यह लगभग बीस साल पुरानी बात होगी। राष्ट्रवादी पत्रकारों के एक मिलन कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार मनोज रघुवंशी ने भारतीय राष्ट्रवाद पर एक टिप्पणी कर दी। यह बात मिलन में शामिल हुए कुछ पत्रकारों को पसंद नहीं आई और उन्होंने श्री रघुवंशी को अपनी बात पूरी नहीं करने दी। इस घटना की जानकारी एक मित्र से मिली थी। वे मित्र उस मिलन में शामिल हुए थे। यह जानने के बाद राष्ट्रवादियों को लेकर मेरी राय बनी कि यहां अपनी बात कहने की आजादी नहीं है। उन दिनों मेरी सोच थी कि वामपंथ में इसकी गुंजाइश है। वे उदार लोग हैं और यदि आप उनकी आलोचना भी करो तो वे सुनते हैं। लेकिन बाद के कई अनुभव ऐसे सामने आए जिससे यह स्पष्ट हुआ कि मैं गलत था।
प्रेमचंद जयंती के अवसर पर प्रत्येक साल 31 जुलाई की शाम एवाने गालिब सभागार में होने वाला ‘हंस समारोह’ इसका सटीक उदाहरण हो सकता है।
वामपंथ का एकालाप
आज की बात इस बार 31 जुलाई की गोष्ठी के जिक्र से ही प्रारंभ करते हैं, तो वहां कॉमरेड प्रत्यक्षा का संचालन था, गणेश देवी, गौहर रजा, सुधीर चंद्र, कृष्ण कुमार ने अपना वक्तव्य दिया। कार्यक्रम स्थल पर अधिकांश कुर्सियां खाली थीं और राजेन्द्र यादव की याद दिला रही थीं। वे होते तो कक्ष इतना खाली नहीं होता। वे होते तो पूरा आयोजन एकपक्षीय नहीं होता। बहरहाल, मंच पर मौजूद एक ही विचारधारा के चार लोग मिलकर उनकी हंसी उड़ा रहे थे, जिस विचार का कोई प्रतिनिधि मंच पर मौजूद नहीं था। मंच से कृष्ण कुमार ने कहा, उनकी (राष्ट्रवादियों) विचारधारा में दम कहां है? उनके पास एक साहित्यकार नहीं। उनके बीच पढ़ने लिखने की कोई संस्कृति नहीं है। मतलब जो प्रगतिशील हैं, वे सवाल उठाना भी चाहते हैं और आने वाले जवाब से डरे हुए भी हैं। कृष्ण कुमार को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि जिस प्रेमचंद के नाम पर सारा आयोजन है, उन प्रेमचंद को सबसे अधिक जानने वाले और उनकी अप्रकाशित कहानियां तलाश तलाश कर हंस को भी उपलब्ध कराने वाले कमल किशोर गोयनका का संबंध किस विचारधारा से है? ना जाने कृष्ण कुमार बंकिम चंद्र और गुरुदत्त को किस खेमे में रखना पसंद करेंगे?
सुधीर चन्द्र को नव राष्ट्रवाद शब्द से आपत्ति थी, वे इसमें हिन्दू जोड़ना चाहते थे। उन्हीं पत्रकारों की तरह जो मेवात के नूह में निकली ब्रजमंडल यात्रा को भगवा यात्रा कहते नहीं थक रहे थे। वास्तव में उन्हें नैरेटिव गढ़ने के लिए हिन्दू, राष्ट्रवाद, भगवा जैसे शब्द चाहिए। यदि ये शब्द ना मिल रहे हों तो कैसे उसे पूरे विमर्श में लाना है, इसी विशेषज्ञता का नाम वामपंथ है।
आजादी नहीं, गिरोहबंदी का समर्थन
वामपंथी अथवा उसकी प्रगतिशील धारा से जुड़े लोग ‘कहने की आजादी के अधिकार’ का जिक्र खूब करते हैं लेकिन जब साथ खड़े होने की बात होती है तो वे सिर्फ अपने गिरोह के लोगों के साथ ही खड़े होते हैं। कमलेश तिवारी, नुपूर शर्मा से लेकर मनीष कश्यप तक ऐसे दर्जनों नाम हैं, जिनकी हत्या अथवा उत्पीड़न सिर्फ ‘कहने’ की वजह से हुआ। इनके साथ कोई प्रगतिशली लेखक, पत्रकार, यू ट्यूबर खड़ा नहीं दिखा क्योंकि इनमें से कोई उनकी गिरोह का हिस्सा नहीं है।
पिछले दिनों ‘वामपंथ’ महिला पहलवानों के आंदोलन में खाप पंचायतों के पीछे खड़ा था। जहां महिला खिलाड़ियों के बदले सारे निर्णय खाप पंचायत चला रहे पुरुष ले रहे थे, उस दौरान वामधारा की एक भी बड़ी बिंदी वाली नारीवादी चिंतक को यह ख्याल नहीं आया कि खाप पंचायत में महिलाएं क्यों नहीं हैं? हरियाणा में खाप पंचायतें पितृ सत्ता की प्रतीक हैं अथवा जब बात महिला खिलाड़ियों की है तो उनके संबंध में कोई भी अंतिम निर्णय पुरुषों वाला खाप पंचायत क्यों लेगा? गौरतलब है कि वामपंथ की प्रगतिशील धारा का अपना काम करने का तरीका भी खाप पंचायत जैसा ही है। वे जिस विचार के संबंध में दिन रात लेख लिख रहे हैं, विष वमन कर रहे हैं। उस विचार को उन्होंने कभी ठीक से सुना नहीं। उसे जाना नहीं और उस विचारधारा पर निर्णय सुनाने में कभी तनिक देर भी नहीं की।
बोलने की आजादी ‘सिर्फ अपनों’ को है
हंस समारोह हमेशा से एकपक्षीय नहीं था। कुछ वर्षों तक दूसरे पक्ष को सुनने का ‘औपचारिक प्रयास’ प्रगतिशील हंस के मंच पर हुआ। वर्ष 2015 की बात है, हंस के कार्यक्रम में साहित्यकार रमणिका गुप्ता ने मंच पर चढ़कर वक्ताओं से चल रहे सवाल जवाब के दौरान प्रश्न पूछने की जगह पांचजन्य के पूर्व संपादक तरुण विजय के वक्तव्य पर टिप्पणी की। इस बीच मंच संचालक ने उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। रमणिका गुप्ता के तरुण विजय पर एकालाप के बाद उन्हें जवाब देने का अवसर मिलना चाहिए था। समारोह में वे वक्ता के तौर पर बुलाए गए थे और मंच पर अपनी विचारधारा के अकेले प्रतिनिधि थे। तरुण, रमणिका गुप्ता के सवाल का जवाब देना चाहते थे, लेकिन मंच संचालन कर रहे कॉमरेड संजीव कुमार ने कहा कि यहां कौन टिप्पणी करेगा, कौन सवाल पूछेगा और कौन जवाब देगा, यह मैं तय करूंगा। मतलब साफ था कि संजीव वहां मंच संचालक की जगह अपनी ‘तानाशाह विचारधारा’ के एक सिपाही की भूमिका निभा रहे थे। संजीव को लगा कि तरुण विजय ने रमणिका गुप्ता की टिप्पणी पर अपनी बात कही तो ‘विचारधारा’ खतरे में आ जाएगी। अब रमणिकाजी हमारे बीच नहीं हैं। मार्च 2019 में उनका निधन हो गया। 2015 की हंस गोष्ठी में तरुण विजय के अलावा मंच पर अशोक वाजपेयी, पवन के वर्मा, एम के रैना, सुभाषिनी अली उपस्थित थीं। वहां किसी के बोलने पर शोर नहीं हुआ लेकिन तरुण विजय के आते ही हर तरफ हंसी, फुसफुसाहट का माहौल बनाया गया, जिसे शिष्टता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
सब मिले हुए हैं जी
राजेन्द्र यादव के प्रयास से राष्ट्रवादी विद्वान हंस के मंच पर बुलाए तो जा रहे थे लेकिन किसी प्रगतिशील लेखक को यह बात पसंद नहीं आई कि उनके मंच पर गोविन्दाचार्य और तरुण विजय जैसे गैर प्रगतिशील आकर भाषण करें। उस मंच से चंदन मित्रा और राम बहादुर राय भी होकर आए। वामपंथियों को एकालाप करने की आदत रही है। दूसरी धारा की बात अपने मंच से सुनना उनके अभ्यास में नहीं है। जनवादी और प्रगतशील शब्दों के खोल में दशकों से खाप लेखक संघ ही चल रहा है।
दिल्ली के एक वरिष्ठ वामपंथी पत्रकार जिन्होंने ना जाने अपनी रिपोर्टिंग से लेकर यू ट्यूबर के तौर मोनोलॉग करते—करते कितने लोगों की निजी जिन्दगी पर टिप्पणियां की हैं। वे खुद को ‘कहने की आजादी के बड़े पैरोकारों’ में भी गिनते हैं लेकिन जब राजेन्द्र यादव ने उनकी पत्नी और बेटी पर अपनी एक किताब में सात-आठ सौ शब्द खर्च किए तो वे पत्रकार तिलमिला उठे। उन्होंने यादवजी के लिखने की आजादी के सम्मान की न सिर्फ उपेक्षा की, वे लाल पीले होकर उनके घर तक पहुंच गए। बताया जाता है कि उस प्रगतिशील सवर्ण पत्रकार ने जिस लहजे में यादवजी से बात की, वह सम्मान का लहजा नहीं था। इतना ही नहीं, प्रकाशित किताब से वह दो पन्ने हटाए गए जिन पर उन पत्रकार को आपत्ति थी। यहां उल्लेखनीय है कि यादवजी की किताब का प्रकाशक भी कहने की आजादी का बहुत बड़ा हिमायती है लेकिन एक पन्ना छपी हुई किताब से फाड़कर हटाने में उसने भी तनिक देर नहीं की।
यह प्रश्न प्रासंगिक है
कहने की आजादी के पक्ष में खड़े दिखते इस विचारधारा के संबंध में पत्रकार अनंत विजय बताते हैं कि जब वे ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ लिख रहे थे। उन्हें आस—पास के लेखकों ने खूब हतोत्साहित किया। वे नहीं चाहते थे कि यह किताब लिखी जाए। कहने की आजादी के पक्ष में दिखने वाला यह समूह कमलेश्वर के खिलाफ भी हो गया था, जब वे अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ‘अक्षरम’ नाम के एक गैर वामपंथी मंच पर भाषण करने चले गए थे। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में हुए एक कार्यक्रम में आलोचक नामवर सिंह के जाने पर उनकी घोर आलोचना हुई क्योंकि उन्होंने वहां केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह के साथ मंच साझा किया था। निर्मल वर्मा, रामदरश मिश्र जैसे लेखकों को वामपंथी गिरोह ने इसलिए अधिक महत्व नहीं दिया क्योंकि उन्होंने लिखते हुए वामपंथियों की ‘सहमति-असहमति को अधिक महत्व नहीं दिया।
वामपंथी लेखकों, फिल्मकारों और पत्रकारों के लिए यह प्रश्न वाजिब जान पड़ता है कि जिस सत्ता के खिलाफ आप लिख रहे थे और दिख रहे थे। वही आपको पोषित कर रही थी। आपको तमाम तरह के अवार्ड और फेलोशिप दे रही थी। इसका तो यही मतलब निकलता है कि उस समय की सत्ता आपके विरोध को अधिक गंभीरता से नहीं ले रही थी अथवा वह वामपंथियों को अपनी बी टीम ही समझती थी। पिछले कुछ समय में अचानक ऐसे यू ट्यूबरों की संख्या बढ़ी है, जो अब कांग्रेस की बी टीम बनकर नहीं बल्कि ए टीम बनकर काम कर रहे हैं। यहां जिन घटनाओं का उल्लेख हुआ है, वह सारी घटनाएं आज प्रासंगिक हैं और वामपंथ की प्रासंगिकता पर प्रश्न भी खड़े कर रही हैं।
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