आज हम भारतवासी अपना 24वां ‘कारगिल विजय दिवस’ मना रहे हैं। 26 जुलाई 1999 की अविस्मर्णीय तिथि भारतीय सेना की जांबाजी, पराक्रम और बहादुरी के लिए जानी जाती है। इसी दिन भारतमाता के वीर सपूतों ने पाकिस्तानी सेना को धूल चटाकर कारगिल की दुर्गम चोटियों पर भारत का तिरंगा फहराया था। लगभग 60 दिनों तक चले इस महायुद्ध में 527 सैनिक बलिदान हुए थे और 1400 के करीब घायल। कारगिल विजय दिवस के दिन आइए पुनरवलोकन करते हैं भारतमाता के कुछ ऐसे वीर सपूतों की शौर्य गाथाओं का जो हमारे अंतस में आज भी राष्ट्रभक्ति का ज्वार भर देती हैं।
परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा
9 सितंबर, 1974 को पालमपुर, हिमाचल प्रदेश में जन्मे कैप्टन विक्रम बत्रा जून 1996 में मानेकशॉ बटालियन में IMA में शामिल हुए।19 महीने का प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को IMA से स्नातक की उपाधि प्राप्त कने के बाद वे 13वीं बटालियन, जम्मू और कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त हुए थे। कैप्टन विक्रम बत्रा का नाम करगिल युद्ध के उन जांबाज जवानों में शामिल था, जिन्होंने दुश्मन छक्के छुड़ा दिए थे। कैप्टन बत्रा ने कारगिल में प्वाइंट 4875 को पाकिस्तान के कब्जे से आजाद कराया था। यह अभियान भारतीय सेना द्वारा किए गए सबसे कठिन अभियानों में से एक था। लड़ाई में उनके एक साथी को गोली लग गई थी, फिर उन्हें बचाने के लिए आगे बढ़े बत्रा दुश्मनों का भी सफाया कर रहे थे। इस दौरान उन्हें सीने में गोली लगी और वह बलिदान हो गए। छुट्टियों में घर आने पर विक्रम बत्रा का प्रसिद्ध वाक्य था, “या तो मैं तिरंगा फहराकर वापस आऊंगा, या मैं उसमें लिपटा हुआ वापस आऊंगा, लेकिन मैं निश्चित रूप से वापस आऊंगा।” और उन्होंने यह सच करके दिखाया। ज्ञात हो कि पाकिस्तान की ओर से विक्रम बत्रा का कोडनेम शेरशाह रखा गया था। 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध के दौरान उनके बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च और प्रतिष्ठित सैन्य पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।
परमवीर चक्र विजेता ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव
10 मई 1980 को सिकंदराबाद, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में जन्मे नायब सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव अगस्त 1999 में परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले सबसे कम उम्र (19 वर्ष) के सैनिक माने जाते हैं। कारगिल युद्ध के दौरान 4 जुलाई 1999 को उन्हें टाइगर हिल पर लगभग 16500 फीट ऊंची चट्टान पर स्थित तीन रणनीतिक बंकरों पर कब्जा करने का काम सौंपा गया था। वह रस्सी के सहारे चढ़ ही रहे थे कि तभी दुश्मन के बंकर ने रॉकेट फायर शुरू कर दिया। उन्हें कई गोलियां लगीं, लेकिन दर्द की परवाह किए बिना उन्होंने मिशन जारी रखा। वह रेंगते हुए दुश्मन के पहले बंकर तक पहुंचे और एक ग्रेनेड फेंका, जिसमें लगभग चार पाकिस्तानी सैनिक मारे गये और दुश्मन की गोलीबारी रुक गयी। इससे शेष भारतीय पलटन को चट्टान पर चढ़कर युद्ध जारी रखने का अवसर मिल गया। वहां से उन्होंने साथी सैनिकों की मदद से कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराकर उनके दूसरे बंकर को भी नष्ट कर दिया। इस तरह वह कारगिल युद्ध के सबसे कठिन मिशनों में से एक को पूरा करने में सफल रहे। कुछ साल पहले एक न्यूज चैनल को दिये साक्षात्कार में योगेन्द्र सिंह यादव ने कहा था कि ”एक सैनिक एक निस्वार्थ प्रेमी की तरह होता है। इस बिना शर्त प्यार के साथ दृढ़ संकल्प आता है और अपने राष्ट्र, अपनी रेजिमेंट और अपने साथी सैनिकों के प्रति इस प्यार के लिए एक सैनिक अपनी जान जोखिम में डालने से पहले दो बार नहीं सोचता।”
परमवीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे
25 जून 1975 को सीतापुर(उत्तर प्रदेश) के रूढ़ा गांव में जन्मे लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र पाने के एकमात्र उद्देश्य से ही भारतीय सेना में शामिल हुए थे। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रशिक्षण के पश्चात वे बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवीं गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में तैनात होने के बाद ट्रेनिंग के कारण जब उनको सियाचिन में तैनाती का मौका नहीं मिला तो परेशान होकर उन्होंने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें ‘बाना चौकी’ दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें ‘पहलवान चौकी’ मिले। यह दोनों चौकियां बहुत कठिन अभियान के तहत आती थीं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची ‘पहलवान चौकी’ पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया। पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर उन्होने अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गये और जीत कर ही माने। हालांकि, इन कोशिशों में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। वे 24 वर्ष की उम्र में देश को अपनी वीरता और हिम्मत का अनूठा उदाहरण दे गये। सर्विस सिलेक्शन बोर्ड (एसएसबी) इंटरव्यू के दौरान उनसे सवाल किया गया कि वह सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं ? उन्होंने जवाब दिया, ”मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूं.” और उनके अदम्य साहस और नेतृत्व के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
परमवीर चक्र विजेता राइफलमैन संजय कुमार
मार्च 1976 में कलोल बकैन, जिला बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में जन्मे राइफलमैन संजय कुमार ने 4 जुलाई 1999 को स्वेच्छा से मुश्कोह घाटी में पॉइंट 4875 के फ़्लैट टॉप क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के लिए हमलावर दस्ते के नेतृत्व का दायित्व स्वीकार किया था। उनका दल फ़्लैट टॉप क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि पाकिस्तानी सैनिकों ने हमला करते हुए को गोलीबारी शुरू कर उनकी टुकड़ी को रोक दिया लेकिन राइफलमैन संजय कुमार ने अदम्य साहस दिखाते हुए उन्होंने आमने-सामने की लड़ाई में तीन घुसपैठियों को मार गिराया। गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी वह दूसरे पहाड़ पर चढ़ कर शत्रु सेना पर गोलियां बरसाते रहे। दुश्मन हैरान हो भागने लगे और उन्होंने शत्रु द्वारा छोड़ा गया हथियार उठा लिया और भागते हुए शत्रु को मार डाला। उनके घावों से बहुत खून बह रहा था, लेकिन उन्होंने बाहर निकलने से इनकार कर दिया और फ्लैट टॉप क्षेत्र को दुश्मन के कब्जे से छुड़ा लिया। इस अप्रतिम शौर्य के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च सैन्य पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
भारत माता के महावीर चक्र विजेता सपूत
अक्टूबर 1973 में सासरौली, जिला रोहतक, हरियाणा में जन्मे लेफ्टिनेंट बलवान सिंह को 3 जुलाई 1999 को अपनी प्लाटून के साथ बहु-आयामी हमले के तहत उत्तर-पूर्वी दिशा से टाइगर हिल टॉप पर हमला करने का काम सौंपा गया था। बर्फ और बीच-बीच में दरारें और झरने से घिरा हुआ यह मार्ग 16500 फीट की ऊंचाई पर स्थित था लेकिन उन्होंने दृढ़ संकल्प के साथ अपने मिशन को सफलता से पूरा किया। उस कठिन और अनिश्चित मार्ग पर तोपखाने की गोलाबारी के साथ वे बिना रुके 12 घंटे से अधिक समय तक चलते रहे। उनकी टीम ने शीर्ष पर पहुंचने के लिए क्लिफ असॉल्ट पर्वतारोहण उपकरण का इस्तेमाल किया, जिससे दुश्मन हैरान रह गया। गोलाबारी में लेफ्टिनेंट बलवान सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन घायल होने के बावजूद उन्होंने लड़ाई जारी रखी और चार दुश्मन सैनिकों को मार गिराया। अत्यंत साहस और बहादुरी से टाइगर हिल पर कब्जा करने में के लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
एक लम्बी सूची है कारगिल के इन शौर्यवीरों की। इनमें 30 मई 1999 को टोलोलोंग क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए 18 ग्रेनेडियर्स बटालियन का नेतृत्व करने वाले नैनीताल (उत्तराखंड) के मेजर राजेश सिंह अधिकारी, 13 जून 1999 को चार्ली कंपनी की कमान संभाल रहे 2 राजपूताना राइफल्स के देहरादून के रहने वाले मेजर विवेक गुप्ता, 28 जून 1999 की रात ऑपरेशन विजय के दौरान द्रास सेक्टर में एरिया ब्लैक रॉक पर हमले के दौरान प्लाटून कमांडर रूप में तैनात कोहिमा (नागालैंड) के 2 राजपूताना राइफल्स के कैप्टन एन केंगुरुसे तथा बटालिक सेक्टर में प्वाइंट 4812 पर कब्जा करने के ऑपरेशन में तैनात शिलांग (मेघालय) 12 JAK LI के लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफोर्ड नोंग्रम को भारतीय सेना ने मरणोपरांत ‘महावीर चक्र’ से सम्मानित किया है।
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