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चित्तौड़ की रानी पद्मावती का जौहर कैसे कोई भूल सकता है

आज भी लोग रानी पद्मावती को सती देवी मानकर उनकी पूजा करते हैं

by WEB DESK
Aug 25, 2023, 02:58 pm IST
in मत अभिमत
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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रमेश शर्मा

अपने स्वत्व और स्वाभिमान रक्षा के लिए क्षत्राणियों की अगुवाई में स्त्री-बच्चों द्वारा स्वयं को अग्नि में समर्पित कर देने का इतिहास केवल भारत में मिलता है। इनमें सबसे अधिक शौर्य और मार्मिक प्रसंग है चित्तौड़ की रानी पद्मावती के जौहर का। इसका उल्लेख प्रत्येक इतिहासकार ने किया है। इस इतिहास प्रसिद्ध जौहर पर सीरियल भी बने और फिल्में भी बनीं। राजस्थान की लोकगाथाओं में सर्वाधिक उल्लेख इसी जौहर का है। जौहर के विवरण भारत की अधिकांश रियासतों के इतिहास में मिलता है। जौहर की स्थिति तब बनती थी जब पराजय और समर्पण के अतिरिक्त सारे मार्ग बंद हो जाते थे। जौहर के सर्वाधिक प्रसंग राजस्थान के हैं। वहां कोई भी ऐसी रियासत नहीं जहां जौहर न हुआ हो। चित्तौड़ में सबसे पहला और सबसे बड़ा जौहर रानी पद्मावती का ही माना जाता है।

रानी पद्मावती सिंहल द्वीप की राजकुमारी थीं। उनका मूल नाम पद्मिनी था जो विवाह के बाद पद्मावती हुआ। सिंहलद्वीप का नाम अब श्रीलंका है। उनके पिता राजा चन्द्रसेन सिंहलद्वीप के शासक थे। उन्होंने अपनी बेटी पद्मिनी के विवाह के लिये स्वयंवर का आयोजन किया। यह समाचार पूरे भारत में आया। चित्तौड़ के राजा रतन सिंह भी स्वयंवर में भाग लेने सिंहलद्वीप पहुंचे। वहां पद्मिनी से विवाह के इच्छुक राजाओं की बल बुद्धि और कौशल की परीक्षा के लिये वन में आखेट की एक स्पर्धा आयोजित की गई। जो राजा रतन सिंह ने जीती और राजकुमारी पद्मिनी से उनका विवाह हुआ। राजकुमारी पद्मिनी महारानी पद्मावती बनकर चितौड़ आ गईं। उनके रूप गुण और राजा रतनसिंह के कौशल की चर्चा दूर-दूर तक हुई।

यह दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी तक भी पहुंची। दिल्ली सल्तनत के दो हमले चित्तौड़ पर हो चुके थे पर सफलता नहीं मिली थी। बल्कि गुजरात जाती दिल्ली सल्तनत की फौज से अपने क्षेत्र से होकर निकलने के लिए कर भी वसूला था। किन्तु गागरौन की सहायता के लिये चित्तौड़ की सेना गई थी, जिससे शक्ति में कुछ गिरावट आई और दिल्ली ने तोपखाने की वृद्धि कर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी। स्थिति का आकलन करके दिल्ली की फौजों ने चित्तौड़ पर हमला बोला। लगभग एक माह तक घेरा पड़ा रहा। किन्तु सफलता नहीं मिली। अंततः अलाउद्दीन खिलजी ने एक कुटिल चाल चली। कुछ भेंट के साथ समझौता प्रस्ताव भेजा और आग्रह किया कि रानी पद्मावती का चेहरा एक बार देखकर लौट जाएगा। राजा ने प्रस्ताव मान लिया।

सुल्तान अपने कुछ विश्वस्त सहयोगियों के साथ भोजन पर आया। उसने आईने में रानी को देखा और चलने लगा। राजा शिष्टाचार के तहत किले के द्वार तक छोड़ने आए। सुल्तान अलाउद्दीन बहुत कुटिल था। वह किले में भीतर जाते समय द्वार पर कुछ सुरक्षा सैनिक छोड़ गया था। उसके इरादों की किसी को भनक तक न थी। जैसे ही राजा द्वार पर आए उनपर हमला हुआ और बंदी बना लिए गए। बंदी बनाकर सुल्तान अपने शिविर में ले आया और रानी को समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा। रानी ने सभासदों से परामर्श किया। गोरा और बादल जो रिश्ते में राजा भतीजे थे ने संघर्ष का बीड़ा उठाया। राजा को मुक्त कराने की योजना बनी। योजनानुसार सुल्तान को समाचार भेजा कि रानी अपनी सखी-सहेलियों और सेविकाओं के साथ समर्पण करने आना चाहतीं हैं।

रानी पद्मावती को प्राप्त करने को आतुर अलाउद्दीन ने सहमति दे दी। तैयारी की सूचना भी सुल्तान को मिली। और रानी की ओर से यह आग्रह भी किया गया कि वह अंतिम बार राजा से मिलना चाहतीं है अतैव राजा के बंदी शिविर से होकर सुल्तान के दरबार में हाजिर होंगी। यह सहमति भी मिल गई। चित्तौड़ में दो सौ डोले तैयार हुए। कहीं-कहीं डोलों की यह संख्या 800 भी लिखी है। कुछ में तो दिखावे के लिए महालाएं थीं पर अधिकांश में लड़ाके नौजवान थे जो अपने राजा को कैद से छुड़ाने का संकल्प लेकर जा रहे थे। अंततः शिविर के कैदखाने के समीप जैसे ही ये डोले पहुंचे सभी सैनिक डोले पालकी से बाहर आए। यह छापामार लड़ाई थी जो गोरा बादल के नेतृत्व में लड़ी गई। किसी को अपने प्राणों का मोह न था बस राजा को मुक्त कराने का संकल्प था। इन सभी का बलिदान हो गया पर राजा मुक्त होकर सुरक्षित किले में पहुंच गए। यह 22 अगस्त, 1303 का दिन था।

राजा मुक्त होकर किले में आ तो गये थे पर किले में राशन और सैन्य शक्ति दोनों का संकट था। सेना के अधिकांश प्रमुख सरदार राजा को मुक्त कराने की छापामार लड़ाई में बलिदान हो गये थे। इस घटना से बौखलाए अलाउद्दीन खिलजी का तोपखाना गरजने लगा। अंततः रानी द्वारा जौहर और राजा रतनसिंह द्वारा शाका करने का निर्णय हुआ। 25 अगस्त, 1303 से जौहर की तैयारी आरंभ हुई और रात को ज्वाला धधक उठी। पूरी रात किले के भीतर की सभी स्त्रियों ने अपने छोटे बच्चों को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर लिया। 26 अगस्त के सूर्योदय तक किले के भीतर सभी नारियां अपने छोटे बच्चों को लेकर अग्नि में समा गईं इनकी संख्या सोलह हजार बताई जाती है। 26 अगस्त को ही किले के द्वार खोल दिए गए, जितने सैनिक किले में थे, वे सब राजा रतनसिंह के नेतृत्व में केशरिया पगड़ी बांधकर निकल पड़े।

भीषण युद्ध हुआ पर यह युद्ध दिन के तीसरे तक ही चल पाया। राजा रतनसिंह का बलिदान हो गया। इस प्रकार 26 अगस्त को राजा ने अपने स्वत्व और स्वाभिमान रक्षा के लिए अंतिम श्वांस तक युद्ध किया। वहीं रानी पद्मावती ने सोलह हजार स्त्री और बच्चों के साथ स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी किले में घुसा उसे चारों ओर जलती अग्नि और राख के ढेर मिले। उसने किले में कत्लेआम का आदेश दिया। अलाउद्दीन खिलजी के इस अभियान का वर्णन अमीर खुसरो की रचना ‘खजाईन-उल-फुतूह’ (तारीखे अलाई) में मिलता है। इस विवरण के अनुसार खिलजी की फौज ने एक ही दिन में लगभग 30,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने बेटे खिज्र खां को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया और चित्तौड़ नाम ‘खिज्राबाद’ कर दिया था। रानी पद्मावती का जौहर स्थल आज भी चित्तौड़ में स्थित है। वहां लोग जाते हैं। श्रृद्धा से शीश झुकाते हैं तथा रानी को सती देवी मानकर अपनी इच्छापूर्ति की प्रार्थना करते हैं।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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