अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में (जो कुछ चुनिंदा देशों के पास थी) इस उपलब्धि से विश्व में जहां भारत की साख बढ़ी, वहीं भारतीय वैज्ञानिकों का आत्मविश्वास भी बढ़ा। के लिए चंद्र की सतह से 100 किमी. की ऊंचाई से परिक्रमा कर रहा था।
पृथ्वी की कक्षा से बाहर भारत का यह पहला सफल अंतरिक्ष अभियान था। इसका उद्देश्य केवल चंद्रमा के चारों ओर घूमते हुए इसके वातावरण और सतह पर रासायनिक तत्वों, खनिजों और फोटो-भूगर्भिक मानचित्रण करना था। इसके द्वारा भेजे गए गुणवत्तापूर्ण आंकड़ों से न केवल चंद्रमा के रहस्यों को जानने में मदद मिली, बल्कि विश्व के वैज्ञानिकों को नई जानकारियां भी मिलीं। चंद्रयान-1 को 2 वर्ष तक काम करना था, लेकिन 8 महीने में ही इसने अभियान के अधिकांश लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा कर लिया था। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में (जो कुछ चुनिंदा देशों के पास थी) इस उपलब्धि से विश्व में जहां भारत की साख बढ़ी, वहीं भारतीय वैज्ञानिकों का आत्मविश्वास भी बढ़ा। के लिए चंद्र की सतह से 100 किमी. की ऊंचाई से परिक्रमा कर रहा था। इसमें भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन और बुल्गारिया निर्मित 11 वैज्ञानिक उपकरण लगे हुए थे। लेकिन यान से संपर्क टूटने के बाद मिशन खत्म हो गया। 2017 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने इसे फिर से ढूंढ लिया था। नासा के अनुसर, चंद्रयान-1 अब भी चंद्रमा की सतह से 200 किमी ऊपर चंद्रमा की कक्षा में परिक्रमा कर रहा है।
चंद्रमा पर लगभग 1.7 किमी लंबी और 120 मी. चौड़ी एक क्षैतिज गुफा (लावा क्यूब) जैसी संरचना खोजी। 312 दिन तक काम किया और चंद्रमा की सतह की 70,000 से अधिक तस्वीरें भेजीं। चंद्रमा के धु्रवीय क्षेत्र के स्थायी अंधेरे व ठंडे हिस्से में बर्फ, पहाड़ों व क्रेटर की तस्वीरें भी भेजीं। चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर मौजूद रासायनिक तत्वों, खनिजों व पानी की उपस्थिति के गुणवत्तापूर्ण आंकड़ों भेजे, जिसके अध्ययन के बाद चंद्रमा पर बर्फ होने की पुष्टि हुई।
यह पूरी तरह से स्वदेशी और चंद्रयान-1 का उन्नत संस्करण था। इस मिशन के तहत पहली बार इसरो ने चंद्रमा पर आर्बिटर, रोवर और लून लैंडर भेजा था। इसमें 13 पे-लोड थे, जिनमें 8 आर्बिटर में, 3 लैंडर और 2 रोवर में थे। आर्बिटर से लैंडर अलग होकर चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर रोवर ‘प्रज्ञान’ तैनात करता, जो लैंडर के आसपास रह कर 14 दिन तक तस्वीरें लेता, जबकि आर्बिटर एक वर्ष चंद्रमा की परिक्रमा करता। यान का वजन लगभग 600 किलो बढ़ाया गया था ताकि लैंडर से रोवर के उतरने के बाद बाहरी हिस्सा हिले नहीं। लैंडर का नाम इसरो के वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम’ रखा गया था। चंद्रयान-1 की तरह चंद्रयान-2 भी चंद्रमा से 100 किमी. दूर से उसकी परिक्रमा करता, जबकि रोवर सतह पर घूम कर तस्वीरें लेता और मिट्टी का अध्ययन करता। लेकिन लैंडिंग से लगभग लगभग 2.1 किमी की दूरी पर यह अपने निर्दिष्ट पथ से भटक गया और अंतरिक्ष यान के साथ इसका संपर्क टूट गया। 8 सितंबर, 2019 को आर्बिटर द्वारा लिए गए थर्मल इमेज से लैंडर का पता चल गया, लेकिन चंद्रयान से संपर्क नहीं हो सका और इसरो का महत्वाकांक्षी अभियान विफल हो गया। यह अंतरिक्ष यान इस समय धरती के निकटतम बिंदु 169.7 किमी और धरती से दूरस्थ बिंदु 45,475 किमी पर पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगा रहा है।
इसरो का यह तीसरा चंद्र अभियान है। दूसरी बार चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग की कोशिश है। 23 या 24 अगस्त को यह दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा। किसी कारणवश इन दो तारीखों पर लैंडिंग संभव नहीं हुआ, तो सितंबर में एक प्रयास किया जाएगा। यदि मिशन सफल रहा तो भारत स्वदेश निर्मित अंतरिक्ष यान को चंद्रमा के दक्षिण दक्षिणी ध्रुव पर उतारने वाला विश्व का पहला तथा अमेरिका, सोवियत संघ और चीन के बाद चंद्रमा पर नियंत्रित रोबोट लैंडिंग करने वाला चौथा देश बन जाएगा। इसमें स्वदेशी लैंडर मॉड्यूल, प्रोपल्शन मॉड्यूल और एक रोवर है। इसमें चंद्रयान-2 की तरह ही लैंडर (विक्रम) और रोवर (प्रज्ञान) हैं, लेकिन आर्बिटर नहीं है। लैंडर को अधिक ईंधन से लैस किया गया है ताकि आवश्यकतानुसार लैंडिंग स्थल या वैकल्पिक स्थानों तक लंबी दूरी तक जा सके। चंद्रयान-2 में दो सौर पैनल थे, जबकि चंद्रयान-3 में चारों तरफ सौर पैनल लगे हैं। साथ ही, लैंडर की गति की निगरानी और आवश्यक सुधार के लिए यान में अतिरिक्त नेविगेशनल एवं मार्गदर्शन उपकरण लगाए गए हैं। यान के प्रणोदन मॉड्यूल में एक नया प्रयोग किया गया है, जिसे स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री आफ हैबिटेबल प्लैनेट अर्थ कहा जाता है। इसका उद्देश्य परावर्तित प्रकाश का विश्लेषण कर संभावित रहने योग्य छोटे ग्रहों की खोज करना है।
Leave a Comment