वास्तव में विपक्षी दल आपातकाल के पहले से एक दूसरे के निकट आने लगे थे, और लगभग एक दर्जन विपक्षी दलों की एकता का फैसला जेलों में कैद रहते हुए ही हो चुका था।
जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल में थोड़ी ढील दी, और आपातकाल के पक्ष में जनमत संग्रह कराने के अंदाज में आम चुनावों की घोषणा की। मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए। चुनाव इसलिए आनन-फानन में कराए गए, ताकि विपक्ष को एकजुट होने का मौका न मिल सके। लेकिन वास्तव में विपक्षी दल आपातकाल के पहले से एक दूसरे के निकट आने लगे थे, और लगभग एक दर्जन विपक्षी दलों की एकता का फैसला जेलों में कैद रहते हुए ही हो चुका था।
जनता पार्टी बनी और आजादी के बाद पहली बार 1977 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव में हारी, इंदिरा गांधी भी हारीं और संजय गांधी भी। जनता पार्टी और उसके सहयोगियों ने लोकसभा की 542 सीटों में से 330 सीटें जीतीं, जनता पार्टी ने स्वयं 295 सीटें जीतीं। जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के प्रणेता थे, लेकिन जनता पार्टी ने किसी एक नेता को आगे रखकर चुनाव नहीं लड़ा था।
जनता पार्टी में धुर कांग्रेसी मोरारजी देसाई थे तो मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु दंडवते जैसे समाजवादी भी थे। जनसंघ से अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख थे तो 1967 में कांग्रेस से बगावत कर अलग हो चुके चौधरी चरणसिंह और आपातकाली के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत का झंडा उठाने वाले चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत भी। बाद में इसमें जगजीवन राम तथा हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी भी आ मिले थे, जो आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के साथ रहे थे।
पार्टी का एक धड़ा इंदिरा गांधी का था, दूसरे धड़े के प्रमुख नेता थे यशवंतराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवराज अर्स आदि। इसी बीच जनता पार्टी में मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोग एक साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते। इससे जनता पार्टी की अंतरकलह और तेज हो गई।
चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री पद के 3 दावेदार उभरे- मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरणसिंह। जनता पार्टी संसदीय दल ने नेता चुनने का अधिकार जेपी और आचार्य जेबी कृपलानी को सौंपा। दोनों बुजुर्ग नेताओं ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी के नाम पर मुहर लगाई। चरण सिंह गृहमंत्री बने और जगजीवन राम रक्षा मंत्री। 24 मार्च 1977 को मोरारजी मंत्रिमंडल ने शपथ ली। कुछ दिनों बाद आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए गठित शाह आयोग की सिफारिशों के आधार पर इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी हो गई। इस मुद्दे पर सरकार में अंतरविरोध पैदा हुए। कुछ और भी मसले थे।
आखिरकार चरण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। थोड़े दिनों बाद चरण सिंह ने दिल्ली के बोट क्लब पर एक विशाल किसान रैली की। रैली के बाद मान-मनौव्वल शुरू हुई। चरण सिंह दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल हुए। इस बार वे उपप्रधानमंत्री बने और साथ में वित्त मंत्रालय मिला। बाबू जगजीवन राम भी उपप्रधानमंत्री बनाए गए। इसी दौरान कांग्रेस का एक और विभाजन हुआ।
पार्टी का एक धड़ा इंदिरा गांधी का था, दूसरे धड़े के प्रमुख नेता थे यशवंतराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवराज अर्स आदि। इसी बीच जनता पार्टी में मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोग एक साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते। इससे जनता पार्टी की अंतरकलह और तेज हो गई।
स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण को इस्तीफा देना पड़ा और उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव, बिहार में कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा में चौधरी देवीलाल भी एक-एक कर मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए। इसके जवाब में और अपनी महत्वाकांक्षा में जुलाई 1979 में चरण सिंह ने बगावत कर दी। कांग्रेस के उकसावे पर उनके खेमे के करीब 90 सांसदों ने मोरारजी देसाई सरकार से समर्थन वापस लेकर अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया। चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन उन्होंने संसद का सामना करने के पहले ही इस्तीफा देकर लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी। 1980 में जनता पार्टी की करारी पराजय हुई।
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