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जिन्होंने विद्यार्थी परिषद को गढ़ा …

विद्यार्थी परिषद 1948 से अस्तित्व में है, लेकिन इसे अखिल भारतीय स्वरूप मदनदास जी ने प्रदान किया। विद्यार्थी परिषद की बागडोर उन्होंने उस समय संभाली थी, जब संगठन के सामने पहचान का संकट था

by रामबहादुर राय
Aug 1, 2023, 07:30 am IST
in आंध्र प्रदेश, संघ, श्रद्धांजलि
बेंगलुरु में 2018 में जब अभाविप के 69वें स्थापना दिवस पर मदनदास जी को सम्मानित किया गया था, रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले भी उपस्थित थे

बेंगलुरु में 2018 में जब अभाविप के 69वें स्थापना दिवस पर मदनदास जी को सम्मानित किया गया था, रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले भी उपस्थित थे

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मदनदास जी 1964 से ही महाराष्ट्र में विद्यार्थी परिषद में सक्रिय थे। लेकिन अभी मदनदास जी के निधन के बाद संघ की तरफ से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि मदनदास जी संघ योजना से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में दिए गए पहले प्रचारक थे।

रामबहादुर राय
अध्यक्ष, इंदिरा गाधी कला केंद्र

तिरुअनंतपुरम में 1970 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का अधिवेशन हुआ था। इसी अधिवेशन में मदनदास जी को विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय संगठन मंत्री का दायित्व मिला था। वैसे तो मदनदास जी 1964 से ही महाराष्ट्र में विद्यार्थी परिषद में सक्रिय थे। लेकिन अभी मदनदास जी के निधन के बाद संघ की तरफ से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि मदनदास जी संघ योजना से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में दिए गए पहले प्रचारक थे।

दो कारणों से यह बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है। वैसे तो विद्यार्थी परिषद में संगठन मंत्री का पद पहले से ही था। आचार्य गिरिराज किशोर भी संगठन मंत्री थे। लेकिन इस सूचना से यह समझ आता है कि 1970 में जब मदनदास जी विद्यार्थी परिषद में आए तो उस समय जो सामाजिक और विश्वविद्यालीय परिस्थितियां थीं, उन्हें देखकर संघ ने जरूरी समझा कि एक कुशल संगठक को विद्यार्थी परिषद का दायित्व दिया जाए।

विद्यार्थी परिषद का अस्तित्व 1948 से ही है। अर्थात् 22 वर्ष बाद यह योजना बनी थी। इसका अर्थ है कि उस दौर में संघ ने इसकी आवश्यकता समझी। दूसरा महत्व यह है कि विद्यार्थी परिषद का कामकाज तो देश भर में जगह-जगह था, लेकिन उसका कोई अखिल भारतीय स्वरूप नहीं था। 1970 से उसका अखिल भारतीय स्वरूप बनने लगा।

श्री मदनदास जी के साथ केदारनाथ साहनी जी

विद्यार्थी परिषद के कई छात्र नेता साधारण कार्यकर्ता प्रतिनिधि के रूप में अधिवेशनों में आए, उन्होंने विद्यार्थी परिषद में काम भी किया। पर जब उन्हें राजनीतिक दल में जाने की आवश्यकता हुई, तो वे केवल भाजपा में नहीं गए।

विद्यार्थी परिषद की त्रिमूर्ति

मदनदास जी 1992 तक विद्यार्थी परिषद में रहे थे। अगर विद्यार्थी परिषद अखिल भारतीय संगठन बन सका, तो उसका श्रेय मदनदास जी को जाता है। ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूं कि मदनदास जी से पहले भी अच्छे लोग संगठन में थे, लेकिन इसके बावजूद अंतरकलह भी थी। नेतृत्व में एक स्पष्ट दृष्टि और किस दिशा में चलना है, इसका अभाव था। कैसा स्वरूप बनेगा, किस उद्देश्य के लिए विद्यार्थी परिषद बना है, इस बारे में भी अलग-अलग दृष्टि थी। लेकिन मदनदास जी के आने के साथ-साथ विद्यार्थी परिषद में एक त्रिमूर्ति उभरी।

इस त्रिमूर्ति में आधार का काम कर रहे थे प्रो.यशवंत राव केलकर। उनके एक तरफ मदनदास जी और दूसरी तरफ प्रो.बाल आप्टे थे। वैचारिक मंथन की गतिविधियां भी 1970 के बाद ज्यादा शुरू हुईं। यह दौर वैचारिक स्पष्टता का भी दौर था। सामाजिक मुद्दे, शिक्षा संस्थानों के मुद्दे, छात्रसंघ का सवालों से लेकर शिक्षा नीति तक पर विद्यार्थी परिषद को कुछ कहना है, तो वैचारिक स्तर पर उसकी चिंता और चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी। धीरे-धीरे एक वास्तविक टीम विकसित हुई। यह सिलसिला नीचे के स्तर तक गया। टीम की चर्चा तो कई मौकों पर होती है, लेकिन वास्तविक टीम वह होती है, जो एक ढंग से सोचती हो, एक ढंग से काम करती हो, आपस में परस्परता हो, आपस में विश्वास हो। मैं यह कह सकता हूं कि प्रो. यशंवत राव जी ने राष्ट्रीय स्तर पर जो टीम विकसित की, उसकी प्रमुख धुरी मदनदास जी थे।

हम जनसंघ के छात्र संगठन हैं और साथ-साथ यह भी स्वीकार नहीं किया कि विद्यार्थी परिषद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन है। उनकी वैचारिक दृष्टि थी कि विद्यार्थी परिषद शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का संगठन है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद शिक्षा के क्षेत्र में बड़े उद्देश्य के लिए बना है। इसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या जनसंघ का विद्यार्थी संगठन नहीं कहना चाहिए। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व ने यह माना कि हमको जाति, जमात या राजनीतिक दलों के भेदभाव से अपने को अलग रखना है।

मदनदास जी का महत्व इस दृष्टि से भी है कि उनके आने से संगठन को एक दिशा मिली। मदनदास जी जिस दौर में विद्यार्थी परिषद में आए, उस दौर में संगठन की पहचान का भी संकट था। इसको एक उदाहरण से समझ सकते हैं। उस समय विद्यार्थी परिषद का परिचय शायद ही किसी अखबार में सही ढंग से छपता था। क्योंकि जब भी छात्रसंघ के चुनाव होते थे, या फिर कोई गतिविधि होती थी, कोई आंदोलन होता था तो मीडिया विद्यार्थी परिषद को जनसंघ का छात्र संगठन बताता था और हम लोग उसका खंडन भेजते थे कि विद्यार्थी परिषद जनसंघ का विद्यार्थी संगठन नहीं है। यह सिलसिला जब तक जनसंघ था, तब तक चलता रहा। उस समय यह बहस होती थी कि विद्यार्थी परिषद का जनसंघ या संघ से क्या संबंध है? मेरा यह आग्रह रहता था कि हमको यह कहना चाहिए कि हमें किसी के साथ जोड़कर ही परिचय देना हो, तो विद्यार्थी परिषद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा है, जनसंघ से नहीं।

हालांकि विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व ने, चाहे प्रो. यशवंत राव जी हों या मदनदास जी, इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि हम जनसंघ के छात्र संगठन हैं और साथ-साथ यह भी स्वीकार नहीं किया कि विद्यार्थी परिषद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन है। उनकी वैचारिक दृष्टि थी कि विद्यार्थी परिषद शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का संगठन है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद शिक्षा के क्षेत्र में बड़े उद्देश्य के लिए बना है। इसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या जनसंघ का विद्यार्थी संगठन नहीं कहना चाहिए। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व ने यह माना कि हमको जाति, जमात या राजनीतिक दलों के भेदभाव से अपने को अलग रखना है।

राजनीतिक संस्कार

यह लाइन लंबे समय तक चलती रही। उसका परिणाम यह रहा कि उन दिनों विद्यार्थी परिषद के कई छात्र नेता साधारण कार्यकर्ता प्रतिनिधि के रूप में अधिवेशनों में आए, रहे, उन्होंने विद्यार्थी परिषद में काम भी किया। लेकिन जब उन्हें राजनीतिक दल में जाने की आवश्यकता हुई, तो वे केवल भाजपा में नहीं गए। उन्होंने अपने मन का राजनीतिक दल चुना। ऐसे कई नाम हैं, जिनमें से एक नाम देवी प्रसाद त्रिपाठी का है, जिन्हें ‘डीपीटी’ नाम हम जानते हैं। इलाहाबाद से विद्यार्थी परिषद के प्रतिनिधियों का जो समूह त्रिवेंद्रम अधिवेशन में गया था, उसमें देवी प्रसाद त्रिपाठी थे।

देवी प्रसाद त्रिपाठी जी जनता पार्टी, कांग्रेस और राकांपा से राज्यसभा सदस्य रहे। वह भाजपा में नहीं थे, लेकिन उनका जो राजनीतिक संस्कार हुआ, वह विद्यार्थी परिषद में हुआ। इसी तरह, दूसरा नाम रामजतन सिन्हा का है। रामजतन सिन्हा कांग्रेस में मंत्री थे। बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। लेकिन रामजतन सिन्हा विद्यार्थी परिषद से निकले थे। उसी तरह, इलाहाबाद में कांग्रेस में योगेश शर्मा जी हैं। योगेश शर्मा भी त्रिवेंद्रम अधिवेशन में गए थे। इसी तरह, राजेंद्र अरुण भी रहे। नरेंद्र सिंह जी अब हमारे बीच नही हैं। वह बिहार के बड़े नेता थे। वह भी विद्यार्थी परिषद में रहे। ऐसे बहुत नाम हैं।

मैं यह उल्लेख इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मदनदास जी के नेतृत्व का दौर ऐसा था, जब विद्यार्थी परिषद ने व्यापक रूप से विद्यार्थी राजनीति को प्रभावित किया। उसको एक दिशा दी। जहां सत्याग्रह की आवश्यकता हुई, वहां सत्याग्रह किया, जहां आंदोलन की आवश्यकता पड़ी वहां आंदोलन किया, और जहां रचनात्मक काम की आवश्यकता पड़ी, वहां रचनात्मक काम किए। उस समय विद्यार्थी परिषद में यह बात शुरू हुई कि हमें जीवन के हर क्षेत्र में जाना चाहिए। केवल किसी दल में नहीं जाना चाहिए। यहां से लोग केवल भाजपा में नहीं, सभी दलों में गए। यहां तक कि माकपा (सीपीएम) में भी लोग गए।

अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि महेश शर्मा जी भाजपा में काम करें। लेकिन महेश शर्मा जी और अशोक भगत जी ने विकास भारती बनाई और सेवा के क्षेत्र में काम शुरू किया। यह इसलिए हो सका, क्योंकि विद्यार्थी परिषद की त्रिमूर्ति प्रो. यशवंत राव जी, मदनदास जी और प्रो. बालआप्टे जी में कभी भी आपसी असहमति नहीं रही। इसका कारण है कि यशवंत राव केलकर जी को विद्यार्थी परिषद ने अपना मार्गदर्शक माना और मदनदास जी और बालआप्टे जी को अपना नेता माना। इन्हीं लोगों के कारण विद्यार्थी परिषद को कई बड़े आंदोलनों के नेतृत्व का भी अवसर मिला। उससे विद्यार्थी परिषद को यश भी मिला।

मदनदास जी विद्यार्थी राजनीति को जिस मुकाम तक पहुंचा सके, विद्यार्थी राजनीति में वह कम ही दिखता है। ऐसा कोई संगठन नहीं है, जो इस तरह से निरंतरता में चला हो, जिस तरह विद्यार्थी परिषद चल रहा है।

मदनदास जी विद्यार्थी राजनीति को जिस मुकाम तक पहुंचा सके, विद्यार्थी राजनीति में वह कम ही दिखता है। कोई भी विद्यार्थी संगठन ऐसा नहीं है, जो इस तरह से निरंतरता में चल सका हो, जिस तरह विद्यार्थी परिषद चल रहा है। इसका श्रेय मदनदास जी को ही जाता है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को एक मुकाम तक पहुंचाने बाद मदनदास जी के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच समन्वय की नई जिम्मेदारी आई।

इस जिम्मेदारी को भी उन्होंने जिस तरह से निभाया, उससे भी उन्हें यश प्राप्त हुआ। हालांकि वह दौर ऐसा था कि जब कई गंभीर मुद्दे छिड़े हुए थे। भारतीय जनता पार्टी की दिशा का भी सवाल था। राजनीतिक दलों में जो अहंकार होते हैं, वह भी एक गंभीर मसला था। इन सबके बावजूद मदनदास जी ने समन्वय स्थापित किया। जो राजनीतिक विवाद अंत में राजनीतिक विघटन के कारण बनते हैं, वह मदनदास जी की वजह से नहीं हुए। विघटन के जो-जो लक्षण थे, वे दूर हुए और भाजपा में एकता बनी रही।

जो लोग हर सवाल को राजनीतिक दृष्टि से देखते हैं, उन्होंने उस समय मदनदास जी की थोड़ी आलोचना भी कि वह समन्वय के अधिक पक्षधर हैं और सच के साथ खड़े नहीं हो रहे। मेरा कहना है कि सच आसमान से नहीं टपकता है, सच सापेक्ष होता है और मदनदास जी ने सापेक्ष सच को स्थापित करने के लिए अपना जीवन लगा दिया। उसका प्रभाव उनके शरीर पर भी पड़ा। उनका शरीर बहुत स्वस्थ था। गठीला बदन था। मन से निर्मल थे। लोगों को जोड़ने की कला उनमें थी।

इसके बावजूद, जब उन्हें राजनीतिक दबावों से गुजरना पड़ा तो उसका असर उनके शरीर पर हुआ। उसी के बाद उच्च रक्तचाप, लकवा और फिर धीरे-धीरे अस्वस्थता का दौर शुरू हुआ, जो लंबे समय तक चला। उसी अस्वस्थता में ही वे हम सबके बीच से चले भी गए।

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