फ्रांस में बढ़ रहे मुस्लिम प्रभाव के बीच सरकार ने स्कूलों में अबाया पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। 4 सितम्बर को जैसे ही स्कूल खुलेंगे यह प्रतिबन्ध लागू हो जाएगा। इस कदम को लगातार चली बहस के बाद उठाया गया है। फ्रांस में इस बात को लेकर कड़े नियम हैं कि सरकारी संस्थानों एवं स्कूलों में किसी भी प्रकार से धार्मिक पहचान प्रकट हो। इतना ही नहीं फ्रांस में पहले ही बुर्के प्रतिबन्ध लगा हुआ है।
फ्रांस में बुर्किनी को लेकर भी विवाद हुआ था और अभी तक संभवतया उसे पहनने की अनुमति नहीं है! फिर भी वह सार्वजनिक क्षेत्र का विषय था और मूलभूत धार्मिक स्वतंत्रता की बात की जा सकती थी, परन्तु स्कूल की बात अलग होती है जैसा कि फ्रांस के शिक्षा मंत्री ने कहा है कि “धर्मनिरपेक्षता का अर्थ स्कूल के जरिये खुद को मानवीय बनाने की आजादी है और स्कूलों को एक धर्मनिरपेक्ष जगह होना चाहिए और अबाया एक धार्मिक पहचान है जो इस धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े करता है. आप जब किसी कक्षा में जाएं तो छात्रों को देखकर उनके धर्म की पहचान नहीं होनी चाहिए।“
फ्रांस में स्कूल और सरकारी संस्थानों में धार्मिक पहचान उजागर किए जाने को लेकर नियम एवं क़ानून पूरी तरह से स्पष्ट है, तो फिर ऐसे में अबाया को लेकर कोई स्पष्ट क़ानून न होने पर उसका प्रयोग अब तक किया जा रहा था। ऐसे में एक प्रश्न उभरता है कि क्या जो लोग अबाया को तब तक पहने हुए थे, या अपनी बेटियों को स्कूल में पहना रहे थे, क्या उन्हें इस निर्णय की जानकारी नहीं होगी कि किसी भी प्रकार से धार्मिक प्रतीकों को स्कूल में नहीं पहनना है या फिर वह अपनी मजहबी पहचान को हर कीमत पर बनाए रखना चाहते हैं?
क्या उन्हें स्कूल के स्तर पर भी अपनी मजहबी पहचान को अलग दिखाना है? जैसा भारत में भी बार-बार उभरकर आ रहा है कि स्कूलों में हिजाब पहनने की जिद्द और कहीं कहीं तो बुर्के को पहनने की भी जिद्द की जा रही है। यह भी समझ से बाहर की बात है कि जहां पर इस्लामी हुकूमत है, वहां पर महिलाएं अपने लिए मजहबी कट्टरता से लड़ कर बाहर आने का मार्ग खोज रही हैं तो भारत या फ्रांस जैसे देश जहां पर लोकतंत्र है, वहां पर स्कूलों तक में अलग मजहबी पहचान की जिद्द है।
जहां फ्रांस में अबाया को लेकर इस निर्णय का विरोध करने के लिए विपक्षी वामदल आ गए हैं कि यह मूलभूत धार्मिक पहचान पर प्रहार है, और फ्रांस के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के खिलाफ है, जो “सरकार के मुसलमानों को खारिज करने का लक्षण है।” परन्तु एक विस्तृत आवाज उस खारिज करने की प्रवृत्ति के लिए कभी भी नहीं उठती है, जो अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों में मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध लगातार चल रही है। महिलाओं को दोनों ही मुल्कों में सार्वजनिक स्थानों से लगातार व्यक्तिगत पसंद को लेकर खारिज किया जा रहा है, परन्तु वैश्विक पटल पर वह शोर नहीं सुनाई देता है, जैसा शोर फ्रांस में स्कूलों में अबाया पर प्रतिबन्ध को लेकर सुनाई देता रहता है।
तमाम ऐसे मामले हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएं पीड़ित हो रही हैं या फिर वह विमर्श से खारिज हो रही हैं, उन पर वह लोग तनिक भी शोर नहीं मचाते हैं, जो फ्रांस पर इस बात को लेकर चिंतित हो रहे हैं कि वह स्कूलों में अबाया पर प्रतिबन्ध लगा रहा है। पश्चिम में रहकर इस्लामी पहचान की वकालत करने वाली कट्टरपंथी महिलाएं इसे लेकर फ्रांस के मुस्लिमों से आह्वान कर रही हैं कि उन्हें अपने स्कूल खुद बनाने चाहिए।
पश्चिम में इस्लामी ग्रोथ को लेकर लोग चिंतित हैं। फातिमा बुशरा को यह चिंता है कि फ्रांस में मुस्लिम बच्चियां अबाया नहीं पहन पा रही हैं, परन्तु वह इस विषय को लेकर चिंतित नहीं हैं कि अफगानिस्तान में तो वह स्कूल ही नहीं जा पा रही हैं। उन्हें फ्रांस में मुस्लिमों द्वारा स्कूल बनवाने हैं, परन्तु अफगानिस्तान में स्कूल नहीं बनवाने है, जहां पर स्कूल जर्जर होकर गिरे जा रहे हैं।
काबुल फ्रंटलाइन नामक मीडिया एजेंसी ने भी लिखा है कि फ्रांस सरकार ने मुस्लिम लड़कियों के अबाया पहनने पर प्रतिबन्ध लगाया, परन्तु उन्होंने शायद ही अपने ही मुल्क में लड़कियों के स्कूल पर बात की हो! परन्तु सबसे हास्यास्पद तो ईरान की प्रोपोगैंडा वेबसाईट ने भी इसे इस्लामोफोबिया का नाम देते हुए लिखा कि फ्रांस ने स्कूल में वस्त्र पहनने की नीति लागू की।
यह हास्यास्पद है कि महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थान और विमर्श समाप्त करने वाले लोग फ्रांस की सरकार द्वारा स्कूल में मजहबी पहचान को स्पष्ट न करने के इस निर्णय को मजहब का विरोधी बता रहे हैं। वहीं भारत के लिब्रल्स एवं सेक्युलर लॉबी के लिए तो और भी कठिन समय है क्योंकि जब मैक्रोन फ्रांस के राष्ट्रपति बने थे तो भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग एकदम पागल हो गया था और यह तक अनुमान लगाने लगा था कि भारत के यंग और डायनामिक मेक्रोन कौन होंगे? उस वर्ग के लिए संकट और भी गहरा है क्योंकि उनके लिए कभी अपने प्रिय नेता का ऐसा रूप देखना किसी सदमे से कम नहीं है क्योंकि भारत में वह लोग स्कूलों में मजहबी पहचान बताए जाने वाली पोशाक पर प्रतिबन्ध को आजादी पर प्रतिबंध बताते हैं, जो मैक्रोन सरकार के निर्णय के एकदम विपरीत है।
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