृथ्वीराज चौहान के हारने के बाद 12वीं शताब्दी में जब हमारा दमन हुआ तो कोई भी समाज अपने-आप को बचाने के लिए कई जतन करता है। इसके बाद अंग्रेजों ने जान-बूझकर हमें जातियों में बांटा। जाति या कास्ट कोई भारतीय अवधारणा नहीं है, यह पुर्तगाली शब्द है। वर्ण जाति नहीं है, वर्ण समाज की एक व्यवस्था है, भाग है। और यह जन्मजात नहीं है। जन्म से इसका कोई मतलब नहीं है। ये गुण कर्म व्यवहार है। यह अभी भी है जैसे नदी का मूल कोई नहीं पूछता, इसी तरह साधु की जाति, विद्वान की जाति कोई नहीं पूछता, सभी सिर झुकाते हैं। अब हमारे यहां 4,600 जातियां हैं और इन सब में इतनी विविधता है। हमारे देश में 140 करोड़ की आबादी है फिर भी हमारे यहां एकात्मता है। तो देश को एक कैसे रखा गया? पहले इस समाज को वर्णों में बांटा गया, इससे पूरे देश के लोग चार भागों में बंट गये। मौर्य साम्राज्य की सभा की जो संरचना थी, वह वर्ण के आधार पर थी। चार ब्राह्मण, चार शूद्र, छह क्षत्रिय और 16 वणिज, यह अनुपात होता था।
सनातन धर्म के आरम्भ से ही इसके विरोधी भी रहे हैं?
बौद्ध धर्म और जैन धर्म को हम लोग नास्तिक कहते हैं। हमारे यहां आस्तिक-नास्तिक भगवान से नहीं होता। हमारे यहां आस्तिक वह है जो वेदों को प्रमाण मानता है। नास्तिक वो है, जो वेदों को प्रमाण नहीं मानता। महात्मा बुद्ध पर पूरा साहित्य पढ़ लीजिए, न तो वे ब्राह्मणों के विरुद्ध कुछ बोलते हैं, न सनातन के विरुद्ध कुछ बोलते हैं। उनसे जब पूछा गया कि आत्मा है, चुप। भगवान है, चुप। लोग कहने लगे कि ये तो मौन के ज्ञानी हैं। इनको तो पता ही नहीं है, चुप रहते हैं। किसी भी चीज का विरोध हमेशा बौद्धिक होना चाहिए। सनातन धर्म में जो ज्ञान का भंडार है, उसके बराबर ग्रंथ लिखकर दिखाइए, फिर विरोध करिए। गाली देने से क्या होता है। ये तो गुंडागर्दी है, गली में खड़े होकर पत्थर मारने वाली बात है। इसका कोई मूल्य नहीं है। जो सनातन है, वह सनातन है।
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