विपक्षी गठबंधन का नाम बदल देने भर से देश की परिस्थितियों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आ सकता। उसके लिए हमें अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होने की आवश्यकता है
पटना के बाद बेंगलुरु। विपक्ष की एकता के प्रयासों में नया बस इतना हुआ है कि केंद्रीय भूमिका में सुशासन बाबू की जगह फिर से परिवार की महारानी आ गई हैं। लेकिन हो सकता है कि विपक्ष के इस जमघट को नया नाम देने का आईडिया सुशासन बाबू से ही लिया गया हो। जैसे अपना नाम सुशासन बाबू रख लेने भर से बिहार में सुशासन नहीं आ जाता, जैसे चारा बाबू के पुत्र का नाम यदि चाणक्य रख दिया जाए, तो उससे वह कोई योग्य, विद्वान और संभावनाशील नेता नहीं बन सकते, उसी प्रकार विपक्षी गठबंधन का नाम बदल देने भर से वह परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। हालांकि उस तरह का प्रचार और विज्ञापन जरूर किया जा सकता है।
बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में जब चारा बाबू के पुत्रों को लॉन्च करने की कोशिश की गई, तो बहुत ध्यान से यह सुनिश्चित किया गया कि चारा बाबू अथवा उनकी धर्मपत्नी का चित्र या नाम किसी पोस्टर में नजर न आ जाए। क्योंकि उसके नजर आते ही तुरंत लोगों को घोटालों और जंगलराज की भी याद आ जाती। संभवत: इसी प्रकार यूपीए शब्द को इसी कारण तिलांजलि दी जा रही है कि यूपीए का नाम आते ही तुरंत दायित्वहीन निर्बाध सत्ता, असंख्य घोटाले, नीतिगत किंकर्तव्यविमूढ़ता, वैचारिक शून्यता, आतंकवाद के प्रति नरमी, ब्रेकिंग इंडिया शक्तियों के साथ सत्ता की संलिप्तता, भारत के प्रति विदेशी दृष्टि, रोबोट राज, भारत को सिर्फ लूटने का इरादा जैसे तमाम विषय भी एक साथ खुलकर सामने आ जाते।
लेकिन फिर भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि विपक्षी एकता के प्रयासों को नए नाम खोजने की आवश्यकता क्यों पड़ी। यूपीए नाम से भाजपा विरोधी दलों का एक गठबंधन पहले से अस्तित्व में था। अचानक ऐसा क्या हो गया कि उन्हें यूपीए नाम अनुपयुक्त लगने लगा? कहा जा रहा है इससे टेलीविजन पर और अन्य माध्यमों पर सुर्खियां अच्छी बनेंगी। इंडिया बनाम एनडीए। अगर ऐसा है, तो इसे विज्ञापनजीवी विपक्ष का युग कहा जाएगा। अर्थात सारी कवायद सुर्खियां पैदा करने के लिए होती है और सुर्खियों पर समाप्त होती है। और सुर्खी भी कैसी? आई. एन. डी .आई. ए. – माने भारत को देखने की पश्चिम की दृष्टि की पुनर्पुष्टि। और यह पश्चिम की दृष्टि क्या है?
भारत एक सांस्कृतिक शब्द है, जो एकत्व, समत्व और ममत्व का परिचायक है। इंडिया वह है जिसे पश्चिम के आक्रांताओं ने अपने दृष्टिदोष के साथ देखा था। उसे लूटने, उस पर कब्जा करने और कब्जे को बनाए रखने के लिए विभाजित करने की दृष्टि से देखा था। वास्तव में पश्चिम में इंडिया शब्द के जो अर्थ हैं, वे भौगोलिक भी नहीं है। डच ईस्ट इंडिया कंपनी और डच वेस्ट इंडिया कंपनी तो खुले तौर पर गुलामों का व्यापार करने के लिए होती थी।
पिछले सात दशकों का इतिहास हमारे सामने है जिसमें राजनीति में सफलता के लिए भारत को सामाजिक और जातिगत आधारों पर बांटने, आर्थिक आधार के साथ, भाषायी आधार पर बांटने और अब तो लैंगिक आधारों पर बांटने तक के प्रयास किए गए। इन प्रयासों को राजनीति का आधार यह कहकर बनाया गया कि वे कतिपय अधिकारों की बातें कर रहे हैं।
संविधान सभा में भी भारत का भौगोलिक नाम भारत ही रखने को लेकर बहुत तीखी बहस हुई थी और सिर्फ पश्चिमी दृष्टिकोण से त्रस्त वर्ग की आपत्तियों को कुछ समय के लिए नजरअंदाज कर देने की भावना से ‘‘इंडिया दैट इज भारत’’ लिखा गया था। स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं की दृष्टि में भी हमारी भौगोलिक पहचान भारत थी न कि इंडिया। इंडिया शब्द से सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक पहचान होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रेरित मानसिकता भी भारत को उसी औपनिवेशिक ढंग से देखने का प्रयास करती रही कि किस प्रकार इसे लगातार विभाजित करके इस पर राज किया जाए। पिछले सात दशकों का इतिहास हमारे सामने है जिसमें राजनीति में सफलता के लिए भारत को सामाजिक और जातिगत आधारों पर बांटने, आर्थिक आधार के साथ, भाषायी आधार पर बांटने और अब तो लैंगिक आधारों पर बांटने तक के प्रयास किए गए। इन प्रयासों को राजनीति का आधार यह कहकर बनाया गया कि वे कतिपय अधिकारों की बातें कर रहे हैं।
इस विभाजनकारी सोच ने कभी राष्ट्र के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति किसी कर्तव्य की बात नहीं की। जिस एक व्यक्ति ने संक्षिप्त तौर पर कर्तव्य की बात कही थी, वह ताशकंद में रहस्यपूर्ण ढंग से कालकवलित हो गया। इस तंत्र और सोच को ढांपने के लिए अब विज्ञापनजीविता का सहारा लिया जा रहा है। यह पश्चिम प्रेरित विज्ञापनजीविता भले ही आज एक उपयोगी टोटका नजर आती हो, लेकिन अगर इसका आशय पश्चिम की राजनीतिक-प्रशासनिक प्रणालियों की देखा-देखी करना है, तो निश्चित रूप से पश्चिम के हर अन्य टोटके की तरह भारत में यह भी विफल होगी। @hiteshshankar
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