सर्व सेवा संघ और गांधी विद्या संस्थान के संबंध में जो खबरें आ रही हैं, उनमें अधिकांश झूठ हैं। पूरा विवाद वाराणसी के राजघाट में रेलवे की 8.07 एकड़ जमीन और भवन को लेकर है। सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने रेलवे के भवन और जमीन पर कब्जा कर मकान और 4 संग्रहालय बना लिए थे।
इन दिनों सोशल मीडिया और दूसरे समाचार माध्यमों में सर्व सेवा संघ और गांधी विद्या संस्थान के संबंध में जो खबरें आ रही हैं, उनमें अधिकांश झूठ हैं। पूरा विवाद वाराणसी के राजघाट में रेलवे की 8.07 एकड़ जमीन और भवन को लेकर है। सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने रेलवे के भवन और जमीन पर कब्जा कर मकान और 4 संग्रहालय बना लिए थे।
इस परिसर में अवैध बने आवासों में लगभग 50 परिवार रहते थे। उत्तर रेलवे ने 22 जुलाई को भवन और परिसर खाली करा लिया। अतिक्रमणकारियों ने रेलवे की संपत्ति पर सर्व सेवा संघ का मालिकाना हक बताते हुए जिला अदालत में दावा किया था। लेकिन अदालत ने रेलवे के पक्ष में निर्णय दिया। इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक में चुनौती दी गई। लेकिन अतिक्रमणकारियों को निराशा ही हाथ लगी।
सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि अतिक्रमणकारी जिस जमीन को सर्व सेवा संघ की बता रहे हैं, वह रेलवे की है। काशी रेलवे स्टेशन का कायाकल्प किया जाना है, जिसमें इस जमीन का उपयोग होगा। इसके बाद जब रेलवे के पदाधिकारी और पुलिस बल परिसर खाली कराने पहुंचा तो अतिक्रमणकारी सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गए।
सर्व सेवा संघ और गांधी विद्या संस्थान में उत्तर प्रदेश सरकार और उत्तर रेलवे के हस्तक्षेप के सच को जानने के लिए इसके विधिक और राजनीतिक घटनाक्रम को समझना होगा।
जेपी के निधन के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादियों, उनके सगे-संबंधियों ने संस्था को अपने कब्जे में ले लिया और कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट उसमें शोध अध्यापक बन गए। इनका मुख्य काम राजनीतिक किस्म की प्रोपेगेंडा सामग्री लिखना था।
सर्व सेवा संघ की स्थापना
महात्मा गांधी की मृत्यु के तत्काल बाद उनके प्रति श्रद्धाभाव रखने वाले और उनके आंदोलन से जुड़े सभी लोगों की एक बैठक हुई थी, जिसमें जवाहरलाल नेहरू, यू.एन. ढेबर, आचार्य विनोबा भावे आदि भी थे। इसमें गांधीजी की स्मृति में रचनात्मक कार्य जारी रखने के लिए गांधी स्मारक निधि के संग्रह का निर्णय लिया गया। वह निधि शासन में विराजमान शीर्ष लोगों की प्रेरणा से समाज से संचित हुई और बड़ी रकम हो गई।
उससे गांधी स्मारक निधि एवं गांधी शांति प्रतिष्ठान नामक शोध केंद्र का संचालन प्रारंभ हुआ। बाद में निधि की देशभर में लगभग 12 प्रमुख शाखाएं हो गईं, जो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई सहित अनेक महत्वपूर्ण नगरों में हैं। शासन ने सब जगह उनके लिए भूमि एवं भवन सुलभ कराए, जो आज भी चल रहे हैं। इन्हीं लोगों ने निर्णय लिया कि रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अलग संगठन बने, जिसे सर्व सेवा संघ कहा गया। यह निर्णय हुआ कि संगठन का आध्यात्मिक एवं वैचारिक मार्गदर्शन आचार्य विनोबा भावे करेंगे।
धीरेंद्र मजूमदार सर्व सेवा संघ के पहले अध्यक्ष बने। ठाकुर दास बंग इसके अंतिम अध्यक्ष हुए। उनके न रहने के बाद से संस्था में विवाद शुरू हो गए हैं। सर्व सेवा संघ का मुख्यालय यानी प्रधान कार्यालय महादेव भाई भवन, सेवाग्राम वर्धा में है।
रेलवे की संपत्ति पर कब्जा
सर्व सेवा संघ का मुख्य काम लोेकसेवा है। यह सेवा के लिए ही बना संगठन है। जब नेहरू जी को ग्राम विकास की अपनी योजनाओं में बड़े किसानों की भूमि लेने में कुछ कठिनाइयां हुईं, तो उन्होंने विनोबा भावे से मिलकर बड़े किसानों को शांतिपूर्ण भूमिदान की प्रेरणा देने के लिए भू-दान आंदोलन प्रारंभ करने की योजना बनाई। भारत सरकार के ग्राम विकास के सहयोग से सभी प्रखंड विकास अधिकारियों से लेकर ग्रामीण विकास के शीर्ष अधिकारियों एवं मंत्रियों तक ने भू-दान आंदोलन में सहयोग किया। आंदोलन के क्रम में 1960 में जब विनोबा भावे काशी आए तो राजघाट में रेलवे के एक भवन में ठहरे। रेलवे अधिकारियों एवं जिला प्रशासन ने उनका भरपूर सहयोग किया। विनोबा जी के जाने के बाद कुछ कार्यकर्ता राजघाट काशी में ही ठहर गए और रेलवे के उस भवन का उपयोग करते रहे।
इस बीच, काशी रेलवे स्टेशन के आसपास बहुत सी अवैध झुग्गी-झोपड़ियां और एक मस्जिद भी बन गई। मनमाने तरीके से एक कब्रिस्तान भी बनाया जाने लगा। तब उसे उजाड़ कर सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने, जो रेलवे भवन में रह रहे थे, वहां एक कच्चा आफिस सा बना लिया, जो बाद में प्रकाशन का भवन बना। यह प्रकाशन भवन कब्रिस्तान वाली भूमि पर ही स्थित है। जैसा देशभर में होता है, रेलवे की भूमि पर बड़े स्तर पर अवैध भवन बन जाते हैं, जो वर्षों बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रकाशन भवन को भी रेलवे अधिकारियों ने चलने दिया। प्रकाशन का सारा कार्य काशी नगर में होता था, क्योंकि काशी साहित्य और प्रकाशन का बहुत बड़ा केंद्र है। इसीलिए सर्व सेवा संघ का केवल प्रकाशन कार्यालय काशी में घोषित किया गया।
सर्व सेवा संघ के न्यास के नियमों के अनुसार, केवल प्रबंधक न्यासी संस्थान की ओर से न्यायालय में जा सकते हैं। चूंकि प्रबंधक न्यासी के पद और न्यास से जुड़े चैरिटेबल संस्थाओं के मामले वर्धा न्यायालय में लंबित हैं, इसलिए सर्व सेवा संघ के विवाद से पूर्व तक प्रबंधक न्यासी रहे महादेव विद्रोही ने न्यायालय में कोई याचिका दाखिल नहीं की है। इसी कारण, जिला न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में रामधीरज गुट द्वारा दायर याचिकाएं खारिज हो रही हैं। यही इस प्रकरण का राजनीतिकपक्ष है।
समय बीता और रेलवे के लगभग 16 भवनों पर सर्व सेवा संघ के कार्यकर्ता रहने लगे। स्पष्ट है कि रेलवे अधिकारियों की इसमें सहमति थी। काशी स्टेशन के पास बनी रेलवे की टंकी से ही इन सब भवनों को जल की आपूर्ति भी होती थी। इनमें गांधी विद्या संस्थान के तृतीय श्रेणी कर्मचारी भी रहते थे। जब मैं गांधी विद्या संस्थान वाराणसी में शोध कार्य के लिए गया, तब तक (वर्ष 2000) यहां रेलवे के नलों से पानी आता था, यद्यपि प्रकाशन विभाग ने अपना एक बड़ा पम्प स्थापित कर लिया था और उससे भी पानी की आपूर्ति होती थी। प्रारंभ में इस उजाड़ पड़े क्षेत्र में सर्व सेवा संघ वालों ने कच्ची घानी तेल तथा महिला उद्योग के प्रशिक्षण आदि कार्य भी किए, परन्तु भूमि पर स्वामित्व असंभव मानकर 1964-65 के बाद वे सब काम समेट लिए गए। वे काम वर्धा ले जाए गए। यहां केवल प्रकाशन का कार्यालय बचा। प्रकाशन में कार्यरत प्रूफ रीडर एवं बाइंडर आदि रेलवे के भवनों में रहने लगे।
देश विरोधी गतिविधियों का अड्डा
ठाकुरदास बंग के अध्यक्ष नहीं रहने पर सर्व सेवा संघ में भीषण बिखराव आया और सर्वोदय आंदोलन तब तक नई पीढ़ी में अलोकप्रिय हो गया। अत: काशी में सर्व सेवा संघ के प्रकाशन के जो प्रूफ रीडर, बाइंडर आदि थे, वे अब तक सर्व सेवा संघ के नाम के महत्व से परिचित हो चुके थे। अत: उन्होंने स्वयं को सर्व सेवा संघ का पदाधिकारी भी घोषित कर लिया। इसके वास्तविक पदाधिकारी यदा-कदा सेवाग्राम से यहां साल में एक-दो बार आते थे। कुछ वर्षों तक यही स्थिति रही। आपातकाल में कई बार सर्वोदय के लोग तथा अन्य लोग भी रेलवे के इन भवनों में आकर रुके, जो अब सर्वोदय कार्यकर्ताओं के आवास थे।
अखिलेश यादव के कार्यकाल मेंगांधी विद्या संस्थान पर ताला जड़ दिया गया था। 7 वर्ष बाद जब प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार ने फिर से इसमें शोध कार्य शुरू किया, जो अतिक्रमणकारियों को पसंद नहीं आया।
इस बीच, सभी महत्वपूर्ण लोग वर्धा में रह रहे थे। अत: परिसर में भांति-भांति के स्वयंसेवी संगठन, विशेषकर ईसाई एवं कम्युनिस्ट संगठन तथा मदरसों से जुड़े कुछ संगठन भी फैल गए। यहां बहुत सी भारत विरोधी गतिविधियां होने लगीं। साथ ही अवैधानिक, असामाजिक एवं अनैतिक अनेक कार्य भी होने लगे। अनाचार का परिवेश बन गया। सर्व सेवा संघ के मुख्य लोग यहां से उदासीन हो गए। अत: स्थानीय राजनीतिक समूहों के सहयोग से यहां रामधीरज जैसे स्थानीय नेता सक्रिय हुए और एक समानान्तर सर्व सेवा संघ ही बना डाला।
इसी समूह ने 7 वर्ष से सरकारी ताले में बंद गांधी विद्या संस्थान परिसर के पुन: प्रारंभ होने पर कष्ट का अनुभव किया और हास्यास्पद किस्म के आंदोलन शुरू कर दिए। इस कारण रेलवे प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा तथा अपनी भूमि और भवनों को अपने नियंत्रण में रखते हुए इन लोगों को वहां से हटाना पड़ा। आज इसी बात का संचार माध्यमों में अनाप-शनाप प्रचार चल रहा है। उच्च स्तरीय राजनीतिक गतिविधियों का क, ख, ग भी नहीं जानने के कारण स्थानीय छुटभैये समूह कतिपय प्रभावशाली स्वयंसेवी और विदेशी सहायता से संचालित समूहों की सहायता से दुष्प्रचार को हवा दे रहे हैं, जिसका कोई विधिक आधार अस्तित्व में नहीं है। इसीलिए जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय तक सर्वत्र ये कथित आंदोलनकारी रंगरूट हारते चले गए। यही है इस विषय का सत्य।
सर्व सेवा संघ का प्रकरण कैसे जुड़ा
इसके लिए सर्वप्रथम विधिक घटनाक्रम को जानना आवश्यक है, जिसका मुख्य संबंध गांधी विद्या संस्थान से है। लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर जयप्रकाश नारायण कम्युनिस्ट बने। लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि सोवियत साम्राज्यवाद और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद केवल अनैतिक और आपराधिक संरचनाएं हैं। लिहाजा, समाजवाद को त्यागने की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा कि आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत को माने बिना व्यक्ति और समाज नैतिक हो ही नहीं सकता है। वह केवल नैतिकता का राजनीतिक प्रदर्शन करते हुए क्षुद्र स्वार्थ के लिए निरंतर छल करेगा।
यही जेपी थे, जिन्होंने मार्क्सवाद का विरोध करने पर 1956 में नरेंद्र देव के साथ मिलकर डॉ. राममनोहर लोहिया को सोशलिस्ट पार्टी से निकाल दिया था। जेपी ने देखा कि नेहरू के शासन में भारतीय विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र और मानविकी विद्याओं में कम्युनिस्ट मतवाद और यूरो-अमेरिकी मतवाद पढ़ाया जा रहा है, जो उन्हें अंधकार और अनैतिकता के विस्तार की दिशा लगी। अत: अपने साथ देशभर के सात दिग्गज अध्ययनशील लोगों को साथ लेकर विशुद्ध भारतीय दृष्टि से सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन और शोध के लिए 1962 में काशी में गांधी विद्या संस्थान की स्थापना की। ये सात लोग थे- वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शंकरराव देव (असम), उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. सम्पूर्णानंद, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवकृष्ण चौधरी, केंद्रीय मंत्री डॉ. अरुणाचलम (चेन्नई), शिक्षा शास्त्री ई. डब्ल्यू आर्यनायकम (सेवाग्राम), सामाजिक कार्यकर्ता अक्षय कुमार करण (लखनऊ) व स्वयं जयप्रकाश नारायण।
जेपी 12 वर्ष तक संस्था का मार्गदर्शन करते रहे और बड़ी संख्या में देश-दुनिया के मनीषियों-इवान इलिच, शुमाखर आदि को बुलाकर विमर्श का क्रम चलाते रहे। 1974 से वे संपूर्ण क्रांति आंदोलन में लग गए। 1979 में उनके निधन के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादियों, उनके सगे-संबंधियों ने संस्था को अपने कब्जे में ले लिया और कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट उसमें शोध अध्यापक बन गए। इनका मुख्य काम राजनीतिक किस्म की प्रोपेगेंडा सामग्री लिखना था।
ईसाई मिशनरियों तथा मदरसों आदि के सहयोग से यहां बच्चों के स्कूल और राजनीतिक गोष्ठियां आदि आयोजित होने लगीं। इन लोगों को सर्व सेवा संघ के विषय में कोई जानकारी ही नहीं थी। उनकी निगाह तो संस्थान की भूमि और भवन पर थी, जिसे हड़पने के लिए उन्होंने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के वहां आने का विरोध शुरू कर दिया। इस कारण शासन को इन असामाजिक तत्वों को भगाना पड़ा, ताकि गांधी विद्या संस्थान निर्विघ्न रूप में चल सके।
जेपी के समय ही तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकांत तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व जेपी के आत्मीय प्रो. विमल प्रसाद आदि को संस्थान के प्रबंध मंडल में शामिल किया गया था। इन लोगों ने काशी हिन्दू विश्वविद्याल की विदुषी प्रो. कुसुमलता केडिया को संस्थान में प्रोफेसर बनने का आमंत्रण दिया, जिसे उन्होंने सहज स्वीकार कर लिया। लेकिन तब तक संस्थान में गैर-अकादमिक परिवेश बन चुका था। ऐसे में प्रो. कुसुमलता जैसी गंभीर विदुषी उन्हें खटकती थीं। इसलिए उन लोगों ने प्रयास किया कि वह संस्थान छोड़ दें।
बहरहाल, धीरे-धीरे संस्थान में अकादमिक कार्य लगभग शून्य हो गए और स्थिति बिगड़ने लगी तो डॉ. कृष्णकांत और प्रो. विमल प्रसाद आदि ने संस्थान के प्रबंध मंडल से इस्तीफा दे दिया। तब अचानक सर्व सेवा संघ ने एक अवैध प्रबंध मंडल बनाया और 90 वर्षीय सर्वोदय नेता को संस्थान का निदेशक तथा एक निलंबित व्याख्याता मुनीजा खान को प्रबंध मंडल का सचिव बना दिया। हालांकि संस्थान के पंजीकृत बायलॉज में निदेशक ही प्रबंध मंडल का सचिव होता था। निबंधक, सोसायटी की जांच में यह प्रबंध मंडल फर्जी पाया गया।
2002 में संस्था के विघटन की न्यायिक कार्यवाही शुरू हुई, जो 2007 में पूरी हुई। इसके बाद न्यायालय ने शोध संस्थान को चलाने का दायित्व उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग को सौंपा। मायावती के शासनकाल में न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय की अध्यक्षता में संचालक मंडल बना, जिसे 2016 में अखिलेश यादव के कार्यकाल में भंग कर संस्थान में ताला लगा दिया गया। 7 वर्ष बाद राज्य की वर्तमान भाजपा सरकार ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सहयोग से गांधी विद्या संस्थान के शोध कार्यों को फिर से आगे बढ़ाने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
इसके बाद कार्यक्रम भी होने लगे। इसी बीच, सर्व सेवा संघ में आपसी विवाद हुआ और स्थानीय लोगों ने इसमें अपना कार्यालय बना लिया। इनमें ईसाई मिशनरियों तथा मदरसों आदि के सहयोग से यहां बच्चों के स्कूल और राजनीतिक गोष्ठियां आदि आयोजित होने लगीं। इन लोगों को सर्व सेवा संघ के विषय में कोई जानकारी ही नहीं थी। उनकी निगाह तो संस्थान की भूमि और भवन पर थी, जिसे हड़पने के लिए उन्होंने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के वहां आने का विरोध शुरू कर दिया। इस कारण शासन को इन असामाजिक तत्वों को भगाना पड़ा, ताकि गांधी विद्या संस्थान निर्विघ्न रूप में चल सके।
लालच में राजनीतिक घुसपैठ
इन असामाजिक तत्वों ने सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के विधिक स्वरूप को समझे बिना उसमें हस्तक्षेप शुरू कर दिया। वास्तव में इस परिसर में सर्व सेवा संघ वर्षों से निष्क्रिय है। संस्थन के सभी महत्वपूर्ण लोग सेवाग्राम (वर्धा) में रह रहे हैं तथा वहीं अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। इसलिए स्थानीय नेताओं को मौका मिल गया। धरना-प्रदर्शन और सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार के साथ इन्होंने जाली दस्तावेज के आधार पर न्यायालय में झूठा दावा पेश किया। भूमि, भवन और संपत्ति के लोभ में उनके साथ और प्रभावशाली लोग भी जुड़ गए। ये लोग स्थानीय कार्यकर्ता रामधीरज को आगे कर सर्व सेवा संघ के नाम से धरना-प्रदर्शन करने लगे, जिसमें स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता भी शामिल हो गए।
कांग्रेस के ये कार्यकर्ता वैसे भी सर्व सेवा संघ से वर्षों से नाराज थे, क्योंकि आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का समर्थन किया था। सर्व सेवा संघ का एक गुट ने खुलकर इंदिरा गांधी का विरोध किया था और जेपी के साथ चला गया था। इसलिए कांग्रेसी इन लोगों से विशेष रूप से चिढ़े हुए हैं। लिहाजा, उन्होंने प्रकरण को हवा दी और धरना-प्रदर्शन आदि में कूद पड़े।
सर्व सेवा संघ के न्यास के नियमों के अनुसार, केवल प्रबंधक न्यासी संस्थान की ओर से न्यायालय में जा सकते हैं। चूंकि प्रबंधक न्यासी के पद और न्यास से जुड़े चैरिटेबल संस्थाओं के मामले वर्धा न्यायालय में लंबित हैं, इसलिए सर्व सेवा संघ के विवाद से पूर्व तक प्रबंधक न्यासी रहे महादेव विद्रोही ने न्यायालय में कोई याचिका दाखिल नहीं की है। इसी कारण, जिला न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में रामधीरज गुट द्वारा दायर याचिकाएं खारिज हो रही हैं। यही इस प्रकरण का राजनीतिकपक्ष है।
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