भगवान् श्रीकृष्ण का चरित्र अलौकिक है। उनके महान जीवन के अनेक पक्ष हैं। उनका अवतार ही मानव कल्याण के लिए हुआ था। आज की तरह उस समय भी पूरे आर्यावर्त में पापाचार बढ़ गया था, आततायियों, जिन्हें आज की भाषा में आतंकवादी कह सकते हैं, का भय छाया हुआ था। सज्जन शक्ति पर दुर्जन शक्ति हावी हो गई थी। धर्म की गलत व्याख्या की जा रही थी। अधर्म बढ़ता जा रहा था। आम व्यक्ति के अधिकारों को कुचला जा रहा था। इन सबको ठीक करने के लिए ही प्रभु ने अवतार लिया था। कहा भी गया है जब-जब धर्म की हानि होती है अधर्म बढ़ जाता है तब भगवान अवतार लेते हैं।
परमात्मा का अवतार दुष्टों का संहार करने के लिए ही होता है। श्रीकृष्ण अवतार लेकर भगवान् ने दुष्टों को मारने के लिए सबसे अधिक लीला दिखाई। श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व ही मथुरा कारागार के सभी प्रहरी सो गए और सभी ताले स्वयं खुल गए। वसुदेव जी उन्हें लेकर गोकुल को चले तो यमुना में बाढ़ आई हुई थी। श्रीकृष्ण के चरण चूम कर यमुना ने स्वयं ही मार्ग दे दिया। यशोदा के समीप श्रीकृष्ण को सुला कर तथा नवजात बालिका को लेकर वे सकुशल-वापस आ गए। इतना ही नहीं भगवान् कृपा से वसुदेव इस समस्त घटनाक्रम को भूल भी गए। बालिका को पाकर कंस ने क्रूरतापूर्वक उसे शिला पर पटकना चाहा तो वह आकाश में उड़ गई और संदेश भी दे गई कि कंस का संहार करने वाला बालक गोकुल में पहुँच चुका है।
गोकुल में भी उन्होंने लीला दिखाई। सबसे पहले उन्होंने वहाँ राक्षसी पूतना का वध किया, फिर शकटासुर को भी मारा। तृणावृत असुर श्रीकृष्ण को आकाश में उड़ा ले गया, उसने उन्हें अपनी पीठ पर लाद लिया था। फिर भगवान ने अपना भार बढ़ाना आरम्भ किया। शनैः-शनैः भार बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि दैत्य उसे सहन न कर सका। अन्त में वह आकाश से धरती पर आ गिरा। उसके उपरान्त गोकुल वासियों ने गोकुल ग्राम छोड़ दिया और वृंदावन आ गए। उन्होंने बलदाऊ के द्वारा वत्सासुर को भी मरवाया। बकासुर ने श्रीकृष्ण, बलराम तथा ग्वाल बालों को अपने पेट में समा लिया था। इसके बाद श्रीकृष्ण ने अपने शरीर में ऊर्जा भरनी शुरू कर दी। गर्मी इतनी अधिक बढ़ गई कि वह श्रीकृष्ण को उगलने के लिए विवश हो गया। जैसे ही श्रीकृष्ण पेट से चोंच में आए उन्होंने बगुले की चोंच के दोनों सिरे पकड़ कर बलपूर्वक चीर दिया।
अघासुर, जिसने अजगर बन करके श्रीकृष्ण और उनके सखाओं को अपने अन्दर समा लिया था। उसका भी वध उन्होंने किया। कहा जाता है कि यमुना तट पर एक घाट बिल्कुल बन्द ही हो गया था। वहाँ कालिया नाग के विष का भारी प्रभाव था। एक बार खेलते हुए गेंद उस कालीदह घाट में चली गई। श्रीकृष्ण कालीदह में कूद गए। श्रीकृष्ण कालिया नाग के फनों को नाथ दिया और उस पर खड़े बंशी बजाने लगे। अन्त में कालिया नाग यमुना को छोड़कर कहीं और चला गया।
एक बार श्रीकृष्ण और बलराम घुड़सवारी का खेल खेल रहे थे। दोनों की अलग-अलग टोली थी। प्रलंवासुर ने भी एक ग्वाले का रूप धारण किया और श्रीकृष्ण की टोली में सम्मिलित हो गया। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण जान गए और जानकर हार गए। बलराम की टोली जीत गई। ग्वाला बने प्रलंवासुर पर बलराम जी बैठ गए। उसने सोचा इसी को लेकर भाग जाता हूँ। अलग ले जाकर मार डालूँगा। श्रीकृष्ण ने संकेत दिया- बलदाऊ समझ गए और अपना भार बढ़ाने लगे। उसने अपना असली रूप धारण किया और आकाश में उड़ने लगा। तब बलराम ने उसे मार डाला।
श्रीकृष्ण ने शंखचूड़ यक्ष, अरिष्टासुर, हाथी कुवलयापीड़ जैसे दैत्यों का भी वध किया। कंस की सभा के दो विशालकाय पहलवान थे मुष्टिक और चाणूर। सभागार में प्रवेश करते ही दोनों ने उन्हें ललकारा। मुष्टिक बलराम से भिड़ गया और चाणूर श्रीकृष्ण से भिड़ा। दोनों भाइयों ने उनका भी बेड़ा पार किया।
कंस भयभीत तो हो ही चुका था। शेष पहलवान भी भाग गए थे। घबराहट में उसने अपनी तलवार खींच ली। कृष्ण तो शस्त्रहीन थे। उन्होंने कंस के केश पकड़कर धरती पर पटक दिया। कूदकर उसकी छाती पर चढ़ गए। उनके छाती पर चढ़ते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। भगवान् श्रीकृष्ण ने पापी कंस को भी मुक्त कर दिया।
अत्याचारी भौमासुर की समाप्ति भी उन्होंने की। वह कन्याओं को कैद में डाले रखता। उसका प्रण था कि एक लाख होने पर मैं सबसे एक साथ विवाह करूँगा। उसकी कैद में कन्याओं की संख्या सोलह हजार एक सौ हो चुकी थी। उसके अत्याचार शायद इससे भी अधिक हो चुके थे। इन्द्र ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि इस भौमासुर का कोई उपाय कीजिए। तब श्रीकृष्ण ने पहले उसकी सेना और फिर बाद में उसका अन्त कर दिया। कारागृह से सोलह हजार एक सौ कन्याओं को मुक्त किया तो उन सभी ने निवेदन किया- ‘‘प्रभो, यद्यपि भौमासुर ने हमसे विवाह नहीं किया। हम सभी पवित्र हैं, फिर भी समाज में हमें कौन अपनाएगा? किसी को हमारी पवित्रता पर भरोसा न होगा। हम कहाँ जाएं।’’ श्रीकृष्ण ने उन सभी को द्वारिका चलने का आग्रह किया तथा जो
अपने परिवार में जाना चाहे उसे जाने को कहा। उनमें एक भी वापिस अपने घर नहीं गई। द्वारिका ले जाकर भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे एक साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ हुईं।
कालयवन और जरासंध का अंत भी उन्होंने किया। भगवान् श्रीकृष्ण ने बल, बुद्धि, युक्ति और माया से कई अन्य दुष्टों का भी संहार किया। जन्माष्टमी के इस पावन अवसर पर हम सभी प्रार्थना करें कि कलियुग के दैत्यों का भी भगवान शीघ्र संहार करें।
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