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कारगिल विजय दिवस : अदम्य साहस और जज्बे से मिली जीत

कारगिल एक ऐसा युद्ध था जिसमें समझौते का उल्लंघन था, प्राकृतिक बाधाओं के साथ रणनीतिक बाधाएं थीं, परंतु भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस ने न सिर्फ जीत दिलायी बल्कि हमलावर पाकिस्तान द्वारा कब्जाई गयी सभी चोटियों को वापस पाने में भारतीय सेना सफल रही। पाकिस्तान को अपने सेनापति जनरल मुशर्रफ के दुस्साहस का खामियाजा भुगतना पड़ा

by कर्नल तेज के. टिक्कू, पीएचडी (सेवानिवृत्त)
Jul 26, 2023, 07:00 am IST
in भारत, रक्षा, विश्लेषण
तोलोलिंग चोटी पर जीत हासिल करने वाले सैनिक (फाइल फोटो)

तोलोलिंग चोटी पर जीत हासिल करने वाले सैनिक (फाइल फोटो)

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26 जुलाई, 2023 कारगिल संघर्ष की समाप्ति की 24वीं वर्षगांठ है। एक ऐसा संघर्ष जिसने परंमाणु शक्ति संपन्न दो परस्पर विरोधी देशों को पूर्ण युद्ध की लगभग कगार पर ला खड़ा किया था।

पृष्ठभूमि

1947-48 के प्रथम भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, जम्मू एवं कश्मीर राज्य के उत्तरी मोर्चे पर सघन लड़ाई छिड़ी थी। अधिकांश अवसरों पर, यहां तक कि जब सभी सेक्टरों में एकसाथ लड़ाई चल रही थी, पहाड़ी इलाकों ने सैन्य बलों की आवाजाही में ऐसे अवरोध खड़े कर दिये कि हर सेक्टर की लड़ाई मोटे तौर पर पृथक रूप से लड़ी गई। हालांकि, बाद में यह स्थिति बदल गई जब पाकिस्तानी सेना ने इस अवरोध को अवसर में बदल दिया।

इस क्षेत्र का भूभाग अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ और टूटा-फूटा था। इसकी मुख्य विशेषता खड़ी ढाल वाली ऊंची पर्वत चोटियां और गहरी नदी घाटियां थीं जो संकरे एवं दुर्गम दर्रों तक जाती थीं। उत्तरी मोर्चे के प्रमुख शहर गुरेस, द्रास, कारगिल और लेह थे जबकि जम्मू एवं कश्मीर राज्य के अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा 1947 में नियुक्त राज्यपाल का मुख्यालय गिलगित में था। उस समय उपलब्ध सीमित मार्गों में से श्रीनगर के रास्ते में कारगिल पड़ता था। गिलगित से शुरू होकर स्कर्दू की ओर बढ़ते हुए, यह मार्ग लेह जाता है और कारगिल से होते हुए अंतत: श्रीनगर जाकर खत्म होता था। दुश्मनी भड़कने पर रणनीतिक तौर पर इस मार्ग का महत्व स्पष्ट था क्योंकि कारिगल इस पहाड़ी क्षेत्र के अन्य महत्वपूर्ण कस्बों द्रास, जोजिला एवं बालटाल के जरिए श्रीनगर से जुड़ा था।

संयुक्त राष्ट्र में विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप, 1947-48 के प्रथम भारत-पाकिस्तान युद्ध को समाप्त करने के लिए दोनों पक्षों के बीच हुआ युद्ध विराम समझौता 1 जनवरी, 1949 को लागू हुआ। इस समझौते के तहत जम्मू एवं कश्मीर राज्य को युद्ध विराम रेखा (सीएफएल) के जरिए दो हिस्सों में बांटा गया। इसके बाद, विभिन्न समझौतों/संधियों के जरिये युद्ध विराम रेखा ने अपना मूल स्वरूप बनाये रखा, हालांकि यह नियंत्रण रेखा (एलओसी) के नये अवतार में है। राज्य के इस विभाजन ने लद्दाख क्षेत्र के 77,675 वर्ग किलोमीटर के बड़े हिस्से पाकिस्तान के हाथों में छोड़ दिया। रावलपिंडी/इस्लामाबाद से संघीय रूप से प्रशासित इस क्षेत्र को पाकिस्तान ने शुरुआत में ‘नॉर्दन एरियाज’ नाम दिया जिसे लगभग एक दशक पहले बदलकर गिलगित-बाल्टिस्तान कर दिया गया।

लेह-कारगिल सेक्टर का रणनीतिक महत्व

यह उल्लेख करना उचित है कि 13,000 फुट से अधिक की ऊंचाई पर जोजिला दर्रे को पार करने के बाद कारगिल में टैंकों की तैनाती ने युद्ध के अंतिम चरण, नवंबर, 1948 में कारगिल पर कब्जे को सुनिश्चित किया। परंतु जनरल आॅफिसर कमांडिंग, जम्मू एवं कश्मीर (जीओसी, जे. एंड के.) मेजर जनरल के.एस. थिमैया (बाद में चीफ आफ द आर्मी स्टाफ) के नेतृत्व में अत्यंत शानदार ढंग से चलाये गये इस अभियान के लिए लेह को बचाना असंभव हो जाता जिससे हमें पूरा लद्दाख क्षेत्र खोना पड़ता, जो आज देश को उत्तर में सामरिक ऊंचाई प्रदान करता है। बाद के वर्षों में, जब चीन और पाकिस्तान रणनीतिक सहयोगी हो गये और पाकिस्तान ने चीन से परमाणु तकनीक प्राप्त करने के लिए 1963 में सियाचीन क्षेत्र के शक्सगाम इलाके में राज्य के क्षेत्र (अपने नियंत्रण के) का 5280 वर्ग किलोमीटर चीन को उपहार के तौर पर दे दिया तो लेह-कारगिल-श्रीनगर मार्ग का महत्व और बढ़ गया।

लगभग एक दशक बाद, दुर्जेय ऊंचाइयों पर विवादित पहाड़ों में एक और आयाम जुड़ गया, जिससे भारत के लिए द्रास, कारगिल, लेह सेक्टरों के साथ-साथ उससे आगे के क्षेत्रों की सुरक्षा करना और भी जरूरी हो गया। अस्सी के दशक की शुरुआत तक भारतीय खुफिया तंत्र को प्वाइंट एनजे 9842 के पार विशाल ग्लेशियर पर कब्जा करने की पाकिस्तान की मंशा का पता चला। संक्षेप में कहें तो जैसा कि ऊपर बताया गया है, एनओसी को केवल इसी बिंदु तक चिह्नित और प्रमाणित किया गया था। यह संकेत देने के कि ‘इसके बाद, एलओसी, उत्तर की ओर बढ़ेगी,’ के अलावा इसके आगे, न तो मानचित्र, न ही जमीनी स्थिति को चिह्नित/प्रमाणित किया गया था।

1999 के कारगिल संघर्ष की उत्पत्ति 1998 में पाकिस्तान के चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल परवेज मुशर्रफ की लंबे समय से चली आ रही इस धारणा से हुई कि कारगिल के शिखरों पर कब्जा करना एक तीर से दो शिकार होगा

भारत और पाकिस्तान, दोनों ने प्राथमिक तौर पर इस स्थिति को स्वीकार किया क्योंकि यह महसूस किया गया कि इस प्वाइंट से आगे का पहाड़ी क्षेत्र और शत्रुतापूर्ण तत्व किसी भी प्रतिद्वंद्वी द्वारा घुसपैठ को रोक देंगे। हालांकि, बाद के वर्षों में, कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं के कारण भारत में खतरे की घंटी बजने लगी। इसमें अरब सागर में कराची बंदरगाह तक चीन को सीधी पहुंच प्रदान करते हुए काराकोरम राजमार्ग पर निर्माण शामिल था (अब यह इसे चीन द्वारा निर्मित किये जा रहे ग्वादर बंदरगाह से जोड़ने वाले चीन के बहुप्रचारित ‘वन बेल्ट वन रोड’ ओबीओआर पहल के एक हिस्से के तौर पर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा या सीपीईसी का हिस्सा है)। यह सड़क जम्मू एवं कश्मीर के विवादित और कम आबादी वाले उत्तरी क्षेत्र से होकर गुजरती है।

जैसा कि ऊपर की बातों से स्पष्ट है, 1948 में ऐन मौके पर भारत द्वारा कारगिल पर कब्जा करना, तब से ही पाकिस्तान के लिए आंख की किरकिरी बना हुआ है। ऊपर उल्लिखित विभिन्न घटनाक्रमों के कारण तब से ही इसका रणनीतिक महत्व कई गुना बढ़ गया है।

ऊपर उल्लिखित रणनीतिक कारणों के अलावा, जब क्षेत्र के प्रमुख शिखरों पर पाकिस्तानी सेना ने पहले ही कब्जा कर लिया था, तब कारिगल के आसपास के पहाड़ी इलाकों ने रक्षकों को उत्कृष्ट रणनीतिक लाभ प्रदान किये। रक्षकों को उनकी अच्छी तरह से मजबूत पोस्ट से बेदखल कराना हमलावरों के लिए बेहद मुश्किल होगा। इसके अलावा, अत्यंत ऊंचे स्थान और जमाने वाले तापमान के कारण हमलावरों की मुश्किलें कई गुना बढ़ जाएंगी।

कारिगल संघर्ष के शिल्पी जनरल परवेज मुशर्रफ

1999 के कारगिल संघर्ष की उत्पत्ति 1998 में पाकिस्तान के चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल परवेज मुशर्रफ की लंबे समय से चली आ रही इस धारणा से हुई कि कारगिल के शिखरों पर कब्जा करना एक तीर से दो शिकार होगा। सबसे पहले, वह लेह और सियाचीन को श्रीनगर से काटने में सक्षम होंगे, क्योंकि कारगिल सेक्टर के शिखरों पर उनके सैनिकों के कब्जे के परिणामस्वरूप गोलीबारी और निगरानी, दोनों के जरिए श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग (1ए) पर उनका प्रभुत्व हो जाएगा। उनके सोच के अनुसार, यह भारत को एक बड़े रणनीतिक नुकसान में डाल देगा।

दूसरे, अभियान की सफलता, व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें एक दशक पहले, 1987 में सियाचीन में पाक आर्मी ब्रिगेड की कमान संभालते समय हुए अपमान का बदला लेने में सक्षम बनाएगी। दुनिया के सबसे ठंडी और सबसे ऊंची युद्धभूमि में 20,000 फुट की ऊंचाई पर सूबेदार बाना सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने एक अभियान के दौरान पाकिस्तान की कायद पोस्ट पर कब्जा कर लिया था।

कुछ वर्ष पहले, पाकिस्तान के जनरल मुख्यालय में सैन्य अभियान महानिदेशक के रूप में जनरल मुशर्रफ तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को अपनी इस योजना की व्यवहार्यता के बारे में समझाने में विफल रहे थे। उन्होंने तर्क दिया था कि कारगिल के शिखरों पर कब्जे से भारत को भाग्य का साथ मिलेगा। बेनजीर के प्रश्नों, विशेष रूप से भारत की संभावित प्रतिक्रिया और संघर्ष के दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच बड़े टकराव में बदलने की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के रुख के बारे में, मुशर्रफ की ओर से बेतुके उत्तर मिले। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में पारंगत, एक चतुर और अनुभवी राजनीतिक को अपनी योजना मनवाने में उनकी विफलता ने, अस्थायी रूप से ही सही, जैसा कि हम देखेंगे, मुशर्रफ के दिवास्वप्न को चकनाचूर कर दिया।

अब, 1998 में, चीफ आफ आर्मी स्टाफ के रूप में, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ काम करते हुए, स्वयं सेना के समर्थन से, उन्होंने दुस्साहस के साथ अपनी योजना को लागू किया और शरीफ को केवल तभी इसमें शामिल किया जब वह उनके अनुकूल था। यह योजना अनिवार्य रूप से दोनों देशों के बीच युद्ध विराम लागू करने को मंजूरी देने वाले फरवरी 1999 के लाहौर घोषणापत्र के पाकिस्तान द्वारा उल्लंघन किये जाने पर निर्भर थी।

द्रास-कारगिल-तुरतुक सेक्टर में मौजूदा प्रथा के अनुसार, दोनों देशों ने सर्दियों (अक्तूबर से मई के बीच) के दौरान क्षेत्र से अपनी सेनाएं हटा लीं क्योंकि कड़कड़ाती सर्दी, दुर्जेय शिखरों और संचार लाइनों की अनुपस्थिति ने क्षेत्र में एक बड़ी सेना को बनाये रखने को लगभग असंभव बना दिया था, जहां इन महीनों के दौरान तापमान जमाव बिंदु से 40 डिग्री तक गिर जाता है।

निर्णायक मुठभेड़

मई, 1999 में, कारगिल के आसपास के इलाके एक लंबी और ठिठुरती सर्दियों के बाद स्थानीय चरवाहों के लिए सुलभ हो गये, जो अपने मवेशियों को यहां चराने लाते थे। 3 मई को, इन चरवाहों ने बताया कि आमतौर पर पाकिस्तानी मुजाहिदीनों द्वारा पहने जाने वाले सामान्य कपड़े पहने कुछ लोगों को शहर पर निगरानी करने वाले कुछ शिखरों पर कब्जा करते देखा गया है, यह घटना क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए बिल्कुल नई थी। जब ये खबरें, शहर में चर्चा का विषय बनीं तो खुफिया एजेंसियों ने अपने स्वयं के स्रोतों को सक्रिय करना शुरू किया।

5 मई को, मामले की जांच के लिए सेना द्वारा भेजे गये गश्ती दल के कैप्टन सौरभ कालिया समेत पांच जवानों को शिखरों पर कब्जा कर रहे पाकिस्तानी सैनिकों ने पकड़ लिया (बाद में उन्हें बड़ी बेरहमी से मार डाला गया)। कुछ दिनों बाद, 9 मई को, पाकिस्तानी तोपखाने ने कारगिल में हमारे गोला-बारूद भंडार पर गोलाबारी की, जिसमें कुछ क्षति हुई। आगे जांच के लिए भेजे गये कई गश्ती दलों ने बताया कि पाकिस्तानी सैनिकों ने नियंत्रण रेखा से हमारी तरफ द्रास, मश्को, काकसर, तुरतुक और बटालिक में बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है।

बाद की रिपोर्टों से पुष्टि हुई कि घुसपैठिये हमारी तरफ की नियंत्रण रेखा के 4 से 6 किलोमीटर तक अंदर दक्षिण से उत्तर तक 160 किलोमीटर के दायरे में घुस आये हैं। जब मीडिया ने घुसपैठ को उजागर किया तो यह बयान जारी करते हुए पूरे मामले से पाकिस्तान ने पल्ला झाड़ लिया कि ये ‘कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानी’ उर्फ मुजाहिदीन थे और पाकिस्तान का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि, इस स्थिति में भी, भारतीय गश्ती दल शिखरों पर कब्जे में पाकिस्तानी सेना के सीधे शामिल होने के महत्वपूर्ण सुराग ले आये थे।

अब तक, दिल्ली में सेना मुख्यालय को यह स्पष्ट हो चुका था कि इतने व्यापक मोर्चे पर इतने बड़े पैमाने पर घुसपैठ उग्रवादियों द्वारा नहीं की जा सकती। इस पहाड़ी इलाके को अच्छी तरह से प्रशिक्षित सैनिकों की आवश्यकता थी जो 16,000 फुट से अधिक की ऊंचाई पर खुद को बनाये रखने और 18,000 फुट की ऊंचाई तक जाने के लिए अत्यधिक अनुकूलित हों। कब्जा करने वाली सेना को लंबी दूरी तक एक अत्यधिक सुव्यवस्थित रसद समर्थन प्रणाली की आवश्यकता भी होगी। इसमें राशन, ईंधन, हथियार, गोला-बारूद और सुदृढ़ीकरण शामिल है।

आगामी दिनों में यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत एकत्र किये गये कि पाकिस्तान ने दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए अपनी उत्तरी लाइट इन्फैन्ट्री की यूनिटों को गैर-लड़ाकू कपड़े पहनाकर तैनात किया है। कारगिल से एक सड़क (1949 में बंद) के जरिये जुड़े 173 किलोमीटर दूर स्कर्दू में इसकी सुस्थापित चौकी ने अभियान के समर्थन के लिए रसद हब के रूप में काम किया।

पाकिस्तानी हताहतों द्वारा छोड़े गये दस्तावेजों और बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ एवं खुद जनरल मुशर्रफ के बयानों ने मेजर जनरल अशरफ राशिद के नेतृत्व वाली पाकिस्तान की नॉर्दन लाइट इन्फैन्ट्री के शामिल होने की बात को स्थापित किया। बाद में आईएसआई की विश्लेषण शाखा के प्रमुख ने इसकी पुष्टि की जब जनवरी, 2013 में द नेशन में अपने आलेख में लिखा कि ‘कोई मुजाहिदीन नहीं था, केवल टेप किये गये वायरलेस संदेश थे, जिनसे कोई बेवकूफ नहीं बना। हमारे सैनिकों ने हाथ में लिये जाने वाले हथियारों और गोला-बारूद के जरिए बंजर पहाड़ियों पर कब्जा किया था।’

युद्ध के चरम के समय, नजर में आने वाली चौकियों में से घुसपैठियों को निकालने के लिए लगभग 250 आर्टिलरी बंदूकें लायी गयीं। हालांकि कई इलाकों में बोफोर्स की सफलता सीमित रही क्योंकि उनकी तैनाती के लिए आवश्यक स्थान एवं गहराई का अभाव था। इन कमजोरियों से बचने के लिए भारतीय वायुसेना ने ‘आपरेशन सफेद सागर’ शुरू किया जिसमें दुश्मन की किलेबंदी को निशाना बनाने के लिए मुख्य रूप से मिग 21, मिग 27 और एमआई 17 हेलिकॉप्टरों को तैनात किया गया।

हालांकि, अत्यधिक ऊंचाई ने बम लोड करने की उनकी क्षमता और उपयोग की जा सकने वाली हवाईपट्टियों की संख्या को सीमित कर दिया। हमले के दौरान भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तानी सेना की मजबूत स्थितियों को नष्ट करने के लिए लेजर-निर्देशित बमों का उपयोग किया। ऐसा अनुमान है कि केवल हवाई कार्रवाई में ही लगभग 700 घुसपैठिये मारे गये। 27 और 28 मई को, भारत को दो विमानों का नुकसान उठाना पड़ा (इंजन फेल होने से एक मिग 27 और दुश्मन की हवाई बचाव कार्रवाई में एक मिग 21 और एमआई 17 हेलिकॉप्टर)। 1 जून को पाकिस्तानी आर्टिलरी ने काफी व्यापक मोर्चे पर राष्ट्रीय राजमार्ग 1ए पर गोलाबारी की।

अंतत:, 6 जून को भारतीय सेना ने सभी मोर्चों पर व्यापक हमला बोला और 9 जून तक बटालिक सेक्टर में दो महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा कर लिया। तोलोलिंग पर कब्जे ने बाद में धीरे-धीरे युद्ध के संतुलन को भारत के पक्ष में झुका दिया। इसके बावजूद, कई चौकियों पर कड़ा प्रतिरोध हुआ जिसमें टाइगर हिल (प्वाइंट 5140) शामिल था जिस पर बाद में कब्जा हो पाया। भारतीय सैनिकों को कुछ अब तक अनसुनी चोटियों पर हमला करना पड़ा था; जिनमें अधिकांश को केवल उनकी ऊंचाई से चिह्नित किया जा रहा था (सर्वे मानचित्र में प्वाइंट नंबर के रूप में ज्ञात)। इसमें भीषण आमने-सामने की लड़ाई देखी गयी।

सैन्य रणनीतियों के आधार पर, यदि सेना ने विरोधी सेना के आपूर्ति मार्ग को अवरुद्ध करने, वस्तुत: उनके चारों ओर घेराबंदी का विकल्प चुना होता तो अधिकांश मंहगे फ्रंटल हमलों से बचा जा सकता था। हालांकि इस तरह के कदम में भारतीय सैनिकों को नियंत्रण रेखा पार करनी पड़ती, साथ ही पाकिस्तानी जमीन पर हवाई हमले शुरू करने पड़ते, परंतु युद्ध क्षेत्र का विस्तार होने और अपने मामले के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन घटने के भय से भारत इस तरह की कवायद का इच्छुक नहीं था।

युद्ध के चरम के समय, नजर में आने वाली चौकियों में से घुसपैठियों को निकालने के लिए लगभग 250 आर्टिलरी बंदूकें लायी गयीं। हालांकि कई इलाकों में तैनाती के लिए आवश्यक स्थान एवं गहराई की कमी से बोफोर्स की सफलता सीमित रही

इस बीच, भारतीय नौसेना ने भी आपूर्ति मार्ग को काटने के लिए पाकिस्तानी बंदरगाहों (मुख्य रूप से कराची बंदरगाह) को अवरुद्ध करने के प्रयास के लिए स्वयं को तैयार कर लिया था। बाद में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने खुलासा किया कि यदि पूर्ण युद्ध छिड़ गया होता तो स्वयं को टिकाये रखने के लिए पाकिस्तान के पास केवल छह दिन का ईंधन बचा था। चूंकि पाकिस्तान ने जब स्वयं को मुश्किल स्थिति में फंसा पाया, तो बताया जाता है कि पाकिस्तानी सेना ने गुप्त रूप से भारत पर परमाणु हमले की योजना बनाई।

इस खबर ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को सतर्क कर दिया, फलस्वरूप शरीफ को कड़ी चेतावनी दी गई। दो महीने के संघर्ष में, भारतीय सैनिकों ने धीमे-धीमे पाकिस्तान द्वारा गुप्त रूप से कब्जाई गई अधिकांश पर्वतश्रेणियों को अपने कब्जे में ले लिया; एक आधिकारिक गणना के अनुसार, घुसपैठ क्षेत्र का अनुमानत: 75-80 प्रतिशत हिस्सा और प्रभुत्व वाली लगभग सारी भूमि भारतीय नियंत्रण में वापस आ गयी।

4 जुलाई को वाशिंगटन समझौते, जिसमें शरीफ पाकिस्तान समर्थित सैनिकों को हटाने के लिए राजी हुए, के बाद, अधिकांश लड़ाई धीमे-धीमे थम गयी। 26 जुलाई, 1999 को युद्ध की समाप्ति तक, भारत ने शिमला समझौते के अनुरूप जुलाई 1972 में स्थापित नियंत्रण रेखा के दक्षिण एवं पूर्व के सभी क्षेत्रों का नियंत्रण हासिल कर लिया था।

निष्कर्ष

सैन्य इतिहास के वृतांत में हाड़ जमा देने वाली ठंड में इतनी दुर्जेय ऊंचाइयों पर शायद ही कभी सैनिकों ने जमीनी हमला किया हो। यह अंतत: भारतीय सैनिकों का अदम्य साहस ही था जिसकी वजह से भारत ने सभी बाधाओं के बावजूद जीत हासिल की। इसके चार सैनिकों को देश के सर्वोच्च युद्धकालीन वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से और 11 दूसरे फौजियों को सर्वोच्च वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
(लेखक सैन्य मामलों के जानकार हैं)

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