भारत को वैश्विक मंच पर भी व्यवहार करना है, वैश्विक स्तर पर मिल रही चुनौतियों का ध्यान रखना है, उनसे मुकाबले लायक एक रणनीतिक संस्कृति तैयार करनी है। पर बार-बार चुनावों का खिचड़ीवाद इस अपेक्षा को पूरा नहीं कर सकता है।
अपने संविधान, स्वभाव और प्रकृति से हम भारत के लोग लोकतांत्रिक हैं। हमारी विविधता के लिहाज से भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही हमारे ज्यादा अनुरूप है। अपने संविधान से हम भारत के लोग संप्रभु भी हैं। क्या वर्तमान में हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था का पालन कर रहे हैं? क्या हम अपनी संप्रभुता को सुदृढ़ कर रहे हैं? अगर संप्रभुता और लोकतंत्र को एक साथ रखकर पढ़ें, जैसा कि संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, तो कुछ सवाल पैदा होते हैं। हम लोकतांत्रिक हैं, हम लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। तो वास्तव में हम किसी चीज पर विश्वास करते हैं? लोग ‘लोकतंत्र’ का क्या अर्थ निकालते हैं? एक अस्पष्ट-सा घालमेल, जिसमें थोड़ा सुशासन भी हो, सुरक्षित किस्म के व्यक्तिगत अधिकार हों, राजनीति में भागीदारी की अत्यंत व्यापक और असीमित संभावनाएं हों, और साथ ही कुछ मात्रा में आर्थिक समृद्धि भी हो। हर कुछ हो। यह वास्तव में पकौड़े के घोल जैसा है।
पकौड़ों की ही तरह, हर व्यक्ति इसमें अपनी इच्छा से कुछ और चीजें भी जोड़ सकता है। यह सब अच्छा है, लेकिन एक बार इसे फिर गौर से देखें। ये सारी बातें, और जो बिन्दु आपने मन ही मन जोड़े, वे भी सब ‘अधिकारों’ की श्रेणी में आते हैं। क्या किसी के निर्बाध अधिकार हो सकते हैं? क्या ऐसे पूरे समाज की कल्पना की जा सकती है, जिसमें अधिकार तो हों, लेकिन कर्तव्यों की चर्चा न हो? कर्तव्यों के अभाव में निर्बाध अधिकार कब तक टिक सकते हैं? कम ही लोग विचार करते हैं कि लोकतंत्र का वास्तव में क्या अर्थ है। तो फिर अपने ऐसे लोकतंत्र से हम कौन से उद्देश्य पूरे करते हैं? कहा जाता है कि चूंकि लोकतंत्र में सरकार बदलने की सुविधा जनता के पास होती है, और इस दृष्टि से, सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र तानाशाही को पनपने से रोक लेता है। ठीक है, लेकिन दुनिया की कई तानाशाह हुकूमतें तो लोकतंत्र के नाम पर ही काम करती रही हैं। इस बिन्दु पर बात करने के पहले एक बात जरूर सोचिए। लोकतंत्र अपने आपमें साधन है या साध्य? या दोनों है? अधिकार है या कर्तव्य? या दोनों है?
केन्द्रीय और राज्य सरकारों के चयन की प्रक्रिया एक साथ चले तो केंद्र से दूर छिटकते जाने वाली प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है। खर्चों में बचत और शासन में सुविधा का पहलू तो अपने स्थान पर है ही।
हम संप्रभु हैं, लेकिन अपनी संप्रभुता को क्रियान्वित कैसे करते हैं? संप्रभुता को क्रियान्वित करने का एक ही तरीका है-स्वयं को सरकार देना। ऐसी सरकार देना जिसके पास सारे अधिकार हों। जब सरकार खुद संप्रभु न हो, तो देश कैसे संप्रभु हो सकता है? ऐसी सरकार जो अपनी जनता के लिए हो, जनता के प्रति जवाबदेह हो, जनता के हितों की चिंता कर सकती हो और जिसे जनता बदल भी सकती हो।
हम स्वयं को सरकार कैसे देते हैं? या दूसरे शब्दों में, हम अपनी संप्रभुता को कैसे क्रियान्वित करते हैं? सीधे शब्दों में- वोट डालकर। फिर से गौर कीजिए-सारे कारकों पर- ‘हम’, हमारी ‘संप्रभुता’, उसका ‘क्रियान्वयन’, देश को ‘सरकार देना’, ‘सरकार के पास सारे अधिकार होना’ और ‘वोट डालना’। घोल पूरा हो गया।
पकौड़े के घोल में भी असंतुलन की गुंजाइश नहीं होती। लेकिन राज्य विधानसभाएं बार-बार और मनमाने ढंग से भंग करके देश के लोकतंत्र को घोल को असंतुलित किया जा चुका है। देश के अलग-अलग राज्यों में सरकारों का लोकतांत्रिक गठन अलग अलग मौसम में करने से, न हम-‘हम’-बचे हैं, न ‘हमारी संप्रभुता’ हमारी सामूहिक संप्रभुता रह गई है, न हम उसका ‘क्रियान्वयन’ करते हैं, न स्वयं को सरकार देते हैं, न देश को। ‘सरकार के पास सारे अधिकार होना’ तमाम और पहलुओं पर निर्भर कर चुका है। और बचा ‘वोट’। उसे क्या माना जाए? अधिकार? कर्तव्य? पिकनिक? छुट्टी का दिन? या सेल्फी ईवेंट? या थोड़ा बहुत सभी कुछ? इसमें एक चीज और जोड़िए-प्रतियोगी राजनीति। राजनीति देश को सरकार और व्यवस्था देने की एक प्रक्रिया है। लोकतंत्र भी घूम-फिरकर यही है। अपने आपमें लक्ष्य तो दोनों में से कोई भी नहीं है। फिर इन दोनों का लक्ष्य क्या है?
ऐसे टूटी परंपरा
1951-52 में पहली बार देश में चुनाव हुए थे। उस समय विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ हुए थे। 1957, 1962 और 1967 तक यह क्रम चला। 1967 में कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। कुछ राज्यों में समय से पहले ये सरकारें गिरीं और वहां चुनाव हुए, जिससे एक साथ चुनावों का चक्र टूट गया। इसके बाद 1970 में पहली बार केंद्र सरकार ने समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया और 1971 में केवल लोकसभा के चुनाव हुए।
राष्ट्र और राष्ट्रीय हित ही इन दोनों का लक्ष्य हो सकते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे पहला राष्ट्रीय हित है। अब राष्ट्रीय सुरक्षा के अपने कई हित हैं, जिनमें देश में राजनीतिक स्थिरता और राष्ट्र की राजनीतिक-आर्थिक मजबूती और उसकी एकात्मता सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हित है। माने यह राजनीति का और लोकतंत्र का दायित्व है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूती दे। राष्ट्रीय सुरक्षा को उसके पूरे स्वरूप में देखें- भौतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, प्रतिस्पर्धी वैश्विक परिदृश्य में दीर्घकाल तक टिके रह सकने की क्षमता, शांति और प्रगति आदि की सुरक्षा, तो वास्तव में यह वही है, जिसे राष्ट्रीय हित कहा जाता है।
वैसे, हम राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली से अपेक्षा करते हैं कि वह हमारे लोकतंत्र को कम से कम इतना टेक दिए रहे, जिससे लोकतंत्र भरभरा कर न ढह सके। चुनावों के समय सिर्फ सुरक्षा बलों की तैनाती किसी युद्ध के स्तर से कम पर नहीं होती है। अब वापस लोकतंत्र पर लौटें। समय पर, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना ही लोकतंत्र का प्राथमिक प्रकटीकरण है। चुनाव राजनीतिक दल लड़ते हैं। राजनीतिक दल निर्वाचन क्षेत्रों को उम्मीदवार देते हैं, और कुछ उम्मीदवारों को निर्वाचन क्षेत्र देते हैं।
मजेदार बात यह है कि व्यावहारिक दृष्टि से देश का सबसे महत्वपूर्ण संस्थान राजनीतिक दल ही हैं। अन्य सारे संस्थान राजनीतिक दलों के बूते और उन्हीं की मर्जी से चलते हैं। लेकिन भारत के संविधान में, दलबदल विरोधी कानून के पारित होने के पहले तक, राजनीतिक दलों का कोई उल्लेख ही नहीं है। राजनीतिक दल जीतने के लिए चुनाव लड़ते हैं और उसके लिए वे पूरी ताकत लगा देते हैं। लड़ने को निर्दलीय लोग भी चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन वे न तो देश को सरकार देने का काम करते हैं, न देश को राजनीतिक रूप से पुष्ट करते हैं। उल्टे वे उसे कमजोर ही करते हैं, चाहे उनका नाम मधु कोड़ा हो या न हो।
क्यों? क्योंकि विविधता वाले समाजों में लोकतंत्र की प्रवृत्ति केन्द्र से दूर जाने की होती है। जो समाज विविधतापूर्ण नहीं होते, वहां का लोकतंत्र भी, कम से कम हमारे यहां के लोकतंत्र से बहुत भिन्न होता है। बहरहाल, लोकतंत्र की यह केंद्र से दूर ले जाने वाली प्रवृत्ति, इस देश के साथ लोकतंत्र के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी के रूप में सामने आती है। आप छोटे राजनीतिक दलों को किस रूप में देखते हैं? वे किस दृष्टि से अतिकाय निर्दलियों से अलग होते हैं? अब याद कीजिए प्रतियोगी राजनीति। किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति, जिसे चुनाव आचार संहिता और बाकी कुछ चीजों की मयादार्ओं के तहत काम करना होता है। इसके साथ जोड़िए लोकतंत्र की केंद्र से दूर ले जाने वाली प्रवृत्ति। दोनों चीजें मिलकर काम कैसे करती हैं?
वास्तव में चुनावी राजनीति की गलाकाट प्रतियोगिता में मतदाताओं को जल्द ही महसूस होने लगता है कि वे वोट डाल कर खुद को सरकार भले ही न दें, लेकिन खुद को तमाम तरह के तोहफे जरूर दे सकते हैं। शराब की बोतल, पांच सौ का नोट, धोती, बर्तन, टीवी, मिक्सर, मुफ्त का भोजन, मुफ्त का बिजली-पानी… कुछ भी। जो ज्यादा बड़ा तोहफा दे, वोट उसी का। ये तोहफे सिर्फ भौतिक नहीं होते। पहचान की राजनीति साम्प्रदायिकता को, जातियों की राजनीति को, भाषा और वर्ग की राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती है, और जल्द ही इसे लेकर राजनीतिक दलों के बीच होड़ लग जाती है। खासतौर पर छोटे राजनीतिक दलों के सामने इसे लेकर कोई नैतिक बंधन भी नहीं होता। इस तरह की राजनीति तेजी से पृथकतावाद की ओर आगे बढ़ने लगती है। इस पृथकतावाद पर देश के दुश्मनों की भी निगाह रहती है। और शायद यही कारण है कि सत्तारूढ़ दल के विरोधी ही नहीं, देश के विरोधी भी लोकतंत्र का फायदा उठाकर इसकी कमजोरियों का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी तो ये दोनों शक्तियां एकसार भी हो जाती हैं।
फिर से भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली पर लौटें। राष्ट्रीय और राज्य के चुनावी चक्रों के अपयुग्मन (डी-कपलिंग) ने भारत के संघवाद को ज्यादा से ज्यादा विकेंद्रीकृत करने में काफी योगदान दिया है। राजनीतिक दिशाओं के ग्राफ पेपर पर, 2014 के पहले तक भारत वापस सोलह महाजनपदों के युग में लौटता नजर आने लगा था। अलग-अलग चुनाव कराए जाने से राष्ट्रीय पार्टी प्रणाली में राज्य-आधारित और क्षेत्रीय पार्टियों का प्रवेश आसान होता गया। स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि दशकों से देश में सिर्फ खिचड़ी सरकारें बन रही थीं।
कल्पना कीजिए, जिस दल की पहुंच सिर्फ एक राज्य के एक कोने में हो, जिसका लोकसभा में प्रतिनिधित्व मात्र एक या दो सांसदों का हो, वह दल यह तय करता था कि देश का रक्षामंत्री, वित्त मंत्री कौन होगा। रेल मंत्रालय तो लगभग इसी काम के लिए आरक्षित था। जिसकी कोई राष्ट्रीय समझ तक न हो, वह राष्ट्रीय नीतियों के लिए जिम्मेदार था। इतना ही नहीं, तथाकथित प्रधानमंत्री का भारत सरकार के मंत्री बने इन स्थानीय नेताओं पर कोई नियंत्रण तक नहीं था। वे प्रधानमंत्री को नियंत्रित करते थे, न कि प्रधानमंत्री उनको नियंत्रित करते थे। कोई राष्ट्र इस तरह से आगे नहीं बढ़ सकता।
इस खिचड़ीवाद-पृथकतावाद-राज्यवाद के ज्यादा से ज्यादा हावी होते जाने से प्रतियोगी चुनावी राजनीति भी स्थानीय मुद्दों के लिए ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील होती गई है। शायद ही कोई दल ऐसा हो, जो जाति-धर्म-भाषा जैसे मसलों की अनदेखी करने की हिम्मत दिखाकर उम्मीदवार चुनता हो। लोकसभा के उम्मीदवार को भी उन स्थितियों के लिए जबावदेह माना जाने लगा है, जो नगरपालिकाओं के कार्यक्षेत्र में आती हैं। इसी जरूरत से ज्यादा प्रतियोगी हो चुकी चुनावी राजनीति ने जिम्मेदारी को सस्ते ढंग से ब्लेकमेल करना शुरू कर दिया है। अगर देश की केन्द्रीय और राज्य सरकारों के चयन की प्रक्रिया एक साथ चलती है, तो केंद्र से दूर छिटकते जाने वाली इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। खर्चों में बचत और शासन में सुविधा का पहलू तो अपने स्थान पर है ही, शायद सबसे महत्वपूर्ण तौर पर लोकतंत्र के प्रति मतदाताओं की निष्ठा भी दृढ़ की जा सकती है।
वास्तव में कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि अगर आप अलग-अलग स्तरों का चुनाव अलग-अलग समय पर कराते हैं, तो उनमें वोट डालने को लेकर मतदाताओं का उत्साह कम होता जाता है। वास्तव में कोई भी मतदाता मतदान करने से जिस लाभ की अपेक्षा करता है और उसके लिए मतदान करने की जो लागत होती है, उनमें सकारात्मक अंतर होना आवश्यक होता है। अलग-अलग चुनावों से यह प्रत्याशित लाभ और प्रोत्साहन भी कमजोर होता जाता है, जिस पर मतदाता चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने का निर्णय करते समय ध्यान देता है। इस तरह के लोकतंत्र के अतिरेक ने चुनावी मतदान में गिरावट पैदा की है। वास्तव में इन अलग-अलग चुनावों से लोकतंत्र स्वयं को समाप्त भी करता जा रहा है।
अलग-अलग स्तर का चुनाव अलग-अलग समय पर करवाने, सटीक शब्दों में, स्थानीय दलों को ज्यादा तरजीह देने के पक्ष में यह एक तर्क दिया जाता है कि वे ‘क्षेत्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं’। इस पर चर्चा जरूरी है। इन पार्टियों में से हर पार्टी खुद को राष्ट्रीय स्तर का बताती है। ऐसा दावा करना उनका अधिकार है। लेकिन वास्तव में इस समय शायद ऐसा एक भी क्षेत्रीय दल नहीं है, जो एक राज्य से बाहर कहीं कोई गंभीर हैसियत रखता हो। वास्तव में वे क्षेत्रीय नहीं, स्थानीय दल हैं।
दूसरे वे न तो किसी क्षेत्रीय आकांक्षा को व्यक्त करते हैं, न उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। वे पहचान की राजनीति पर टिके हुए हैं, जो या तो भाषा की है या जाति की या साम्प्रदायिक है। जिन केंद्र से दूर छिटकते जाने वाली प्रवृत्तियों की चर्चा की गई है, उनमें से अपनी स्थापना के समय सबसे बाहरी कक्षा में परिक्रमा करने वाले दलों-आल इंडिया मुस्लिम लीग, अकाली दल, द्रविड़ कषगम, नेशनल कांफ्रेंस (मूल नाम मुस्लिम कांफ्रेस) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-इन सभी का प्रसव ब्रिटिश हुकूमत ने प्रत्यक्ष ढंग से या अपनी ‘इंडियन पोलिटिकल सर्विस’ के जरिए ‘सरोगेट’ ढंग से कराया था।
हालांकि उसके बाद से उनमें काफी परिवर्तन आ चुका है, लेकिन तथाकथित ‘क्षेत्रीय आकांक्षाओं’की हकीकत यही है। ‘क्षेत्रीय आकांक्षाओं’ को पृथकता की ओर ले जाने वाली एक भी पार्टी अंग्रेजों के जाने के बाद नहीं बनी। यह भी मजेदार तथ्य है कि ये लगभग सारे ही दल पारिवारिक संपदा बने बैठे हैं। भारत राष्ट्र को वैश्विक मंच पर भी व्यवहार करना है। उसे वैश्विक स्तर पर मिल रही चुनौतियों का ध्यान रखना है, और उनसे मुकाबले लायक एक रणनीतिक संस्कृति तैयार करनी है। खिचड़ीवाद इस अपेक्षा को पूरा नहीं कर सकता है।
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