जम्मू—कश्मीर में शेख से दोस्ती और वहां भारत विरोधी तत्वों को पनपने की शह देने से लेकर मुस्लिम तुष्टीकरण की हद तक जाने वाले पं. नेहरू मंत्रिमंडल के अपने साथियों से मशविरे तक की परवाह नहीं करते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, नेहरू मंत्रिमंडल में हर तरह की विचारधारा के लोग तो शामिल थे, लेकिन नीतियों और सरकार के फैसलों पर समाजवाद की प्रतिच्छाया में साम्यवाद की स्पष्ट झलक मिलती थी। जम्मू—कश्मीर में शेख से दोस्ती और वहां भारत विरोधी तत्वों को पनपने की शह देने से लेकर मुस्लिम तुष्टीकरण की हद तक जाने वाले पं. नेहरू मंत्रिमंडल के अपने साथियों से मशविरे तक की परवाह नहीं करते थे। ऐसी परिस्थितियों में मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने त्यागपत्र देकर ऐसी राजनीति की राह पकड़ने का निश्चय किया जो सिर्फ भारत की चिति में गहन आस्था रखते हुए, बहुसंख्यक हिन्दुओं से जुड़े विषयों और देश की अखंडता से कोई समझौता न करने पर बल दे।
हिंदू राष्ट्र गैर-हिन्दू समुदायों को भी राष्ट्र जीवन में तब तक पूर्ण नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक, पांथिक और सांस्कृतिक समानता की गारंटी देता है, जब तक वे किसी राष्ट्र-विरोधी गतिविधि में शामिल न हों या राष्ट्र को उसके परम वैभव के स्थान से गिराकर सत्ता हथियाने की महत्वाकांक्षाएं न पालें।
उधर पूर्वी बंगाल में पाकिस्तान हिंदुओं पर अमानवीय अत्याचार कर रहा था। फलत: हिन्दू वहां से पलायन कर भारत में शरणार्थी के रूप में आ रहे थे। ऐसी परिस्थितियों से व्यथित डॉ. मुखर्जी को केन्द्रीय मंत्री की आरामदेह कुर्सी रास आ भी कैसे सकती थी। 19 अप्रैल 1950 को उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद ऐसे राजनीतिक दल की तलाश में लगे जो उनके उपरोक्त विचारों का झलकाता हो। कांग्रेस सांप्रदायिक तुष्टीकरण की ओर बढ़ रही थी, तो अन्य दल भी स्वार्थपरक राजनीति में लगे थे। ऐसे में डॉ. मुखर्जी ने अपने मन की पीड़ा अपने सुपरिचित रा.स्व.संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के सामने व्यक्त की और समाधान मांगा।
इसमें से भारतीय जनसंघ का विचार फलीभूत हुआ। रा.स्व.संघ और प्रस्तावित दल के संबंधों के बारे में मूलभूत बातों पर सहमति के बाद, दूसरा विचारणीय विषय उस आदर्शवाद के बारे में था, जिसके प्रति दल समर्पित रहने वाला था। जहां तक रा.स्व. संघ का संबंध है, इसका निश्चित सुविचारित आदर्श और कार्यपद्धति है।
डॉ. मुखर्जी संघ के हिंदू राष्ट्र के विचार से प्रभावित और पूर्ण सहमत थे। उन्होंने कहा कि हिंदू राष्ट्र को उसके पूर्ण गौरव के साथ पुन: प्रतिष्ठित करने का विचार लोकतांत्रिक राज्य की आधुनिक अवधारणा से बेमेल नहीं है। हिंदू राष्ट्र गैर-हिन्दू समुदायों को भी राष्ट्र जीवन में तब तक पूर्ण नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक, पांथिक और सांस्कृतिक समानता की गारंटी देता है, जब तक वे किसी राष्ट्र-विरोधी गतिविधि में शामिल न हों या राष्ट्र को उसके परम वैभव के स्थान से गिराकर सत्ता हथियाने की महत्वाकांक्षाएं न पालें।
भारतीय जनसंघ का विचार फलीभूत हुआ। रा.स्व.संघ और प्रस्तावित दल के संबंधों के बारे में मूलभूत बातों पर सहमति के बाद, दूसरा विचारणीय विषय उस आदर्शवाद के बारे में था, जिसके प्रति दल समर्पित रहने वाला था। जहां तक रा.स्व. संघ का संबंध है, इसका निश्चित सुविचारित आदर्श और कार्यपद्धति है।
इस प्रकार पूर्ण सहमति होने पर श्रीगुरुजी ने अपने कुछ दृढ़ निश्चयी और कसौटी पर परखे सहयोगियों को चुना जो नए राजनीतिक दल के गठन का गुरुतर दायित्व निस्वार्थ और अचल निष्ठा से निभा सकते थे। श्रीगुरुजी ने एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय और कुछ अन्य कार्यकतार्ओं से डॉ. मुखर्जी का इस हेतु सहयोग करने को कहा। इस प्रकार डॉ. मुखर्जी और पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 21 अक्तूबर 1951 को राजधानी दिल्ली में भारतीय जनसंघ नामक राष्ट्रीय राजनीति दल की नींव डाली और आगे चलकर श्री अटल बिहारी वाजपेयी, भैरोंसिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी सरीखे एक से एक निष्ठावान कार्यकतार्ओं की मालिका तैयार होती गई।
भारतीय जनसंघ ने 1952 में दीपक चुनाव चिन्ह और 94 उम्मीदवारों के साथ लोकसभा का अपना पहला चुनाव लड़ा और संसद में तीन राष्ट्रनिष्ठ सांसद भेजे। पहले चुनाव में जीतने वाले थे, कोलकाता दक्षिण पूर्व सीट से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मिदनापुर—झारग्राम सीट से दुर्गा चरण बनर्जी और चित्तौड़, राजस्थान से उमाशंकर त्रिवेदी। 1952 के बाद से यमुना में बहुत पानी बह चुका है। आज 2023 में केन्द्र में भारतीय जनसंघ के परिवर्तित स्वरूप भारतीय जनता पार्टी बहुमत के साथ अन्य दलों से गठबंधन करके 2014 से ही राजग की सरकार चला रही है।
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