नई दिल्ली में संसद के ठीक सामने एक मस्जिद है। इस साल अप्रैल में केंद्र सरकार ने इसे वक्फ बोर्ड से बाहर कर अपने कब्जे में लेने की घोषणा की थी। अब सरकार ने इस मस्जिद के संचालकों से कहा है कि मस्जिद के कागज दिखाओ।
आज संसद के पास स्थित जामा मस्जिद का सर्वेक्षण होने वाला है। इसके लिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रलय से संबंद्ध भूमि एवं विकास विभाग ने मस्जिद की दीवार पर 18 अगस्त को एक नोटिस चिपकाया है। इसमें लिखा गया है-‘‘601, जामा मस्जिद, रेड क्रास रोड, संसद भवन के समीप, उच्च न्यायालय द्वारा इसी वर्ष 23 अप्रैल को दिए गए निर्देशानुसार इस मस्जिद का सर्वे 21 अगस्त को होगा।’’
इसमें पूरी संपत्ति का सर्वेक्षण करने के साथ ही इसके कब्जे वाले लोगों से इसकी वैधता सिद्ध करने से संबंधित कागजात, नक्शा आदि को तैयार रखने को कहा गया है। बता दें कि यह मस्जिद दिल्ली की उन 123 संपत्तियों में शामिल है, जिन्हें केद्र सरकार ने वक्फ बोर्ड से बाहर कर अपने अधीन लेने की घोषणा की है। हालांकि इसका मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहा है। बता दें कि वर्तमान में इन 123 संपत्तियों में से 61 का स्वामित्व शहरी विकास मंत्रलय के तहत भूमि और विकास कार्यालय के पास है, जबकि शेष दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास हैं। इनमें से अधिकतर संपत्तियां कनॉट प्लेस, मथुरा रोड, लोधी रोड, मान सिंह रोड, पंडारा रोड, अशोका रोड, जनपथ, संसद भवन, करोल बाग, सदर बाजार, दरियागंज और जंगपुरा के आसपास हैं। इनकी कीमत अरबों रु. है।
इनमें से कुछ सपत्तियां तो अति संवेदनशील स्थानों पर हैं। इनमें से अधिकतर संपत्तियां व्यावसायिक क्षेत्र में हैं। सच में देखा जाए तो ये सारी संपत्तियां सरकारी हैं, लेकिन इन संपत्तियों पर कुछ प्रभावशाली लोगों का कब्जा है और वे लोग इनसे जमकर पैसा बना रहे हैं। इसलिए केंद्र सरकार ने इन संपत्तियों को उनके कब्जे से बाहर करने का निर्णय लिया है।
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रलय से जुड़े उप भूमि और विकास अधिकारी (डी-एल-डी-ओ-) ने 8 फरवरी, 2023 को दिल्ली वक्फ बोर्ड को एक पत्र लिखकर उपरोक्त जानकारी दी थी। डी.एल.डी.ओ. ने पत्र में कहा है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.पी. गर्ग की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उसे गैर-अधिसूचित वक्फ संपत्तियों को लेकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की ओर से कोई आपत्ति नहीं मिली है।
उल्लेखनीय है कि इस समिति का गठन केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर किया था। इस समिति को यह विवाद सुलझाना था कि ये संपत्तियां किसकी हैं? वास्तव में यह बहुत ही पुराना विवाद रहा है। एक जानकारी के अनुसार इन सारी संपत्तियों को 1911-15 के बीच सरकार ने अपने अधीन ले लिया था। इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया अपनाई गई थी, लेकिन बाद में इन संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड ने दावा कर दिया।
यही नहीं, 1970 में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने इन संपत्तियों को एकतरफा वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया। दिल्ली वक्फ बोर्ड की इस हरकत का तत्कालीन भारत सरकार ने विरोध किया। यही नहीं, इसके विरुद्ध सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुकदमा भी दायर किया। न्यायालय में सरकार ने बताया कि ये संपत्तियां उसके द्वारा 1911-15 में ही अधिग्रहित की गई हैं। बाद में कुछ संपत्तियों को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को हस्तांतरित कर दिया गया था, लेकिन वे कभी भी दिल्ली वक्फ बोर्ड से संबंधित नहीं रही हैं।
कहा जाता है कि सरकार के इस रुख से उस समय के मुस्लिम नेता परेशान होने लगे और उन्होंने सरकार से कहा कि इससे मुस्लिम समाज में कांग्रेस के प्रति गुस्सा बढ़ रहा है। इससे वह सरकार जो डर गई, जो उच्च न्यायालय में इन संपत्तियों को ‘अपना’ बता रही थी। इसके बाद मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए 1974 में भारत सरकार ने इन संपत्तियों पर एक उच्चाधिकार समिति बना दी। इस समिति के अध्यक्ष दिल्ली वक्फ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष एस.एम.एच. बर्नी को बनाया गया। यहां मजेदार बात यह है कि जो दिल्ली वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों को पर दावा करता था, उसके अध्यक्ष को ही यह तय करने का अधिकार दिया गया कि ये संपत्तियां किसकी हैं। इस समिति ने वही किया, जिसकी उम्मीद थी। उसने अपनी रिपोर्ट में 123 संपत्तियों को वक्फ संपत्ति घोषित करने की सिफारिश की।
इसके बाद भारत सरकार ने बर्नी समिति की सिफारिश को मान भी लिया और ये सारी संपत्तियां दिल्ली वक्फ बोर्ड को पट्टे पर दे दीं। 27 मार्च, 1984 को भारत सरकार ने एक आदेश जे 20011/4/74-1-2 जारी किया। उसमें कहा गया कि ये सारी संपत्तियां सालाना एक रुपए प्रति एकड़ की दर से वक्फ बोर्ड को पट्टे पर दी जाती हैं। भारत सरकार के इस निर्णय का जबर्दस्त विरोध इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद ने किया। उसी वर्ष विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (1512) कर कहा कि भारत सरकार ने गलत ढंग से अरबों की संपत्ति दिल्ली वक्फ बोर्ड को दी है। याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी। यह मामला कई वर्ष तक उच्च न्यायालय में चला। न्यायालय ने बार-बार सरकार से पूछा कि उसने किस आधार पर वे संपत्तियां वक्फ बोर्ड को दी हैं? क्या इस पर कोई नीति बनाई गई है? लेकिन सरकार गोल-मोल जवाब देती रही और समय काटती रही। कई वर्ष तक ऐसे ही चलता रहा।
ऐसा कहा जाता है कि 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले कुछ मुसलमानों ने एक बार फिर से सरकार पर दबाव बनाया कि वह दिल्ली की 123 संपत्तियों से जुडे़ वाद को समाप्त करे और वे संपत्तियां दिल्ली वक्फ बोर्ड को दी जाए।
यही कारण है कि 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव की घोषणा होने के बाद सोनिया-मनमोहन सरकार ने 5 मार्च, 2014 (बुधवार) को एक राजपत्र (566) जारी कर 123 संपत्तियों को दिल्ली वक्फ बोर्ड को दे दिया।
चूंकि उस समय चुनाव की घोेषणा हो गई थी। इसलिए विहिप ने इस राजपत्र को गलत माना और उसका एक प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग से मिला और कहा कि सरकार ने 123 संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को देकर चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया है। इसके बाद चुनाव आयोग ने इसकी जांच की और उसने इसे चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए सरकारी के आदेश पर रोक लगा दी। इस तरह यह मामला उस समय रुक गया।
बाद में मई, 2014 में केंद्र सरकार बदल गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने। इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने एक बार फिर से इस मामले को सरकार के समक्ष उठाया। इसके बाद भारत सरकार ने गर्ग समिति का गठन किया। इस समिति ने कई बार दिल्ली वक्फ बोर्ड को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया, लेकिन वक्फ बोर्ड ने इस पर ध्यान नहीं दिया। कहा जा रहा है कि वक्फ बोर्ड ने जानबूझकर गर्ग समिति को अपना पक्ष नहीं बताया। और जब वक्फ बोर्ड ने इस मामले पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की, तब गर्ग समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। अब उसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने उन संपत्तियाें को अपने पास रखने का निर्णय लिया है।
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