सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में भीमा कोरेगांव मामले के दो आरोपियों वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा को जमानत देकर फिर देश की जनता के मन में कई तरह के प्रश्नों और चिंताओं को जन्म दे दिया है। गोंसाल्वेस और फरेरा ने बंबई हाईकोर्ट से उनकी याचिका खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत मांगी थी। इन शहरी नक्सलियों का तर्क यह था कि बंबई हाईकोर्ट ने सह-अभियुक्त सुधा भारद्वाज को जमानत दे दी थी, जबकि उन्हें नहीं दी थी। अदालत का यह फैसला जितना आश्चर्यजनक है, उतना ही निराशाजनक भी है। जमानत पाने वाले वे लोग हैं, जिनके खिलाफ एनआईए के पास ठोस सबूत हैं कि वे राजीव गांधी की शैली में किसी सार्वजनिक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करने की योजना बना रहे थे। वे लोग इस काम के लिए बंदूकें हासिल करने, आत्मघाती हमलावरों को प्रशिक्षित करने, नेटवर्क बनाने आदि के लिए 8 करोड़ रुपए जुटाने में व्यस्त थे। इसी कारण बंबई हाईकोर्ट ने उन्हें दो बार जमानत देने से इनकार किया था। चिंताजनक बात यह है कि जो शहरी नक्सली किसी सार्वजनिक सभा में प्रधानमंत्री की हत्या करने की साजिश कर रहे थे, उन्हें उस समय जमानत दी गई है, जब देश में अगले आम चुनाव निकट आ रहे हैं, और स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री सैकड़ों सार्वजनिक कार्यक्रमों/रैलियों को संबोधित करेंगे। आखिर जमानत देने वाले क्या संदेश देना चाह रहे हैं?
इसी प्रकार इन शहरी नक्सलियों के लिए जो जमानत की शर्तें रखी गई हैं, वे विश्वास कम और हास्य ज्यादा पैदा करती हैं। जैसे एक शर्त यह है कि ये दोनों अभियुक्त जहां भी वे जाएंगे, उन्हें अपना फोन साथ ले जाना होगा। क्या अदालत वास्तव में विश्वास करती है कि ये खतरनाक नक्सली आतंकवादी किसी दूसरे फोन का उपयोग नहीं कर सकते या फोन के अलावा किसी और तरीके से संचार नहीं कर सकते? इसी प्रकार इस अदालती निष्कर्ष को भी समझ सकना बहुत कठिन है कि ‘महज आतंकवादी साहित्य रखने’ से आतंकवादी गतिविधि में संलिप्तता साबित नहीं होती है। बौद्धिक पृष्ठभूमि वाले ऐसे अपराधी और किस तरह से आपराधिक गतिविधियों में भाग लेते हैं? क्या हम वास्तव में गंभीर बात कर रहे हैं? अगर हां, तो इस ढंग की अंश मात्र भी गंभीरता साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और स्वामी असीमानंद के प्रकरणों में क्यों नहीं दिखाई दी, जिन्होंने कई वर्ष जेल में बिताए और बिना किसी सबूत के भयानक यातनाएं झेलीं?
फिर यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है। जिन षड़्यंत्रकारियों ने पंजाब में मोदी को निशाना बनाने का प्रयास किया था और उन्हें एक फ्लाईओवर पर 45 मिनट तक रोके रखा था, उनके प्रकरण में क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने अपना स्वयं का जांच आयोग नियुक्त किया, जिससे एनआईए को उसका काम करने से रुकना पड़ा, इस आयोग ने केवल कुछ पुलिसकर्मियों को दोषी माना, जिनमें तत्कालीन डीजीपी एस. चट्टोपाध्याय भी थे और सजा के तौर पर उन्हें केवल पेंशन में कटौती का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार कोई तार्किक कारण आज तक सामने नहीं आया है कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों पर विचार किए बिना ही इन शहरी नक्सलियों को पहले ट्रांजिट रिमांड देने से इनकार क्यों कर दिया और फिर ‘विशिष्ट तकनीकी आधार’ पर उन्हें घर में नजरबंद करने का आदेश क्यों दिया। यह उतना ही रोचक विषय है, जैसे जमानत देने के साथ-साथ यह कहा जाना रोचक है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि आरोप गंभीर हैं, लेकिन सिर्फ इसी आधार से उन्हें जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता….।’
जाहिर है, आम जनता के मन में उठने वाले सवाल सीधे कॉलेजियम प्रणाली की ओर जा रहे हैं। जैसे बम्बई हाईकोर्ट की जस्टिस रहीं पुष्पा गनेडीवाला हाल ही में फिर चर्चा में आई हैं। जस्टिस गनेडीवाला का यश सिर्फ पॉक्सो के मामले में स्किन-टू-स्किन स्पर्श न होने पर अपराध न मानने का फैसला देने तक नहीं है, उनको इसलिए भी जाना जाता है कि दो वर्ष पहले कॉलेजियम ने उन्हें स्थायी जज बनाने की सिफारिश की थी, भले ही यह सिफारिश बाद में वापस लेनी पड़ी हो। लेकिन यह तो साफ हो ही गया कि कॉलेजियम की सिफारिश दोषहीनता या त्रुटिहीनता की ओर नहीं, बल्कि कई मामलों में उससे विपरीत दिशा की ओर संकेत करती है।
@hiteshshankar
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