जब भी अल्पसंख्यक समुदाय की बात की जाती है तो वैश्विक परिद्रश्य में भी इस्लाम और इसाई या फिर यहूदियों पर आकर बात समाप्त हो जाती है, और अल्पसंख्यकों की परिभाषा को जैसे इन्हीं तीनों तक सीमित कर दिया जाता है। परन्तु क्या वैश्विक स्तर पर अल्पसंख्यकों की पीड़ा के विमर्श पर इन्हीं का विमर्श रहेगा या फिर और भी ऐसे समुदाय हैं, जिनकी स्त्रियों की पीड़ा का विमर्श वैश्विक पटल पर आना चाहिए।
एक बड़ा समुदाय, जो विश्व में अल्पसंख्यक है और जिसने एक नहीं कई नरसंहार (जीनोसाइड) का सामना किया है और जो लगातार कर रहा है, उसकी स्त्रियों और लड़कियों का विमर्श भी वैश्विक पीड़ा में सम्मिलित नहीं हो पा रहा है। वह समुदाय है इराक की पहाड़ियों में रहने वाला यजीदी समुदाय, जिसका नवीनतम जीनोसाइड कुछ ही वर्ष पूर्व हुआ था। वर्ष 2014 में जब आईएसआईएस ने उन पर हमला कर दिया था और उन्हें अपनी जान बचाने के लिए सिंजर की पहाड़ियों पर जाना पड़ा था।
यजीदी समुदाय सैकड़ों वर्षों से जीनोसाइड का सामना कर रहा है। जिनमें नवीनतम आईएसआईएस द्वारा किया गया संहार था। इराक के सिंजर क्षेत्र पर आईएसआईएस ने वर्ष 2014 के अगस्त में हमला कर दिया था और फिर वहां से लगभग 4 लाख यजीदी लोग इराक के कुर्दिस्तान क्षेत्र में जाने के लिए बाध्य हुए थे तो वहीं कुछ हजार लोग सिंजर की पहाड़ियों पर फंस गए थे, जहां वह भूखे प्यासे फंसे रहे। जो न सिंजर की पहाड़ियों पर जा सके और न ही पड़ोसी कुर्दिस्तान, वह आईएसआईएस की गोलियों का शिकार हुए या फिर उनका पंथ बदलवा लिया गया और जो काफिर यजीदी लड़कियां पकड़ी गईं, उन्हें सेक्स स्लेव बना लिया गया।
वर्ष 2014 में हुए इस जघन्य संहार में 6000 से अधिक लड़कियों को आईएसआईएस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यही है कि उनमें से लगभग 3000 लड़कियों का अभी तक पता नहीं चला है। क्या ऐसा हो सकता है कि विश्व के एक क्षेत्र से 6000 से अधिक लड़कियों का अपहरण मजहबी आधार पर कर लिया जाए, उनमे से कई लड़कियों को मात्र इसलिए जिंदा जला दिया जाए कि उन्होंने सेक्स स्लेव बनना स्वीकार नहीं किया और वैश्विक स्त्री विमर्श में सन्नाटा बना रहे?
पता नहीं कितने लोगों को वह दृश्य याद होगा, जब टीवी में वह जलता हुआ पिंजरा दिखाया जा रहा था। आखिर उन जलते हुए पिंजरों में और कोई नहीं बल्कि जिंदा यजीदी महिलाएं थीं, जिन्हें जला दिया गया था। हाड़-मांस की लड़कियां!
लेकिन इन लड़कियों की चीखें अभी तक वैश्विक विमर्श वह स्थान पा ही नहीं पाई हैं, जो पाना चाहिए था। न ही उन पर फेमिनिस्ट कविताएँ लिखी गईं और न ही फेमिनिस्ट विमर्श हुआ। क्या वह जलाई गयी लड़कियां इसलिए भुला दी जानी चाहिए क्योंकि यदि उनके पक्ष में कुछ बोला गया तो इस्लामोफोबिया का टैग लग जाएगा? आज भी कई वीडियो उभरकर आते हैं, जिनमें 2014 में गुलाम बनाई गयी यजीदी लड़कियों को छुड़ाया जा रहा है और जब वह परिवार में आकर मिल रही हैं, तो उनके चेहरे से अद्भुत भाव उभर कर आ रहे हैं।
यजीदी अपने पंथ की शुद्धता को लेकर बहुत आग्रही होते हैं, इनका मानना यही है कि यजीदी जन्म से ही होते हैं और उनका कन्वर्जन संभव नहीं है और इनकी अपनी मान्यताएं हैं, जो अब्राह्मिक मतों की अवधारणा से मेल नहीं खाती हैं। और अपने विशिष्ट विश्वासों का पालन करने वाला यह समुदाय तिहत्तर (73) बार जीनोसाइड का शिकार हो चुका है।
इसी जीनोसाइड का शिकार समुदाय की नादिया मुराद को वर्ष 2018 का नोबल सम्मान दिया गया था। नादिया की भी पीड़ा यही है कि इन महिलाओं की पीड़ा क्यों विश्व के सामने नहीं आ पाती है। नादिया उत्तरी ईराक में कोजो के गाँव में रहती थीं। वह यजीदी समुदाय की सदस्य थीं। आईएसआईएस की विचारधारा के लोग यजीदी समुदाय को शैतान पूजक मानते हैं और यह भी मानते हैं कि उनकी हत्या की जानी चाहिए। 21 वर्षीय नादिया और कई और युवा लड़कियों का अपहरण कर लिया गया और हजारों पुरुषों की हत्या कर दी गयी।
नादिया भाग्यशाली थीं, कि वह इस यातना के दौर से बाहर निकल कर भागने में सफल हुईं और वह वर्ष 2015 में जर्मनी पहुँच गईं। मगर नादिया जैसी और कई लड़कियां सफल नहीं हो पाईं और वह आज भी गुमशुदा हैं। वह गुमशुदा हैं, मगर इतनी संख्या में लड़कियों का अपहरण उनकी मजहबी और लैंगिक पहचान के चलते होता है और उन पर तमाम वह अत्याचार होते हैं, जिनकी गणना नहीं, जिनकी कल्पना नहीं की जा सकती है, उन्हें सेक्स स्लेव बनाने के लिए उनकी मूलभूत स्वतंत्रता को छीना गया।
उन्हें परिवार से अलग किया गया, परिवार वालों को मारा गया और फिर उन्हें एक से दूसरे के पास बेचा गया। यह मानवता के नाम पर सबसे बड़ा तमाचा है। अभी तक ईराक में सिंजर की पहाड़ियों पर सामूहिक कब्रें मिलती हैं। नादिया की वेबसाईट nadiasinitiative.org पर आईएसआईएस द्वारा जीनोसाइड की पूरी रणनीति बताई है, जिसमें पुरुषों और उन महिलाओं का क़त्ल शामिल है, जो वृद्ध हो चुकी हैं। और इस प्रकार सिंजर की पहाड़ियों में 80 सामूहिक कब्रें भी मिली थीं।
महिलाओं और बच्चों का अपहरण, लड़कियों को गुलाम बनाना और लड़कों का ब्रेन वाश करके आतंकवादी बनाना। जिन्हें गुलाम बनाया है, उन पर यौनिक एवं शारीरिक हिंसा करना। और यजीदी महिलाओं का बलात्कार करना जिससे उनसे पैदा होने वाले बच्चे मुस्लिम हों।
दुर्भाग्य की बात यही है कि इस पीड़ा को, महिलाओं के साथ हुए इस जघन्य अत्याचार पर विमर्श में एक चुप्पी छाई है। यह चुप्पी किसलिए है? यहाँ तक कि जितने लोगों को मलाला का नाम पता होगा, उनमे से पांच प्रतिशत तक लोगों को नादिया का नाम नहीं पता होगा। नादिया के विचारों को लोग नहीं जानते होंगे। जितनी कविताएँ मलाला पर लिखी गईं, उनमें से कितनी कविताएँ नादिया जैसी लड़कियों पर लिखी गईं? कितनी कविताएँ उन ढाई हजार से अधिक लड़कियों पर लिखी गईं, जो अभी तक मिली नहीं हैं या फिर पिंजरे में जिंदा जलाई गई कितनी लड़कियां वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन सकीं?
कोई भी उस दिन को याद नहीं करता है, जिस दिन इन्हें जिंदा जलाया गया था। क्या ये लड़कियां महिला विमर्श में कभी स्थान पा पाएंगी? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है और वर्तमान में जिस प्रकार महिलाओं को लेकर विमर्श हो रहा है, उसमें यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
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