विपक्षी एकता के मौसमी राग का जो आलाप सुनाई दे रहा है और जिसकी भंगिमाएं मंचों, सड़कों और सबसे अधिक मीडिया के अड्डों में सुनी और देखी जा रही हैं, वह यही है। लेकिन बात उतनी सरल नहीं है। जो दल एक-दूसरे से रंचमात्र भी वैचारिक साम्य नहीं रखते, वे एक साथ आने का स्वांग कर रहे हैं।
चुनाव आ रहे हैं। 2014 के बाद से यह ‘विपक्षी एकता’ के नाम पर ऐसी तमाम शक्तियों के एक साथ आने का पर्व होता है, जो सरकार विरोधी होने के नाम पर राष्ट्र और राष्ट्र की धारणा की भी विरोधी होती हैं। देश में विभिन्न प्रदेशों में सत्ता-सुख भोग रहे विपक्षी दलों की चाह है कि केंद्र से नरेंद्र मोदी सरकार को अपदस्थ कर अपनी खोई हुई हुकूमत की किसी भी तरह से पुनर्प्राप्ति हो जाए। इन दिनों विपक्षी एकता के मौसमी राग का जो आलाप सुनाई दे रहा है और जिसकी भंगिमाएं मंचों, सड़कों और सबसे अधिक मीडिया के अड्डों में सुनी और देखी जा रही हैं, वह यही है। लेकिन बात उतनी सरल नहीं है। जो दल एक-दूसरे से रंचमात्र भी वैचारिक साम्य नहीं रखते, वे एक साथ आने का स्वांग कर रहे हैं। वे साम्य रख भी नहीं सकते, क्योंकि इनमें से अधिकांश दलों पर विचार और वैचारिकता जैसे शब्द भी लागू नहीं होते हैं। इसके बावजूद, इन राजनीतिक दलों की ‘गठबंधनीय एकता’ हो रही है, तो उनके इतिहास व कारणों पर गहराई से विचार करना जरूरी हो जाता है।
पहले एक नजर इतिहास पर। आई.एन.डी.आई.अलायंस के नाम से इधर-उधर से जोड़ा गया राजनीतिक कुनबा भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में सत्ता से बाहर रहे विपक्षी दलों की एकता की कवायदों की लगभग अंतहीन गाथा का सिर्फ नया अध्याय है। अतीत में समय-समय पर स्वराज पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक, 1951 की किसान मजदूर प्रजा पार्टी, 1967 की संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार, यूनाइटेड फ्रंट या संयुक्त मोर्चा, जनता पार्टी, राष्ट्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा, ‘गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा’ तीसरा मोर्चा आदि नामों से इस तरह के प्रयोग होते रहे हैं।
कांग्रेस बनाम राजपरिवार
इस राजनीति का एक मर्म यह है कि एक दल है-कांग्रेस। कांग्रेस में नेहरू खानदान स्थायी आका की स्थिति में है, रहा है, होता है। जो इससे असंतुष्ट होता है, निकाल दिया जाता है या कांग्रेस में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में असफल छुटभैया या मध्यमस्तरीय गुर्गा विपक्षी नेता बन जाता है और शेष विपक्ष की सवारी करके सत्ता में आने की कोशिश करता है। ऐसे नेता समय-समय पर अपनी कांग्रेस बनाते रहे हैं। जैसे- यशवंतराव चव्हाण-ब्रह्मानंद रेड्डी की चव्हाण-रेड्डी कांग्रेस, कांग्रेस-ओ, कांग्रेस-पी, कांग्रेस-आर, इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक कांग्रेस, सी. राजगोपालचारी की स्वतंत्र पार्टी, उड़ीसा जन कांग्रेस, बांग्ला कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस, बिप्लोबी बांग्ला कांग्रेस, स्व. जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, कांग्रेस-ए (ए.के.एंटनी), कांग्रेस-अर्स, कांग्रेस-सोशलिस्ट, एक अन्य जगजीवन कांग्रेस, सरत चंद्र सिन्हा की सोशलिस्ट कांग्रेस, राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस, अखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस (तिवारी), एस. बंगारप्पा की कर्नाटक कांग्रेस पार्टी, तमिज्याग राजीव कांग्रेस, तमिल मानिला कांग्रेस (पी. चिदंबरम), अरुणाचल कांग्रेस, अरुणाचल कांग्रेस (मीठी), गोवा राजीव कांग्रेस, आल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (सेकुलर), मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस, तमिलनाडु मक्कल कांग्रेस, हिमाचल विकास कांग्रेस, मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी, भारतीय जन कांग्रेस, गोवा पीपुल्स कांग्रेस, कांग्रेस जननायक पिरवई (पी. चिदंबरम), तोण्डर कांग्रेस, पॉण्डिचेरी मक्कल कांग्रेस, इंडियन नेशनल कांग्रेस (शेख हसन), गुजरात जनता कांग्रेस, कांग्रेस (डोलो), पॉण्डिचेरी मुन्नेत्र कांग्रेस, डेमोक्रेटिक इंदिरा कांग्रेस (पी. करुणाकरन), हजकां, प्रगतिशील इंदिरा कांग्रेस, आल इंडिया एन.आर. कांग्रेस, छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस, मक्कल मुन्नेत्र कांग्रेस, पंजाब लोक कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, जनमोर्चा, राकांपा पार्टी आदि।
सभी अपनी मूल कांग्रेस पार्टी से स्थानीय नेताओं या क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं के कारण टूटे और हरेक ने स्वयं को ही ‘असली कांग्रेस’ यानी गांधी और नेहरू की पार्टी का असली वारिस घोषित किया। घर छोड़कर निकलने वाले या निकाले गए सभी कांग्रेसियों, असली या बनावटी, की कुल कहानी सीना तानकर बाहर जाने और घुटनों के बल पर रेंगते हुए वापस अपनी मूल पार्टी में लौटने की रही है। इस कारण कहा जा सकता है कि आज भारत में विपक्ष का जो स्वरूप दिखाई देता है, वह मन से सिर्फ कांग्रेसी है। हालांकि उसे कांग्रेस का राजपरिवार स्वीकार्य नहीं है।
घर छोड़कर निकलने वाले या निकाले गए सभी कांग्रेस्यिों, असली या बनावटी, की कुल कहानी सीना तानकर बाहर जाने और घुटनों के बल पर रेंगते हुए वापस अपनी मूल पार्टी में लौटने की रही है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार ने 1999 में उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर अलग ‘राष्ट्रवादी’ कांग्रेस पार्टी खड़ी की, जिसका औपचारिक अस्तित्व अभी बना हुआ है। कांग्रेस से ही निकली पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाई और आंध्र प्रदेश के मरहूम मुख्यमंत्री सेम्युयल राजशेखर रेड्डी के पुत्र व प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने वायएसआर कांग्रेस बनाई, जो वर्तमान में राजनीति में सक्रिय हैं।
घातक केंद्राभिगामी प्रवृत्ति
इनमें से एक भी पार्टी राष्ट्रीय विकल्प तो दूर, अपने प्रदेशों से आगे किसी अन्य प्रदेश में पांच विधानसभा सीटें पाने की भी औकात नहीं दिखा पाई। पिछले सात दशकों में उग आई और डूब चुकी इन उपरोक्त ‘असली’ कांग्रेस की तो बात रहने दें। कुछ अनुभवी राजनीतिक प्रेक्षक 1977 में जनता पार्टी की जीत को विपक्षी एकता के सफल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहेंगे, क्योंकि जनता पार्टी विभिन्न दलों का गठबंधन था, किन्तु इस तर्क में यह वास्तविकता छिपाई नहीं जा सकती कि इंदिरा गांधी-संजय गांधी की आतंकी हुकूमत को अपदस्थ कर केंद्र में पहली बार गैर-कांग्रेस शासन को संभव बनाने में भारतीय जनसंघ की निर्णायक भूमिका थी।
जनसंघ ने 100 से अधिक सांसद लोकसभा में भेजे थे, जिससे जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिलना संभव हो सका था। उस सरकार का पतन 1979 में मात्र ढाई वर्ष में हुआ और इंदिरा गांधी की वापसी हो सकी, जो भारतीय राजनीति ही नहीं, इतिहास में भी सेंट्रीफ्यूगल (केंद्रत्यागी) और सेंट्रिपेटल (केंद्राभिगामी या केंद्राभिसारी) शक्तियों के संघर्ष को दर्शाता है। केंद्रत्यागी व केंद्राभिगामी, दोनों प्रवृत्तियां अपने-अपने आयामों में विद्यमान हैं।
इनका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करके हम दोनों शक्तियों की प्रकृति को समझ सकते हैं। जैसे-हम देख सकते हैं कि प्रत्येक शक्ति या प्रवृत्ति राज्य को सशक्त करती है या विखंडित करने का प्रयास करती है। भारत में प्राचीन सम्राट व विजेता श्रीराम और श्रीकृष्ण के युग, मौर्य, गुप्त, चोल, चालुक्य, पुष्यभूति, प्रतिहार, मराठा आदि भारतव्यापी साम्राज्यों के निर्माण हमारी संस्कृति की केंद्राभिसारी शक्तियों के उदय और वर्चस्व के कालखंड रहे हैं, जबकि केंद्रत्यागी प्रवृत्तियों के चलते विदेशी आक्रमणों का दौर और राजनीतिक पराधीनता की अवधि भी लंबी रही है।
आधुनिक युग में भी किसी भी देश की राजनीति में एक या दो प्रतिस्पर्धी ताकतों का शामिल होना स्वाभाविक है और देश के एकीकरण में इसे किसी गंभीर बाधा के रूप में नहीं देखा जाता है। केंद्राभिसारी या केंद्र-विमुख, दोनों ताकतों के बीच आपसी संवाद सीमित हो, तो क्षेत्रवाद जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं, देश के लोगों के बीच असमानता पैदा हो सकती है। इसे अगर अति की सीमा तक खींचा जाता है, तो देश को टूटने से रोकना कठिन हो सकता है। भारत का अपना अनुभव 1947 में कुछ इसी प्रकार का था, यद्यपि विभाजन की घटना और इस्लामी अलगाववाद का अंतरराष्ट्रीय चरित्र है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश में केंद्रत्यागी शक्तियों की तुलना में केंद्राभिसारी शक्तियों का ही वर्चस्व होना चाहिए। अनेक देश उन ताकतों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जो उन्हें विभाजित करती हैं या एकजुट करती हैं।
जब किसी देश में केंद्राभिमुख शक्तियां ज्यादा सक्षम होती हैं, तो वह देश वैश्विक चुनौतियों व संघर्षों के साथ-साथ अपनी सीमाओं के भीतर संघर्षों के सामने भी मजबूती से खड़ा होने में सक्षम होता है। राष्ट्रवाद यानी अपने देश के प्रति गहरा प्रेम और निष्ठा, एक शक्तिशाली केंद्राभिमुख शक्ति है और राष्ट्रजनों में एकजुटता पैदा करती है। सांस्कृतिक क्षेत्र में केंद्राभिमुख शक्तियां सभी को एकजुट करने वाली सबसे शक्तिशाली शक्ति होती है। किसी राज्य में केंद्राभिमुख शक्तियों के उदाहरण हैं। नेपाल और भारत, जहां हिंदुत्व लोगों को एक साथ लाता है, हिंदुत्व के अनुयायी आपस में एकता की भावना अनुभव करते हैं। आधुनिक हिब्रू को यहूदी मातृभूमि में नए जीवन की तलाश कर रहे वैश्विक आप्रवासियों की एक लहर को एकजुट करने के लिए इस्राइल बनाया गया था।
राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव को देश के एक व्यापक हिस्से ने बड़े उत्साह के साथ स्वीकार किया है। तथापि, मतदाताओं के कुछ वर्गों व विपक्ष के अधिकांश दलों को यह हजम नहीं हो रहा है, न होगा। 2014 से सत्ता से बाहर रहने का उन्हें सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। वे अभी भी संसद में विपक्ष के लिए निर्धारित स्थान पर बैठने को तैयार नहीं हुए हैं।
नए राष्ट्र का उदय
इस दृष्टि से मई 2014 में भारत का एक नए राष्ट्र के रूप में उदय हुआ। एक सर्वथा नए राजनीतिक नेतृत्व के साथ, राष्ट्र ने अतीत के अपने जड़ और आत्मविश्वास शून्य दृष्टिकोण को छोड़ स्थिर, गतिशील और सक्रिय दृष्टिकोण को अपनाया, जो कई शताब्दियों बाद होता है। 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम भारत की केंद्राभिसारी शक्तियों की वर्चस्व प्राप्ति को परिलक्षित करने वाले परिणाम थे। संक्षेप में, तीन दशक बाद भारत को स्पष्ट बहुमत के साथ राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति और धर्म में निष्ठा रखने वाली एक राष्ट्रवादी पार्टी का स्थिर और कर्मठ शासन मिला। आज का भारत 2025 तक दुनिया की शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने के अपने उद्यम में आगे बढ़ रहा है और मात्र एक दशक पहले तक हल्के में लिए जाने वाले हाशिए पर पड़े किसी देश के बजाय विश्व की अग्रणी शक्तियों में गिना जाता है।
पिछले नौ वर्ष की यह यात्रा आसान नहीं रही है। परिवर्तन और उसकी स्वीकृति हमेशा अपनी अंतर्निहित समस्याओं के साथ आती है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव को देश के एक व्यापक हिस्से ने बड़े उत्साह के साथ स्वीकार किया है। तथापि, मतदाताओं के कुछ वर्गों व विपक्ष के अधिकांश दलों को यह हजम नहीं हो रहा है, न होगा। 2014 से सत्ता से बाहर रहने का उन्हें सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। वे अभी भी संसद में विपक्ष के लिए निर्धारित स्थान पर बैठने को तैयार नहीं हुए हैं।
इससे देश में राजनीतिक माहौल दूषित हुआ है, जो लगातार निम्न से निम्न स्तर पर जा रहा है। भारत की समृद्ध विरासत से प्रेरणा पाकर भारतीय मूल्यों, ज्ञान पर आधारित शासन व विकास का प्रारूप अपनाने का भाजपा नेतृत्व का आक्रामक संकल्प विपक्ष तथा उसके अन्य विरोधियों को और परेशान कर रहा है। तथाकथित विपक्ष की इस छटपटाहट व पराजय-बोध का कारण समझना ज्यादा कठिन नहीं है। वे हजारों वर्ष पुरानी भारतीय विरासत, ज्ञान व संस्कृति को, जो मुख्य रूप से हिंदुओं व हिंदुत्व से जुड़ी हुई है, अपने राजनीतिक भाग्य के लिए खतरे के रूप में देखते हैं।
वे जानते हैं कि इससे वर्षों से विकृत पंथनिरपेक्षता और ‘अल्पसंख्यक’ वोट बैंक में किए गए उनके संदिग्ध राजनीतिक निवेश की मौत की घंटी बजने को है। उनके पुराने राजनीतिक निवेशों ने उन्हें स्थायी बदनामी की ओर धकेल दिया है। विपक्ष की दूसरी पीड़ा यह है कि अगर भारत में केंद्राभिमुख सरकार होती है, जनता उसका समर्थन करती है, तो वह सरकार मुख्यत: तीन दिशाओं में आगे बढ़ती है-
1. राष्ट्रीय सुरक्षा (आंतरिक-बाहरी) को सबल करना,
2. भारत को अपराधियों की चारागाह बनने से रोकना, जिनमें भ्रष्टाचार भी शामिल होता है और
3. भारत की जनता को आर्थिक तौर पर सबल बनाना, जिसमें आम जन और उपेक्षित जन सर्वोपरि होते हैं, जिससे सत्ता पर निर्भर होकर धनाढ्य बना वर्ग असुरक्षित महसूस करने लगता है।
परिवर्तन और उसकी स्वीकृति हमेशा अपनी अंतर्निहित समस्याओं के साथ आती है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव को देश के एक व्यापक हिस्से ने बड़े उत्साह के साथ स्वीकार किया है। तथापि, मतदाताओं के कुछ वर्गों व विपक्ष के अधिकांश दलों को यह हजम नहीं हो रहा है, न होगा। 2014 से सत्ता से बाहर रहने का उन्हें सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। वे अभी भी संसद में विपक्ष के लिए निर्धारित स्थान पर बैठने को तैयार नहीं हुए हैं।
हताश विपक्ष
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के नेतृत्व में भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति देखी है। सरकार ने आर्थिक सुधारों, बुनियादी ढांचे के विकास और विदेशी निवेश को आकर्षित करने पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसके परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। इसके अलावा, ‘मेक इन इंडिया’ पहल और विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयासों ने रोजगार सृजन और आत्मनिर्भरता बढ़ाने में योगदान दिया है। वैश्विक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी के मजबूत नेतृत्व ने भारत को अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में पहचान दिलाई है। देश ने नई साझेदारियां बनाई हैं, राजनयिक संबंध मजबूत किए हैं व वैश्विक चुनौतियों से निपटने में अधिक मुखर भूमिका निभाई है। भारत के लिए उनके दृष्टिकोण में देश को आत्मनिर्भर, लचीला और वैश्विक एजेंडा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाना शामिल है। इसके अलावा, इस सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता दी है, एक मजबूत रक्षा प्रणाली सुनिश्चित की है और भारत की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा की है। देश को बाहरी खतरों से बचाने के लिए सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण और सुरक्षा उपायों को मजबूत करने के प्रयास किए गए हैं।
विपक्ष की हताशा, खासकर कांग्रेस पार्टी की हताशा इस स्तर पर है कि उनके नेता भाजपा को हराने में मदद के लिए विदेशी देशों से भीख मांगने तथा भारत की संप्रभुता से समझौता करने से भी नहीं कतराते। विपक्षी खेमे में विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव दुखती रग की तरह सामने आता है। राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस पार्टी अंधविश्वास से पीड़ित है, लेकिन बाकी विपक्ष में उन्हें कोई स्वीकार नहीं कर रहा है, चाहे इस विषय पर जैसा भी अभिनय किया जाए। यह प्रश्न भी उठने लगा है कि विपक्ष के ये तथाकथित नेता भारत के पक्ष में हैं या भारत के खिलाफ? ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, जगनमोहन व अन्य की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं बहुत हैं, लेकिन उनके राज्य की सीमाओं से परे यह किसी ठोस राजनीतिक आधार पर नहीं, बल्कि उनकी इच्छाधारी सोच पर अधिक आधारित हैं।
न ममता पश्चिम बंगाल के बाहर एक भी सीट पा सकती हैं, न किसी के लिए मददगार हो सकती हैं। यही स्थिति स्टालिन, नीतीश, लालू व अखिलेश की है। इनमें से अधिकांश अपने ही प्रदेशों में अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अपने पालित-पोषित बंधक मीडिया द्वारा ‘मराठा स्ट्रांगमैन’, ‘चाणक्य’ आदि उपाधियों से नवाजे गए शरद पवार अपने राजनीतिक जीवन के चरम पर भी महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से 9 से अधिक कभी प्राप्त नहीं कर सके और आज अपनी पार्टी को पिघलकर बहते हुए देख रहे हैं। कारण स्पष्ट है, पूरा विपक्ष ऐसे छुटभैयों के सहारे प्रधानमंत्री मोदी को घेरने का सपना पाल रहा है, जो नगरपालिका स्तर के राजनीतिबाज हैं, अपने-अपने प्रदेशों में भी एकछत्र प्रभाव नहीं रखते।
प्रतीत हो रहा है कि विपक्ष लड़ाई से पहले ही हार गया है। उसके पास इसका भी उत्तर नहीं है कि राजनीतिक व राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला कैसे किया जाए। आखिर क्या कारण है कि विपक्षी दलों के अधिकांश प्रवक्ता टीवी पर राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर होने वाली बहसों में या तो बगलें झांकते हैं या अनर्गल और अर्थहीन प्रलाप करते हैं? समझ की कमी और प्रमुख मुद्दों पर सुविचारित पार्टी नीतियों का अभाव उनके चेहरे पर स्पष्ट रूप से लिखा देखा जा सकता है। देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के प्रति विपक्ष की अत्यधिक नफरत किसी भी सामान्य नागरिक की समझ से परे है। अभद्र शब्दों का प्रयोग, निम्नस्तरीय व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करना या उनकी साधारण, गैर-इलीट पृष्ठभूमि का उपहास करना विपक्ष की पसंदीदा आदत बन चुकी है। जब संबंधित व्यक्ति यह सब सहजता से झेल लेता है और पहले से अधिक जोश से मुद्दों को संबोधित करता है, तो विपक्ष का सारा उपहास काफूर हो जाता है और वह उल्टे मजाक का पात्र बन जाता है। विपक्ष बदनामी के उस दलदल में और गहराई तक डूबता जा रहा है, जो उसने पिछले नौ वर्ष में अपने लिए पैदा किया है।
भारत के सम्मुख महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चुनौती है-अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीतियों को समाप्त करना, जो दशकों से भारतीय राजनीति और शासन की विषैली पहचान थीं। बेईमान राजनेताओं और सामुदायिक नेताओं द्वारा स्वार्थी कारणों से समाज के बड़े हिस्से को जान-बूझकर विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा गया। बहुसंख्यक पहचान व स्वरों को जान-बूझकर दबाकर रखा गया।
ओछी मानसिकता
प्रधानमंत्री और भाजपा से घृणा करने, उन्हें नीचा दिखाने की विपक्ष की मजबूरी इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि अब वह स्पष्टत: राष्ट्र विरोधी और कई बार हिंदू विरोधी मानसिकता व हरकतों में बदल चुकी है। अगर सरकार का विरोध करने के लिए भारत को नीचा दिखाना और भारत की संभावनाओं पर संदेह जताना हो, तो विपक्ष उसके लिए भी उपलब्ध बना रहता है। यदि प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा राजनयिक सम्मान व सत्कार प्रदान किया जाता है, तो विपक्ष इस बदली हुई सुखद वास्तविकता पर प्रसन्न होने के बजाय, दुनिया भर में भारत, भाजपा और हिंदुओं की निंदा करने वालों के साथ हाथ मिला लेता है।
यदि दुनिया महामारी, यूक्रेन युद्ध के बावजूद मजबूत भारतीय अर्थव्यवस्था को एकमात्र उज्ज्वल दीपस्तंभ के रूप में स्वीकार करती है, अनेक देश कोविड-19 में प्रधानमंत्री मोदी और भारत का अपने रक्षक के रूप में अभिवादन करते हैं, तो विपक्ष यह साबित करने के लिए पूरे नौ गज की दूरी तय करता है कि नकारात्मकता और अपमान वास्तव में करीबी सहोदर हैं। विपक्ष सिर्फ सरकार की मंशा पर ही नहीं, उन कठोर तथ्यों और आंकड़ों पर भी संदेह करता है, जो उसके प्रचार से मेल नहीं खाते हैं। विपक्ष संसद में कोई योगदान नहीं देता है। विपक्षी सांसद अक्सर या तो बाहर चले जाते हैं या तुच्छ विषयों पर हो-हल्ला कर संसद और राष्ट्र का समय नष्ट करते हैं। उनका उद्देश्य एक तरफ अपने स्वार्थी एजेंडा को आगे बढ़ाना है तो दूसरी तरफ सरकार व देश को शर्मिंदा करना।
भारत के सम्मुख महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चुनौती है-अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीतियों को समाप्त करना, जो दशकों से भारतीय राजनीति और शासन की विषैली पहचान थीं। बेईमान राजनेताओं और सामुदायिक नेताओं द्वारा स्वार्थी कारणों से समाज के बड़े हिस्से को जान-बूझकर विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा गया। बहुसंख्यक पहचान व स्वरों को जान-बूझकर दबाकर रखा गया।
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