शिमला से नारकण्डा लगभग 60 किलोमीटर दूर है लेकिन पहाड़ी टेढे़-मेढ़े रास्तों पर गाड़ी बहुत तेजी से नहीं चलायी जा सकती। रास्ते में पड़ने वाले हर प्राकृतिक दृश्य का आनन्द लेते हुए हम लगभग 12 बजे नारकण्डा पहुंचे। कुछ दूर आगे जाकर हमें सतलुज नदी मिल गयी।
हम हिमाचल प्रदेश में उस जगह की यात्रा पर थे जो प्राकृतिक सुन्दरता से भरी हुई है। हमें लगभग दस दिन तक किन्नौर का भ्रमण करना था। किन्नौर में एक से एक सुन्दर और रमणीय स्थल हैं जिन्हें देखकर खुशी और अचरज, दोनों होते हैं। शिमला से नारकण्डा लगभग 60 किलोमीटर दूर है लेकिन पहाड़ी टेढे़-मेढ़े रास्तों पर गाड़ी बहुत तेजी से नहीं चलायी जा सकती। रास्ते में पड़ने वाले हर प्राकृतिक दृश्य का आनन्द लेते हुए हम लगभग 12 बजे नारकण्डा पहुंचे। कुछ दूर आगे जाकर हमें सतलुज नदी मिल गयी। हम जिस सड़क से यात्रा कर रहे थे, वह सतलुज के समानान्तर ही चल रही थी। इस सड़क को हिन्दुस्थान-तिब्बत रोड भी कहते हैं, जो तिब्बत की सीमा तक जाती है।
दत्तनगर, रामपुर बुशहर, जेवरी होते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हमें जो सड़क मिली, उसे दुनिया की खतरनाक सड़कों में शुमार किया जा सकता है। यह सड़क सौन्दर्य सीधी-सपाट सैकड़ों मीटर चट्टानों को बीच में से काटकर बनायी गयी थी। सड़क बहुत चौड़ी नहीं थी, केवल एक वाहन के आने-जाने लायक ही थी पर बीच-बीच में सामने से आने वाले वाहनों को जगह देने के लिए थोड़ी जगह बना दी गयी थी।
साथ के लोगों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं और वे आंखों ही आंखों में इशारे करके यह जानने में लगे थे कि इतनी खतरनाक सड़क पर मैं गाड़ी चला पाऊंगा या नहीं। मैं बहुत सावधानी से गाड़ी चला रहा था पर पश्चाताप भी कर रहा था कि ऐसी जगह मेरे हाथ में स्टेयरिंग नहीं, कैमरा होना चाहिए था। रास्तों के नाम भी हमें अजीब लग रहे थे – सुंगरा, वांगटू, चूलिंग, सोंगठोंग।
किन्नौर में देखने के लिए बहुत कुछ है। यहां आने के लिए बस, टैक्सी या कार का प्रयोग किया जा सकता है। किन्नौर सेब के बागीचों के लिए भी जाना जाता है। यहां किसी भी जगह रात्रि विश्राम करना हो, होटल कम पैसों में भी मिल जाते हैं। खाने-पीने की भी कोई समस्या नहीं आती।
शाम होते-होते हम सोंगठोंग पहुंचे। यहां के एक अतिथि भवन में हमने रात्रि विश्राम किया। खाना खाने के बाद थके-हारे सब बिस्तर के अन्दर चले गये। अगले दिन सुबह ही नाश्ता करने के बाद हम सब आगे निकल पड़े। आगे की यात्रा में हमें लगातार ऊंचाई की ओर ही जाना था। पोवारी से आगे दुरुह पहाड़ी रास्तों को पार करते हुए हम रेकांगपियो पहुंचे। रेकांगपियो में जिस गेस्ट हाउस में हमें रुकना था, उसे देखकर आंखों को विश्वास ही नहीं हुआ।
अर्धचन्द्राकार आकृति में बनाये गये इस गेस्ट हाउस के पीछे किन्नौर कैलास पर्वत की ऊंची-बर्फीली चोटियां थीं। यहां हमें पता चला कि किन्नौर कैलास पर्वत पर 80 फुट ऊंचा पत्थर का एक प्राकृतिक शिवलिंग है और इसका दर्शन करने के लिए लोग 5-6 दिनों की पैदल यात्रा करते हैं। पहले तो यहां की बस्तियों के नाम ही आश्चर्य में डाल रहे थे। हमारे यात्री दल को भी ऐसा ही लगा, जब बताया गया कि रेकांगपियो आने वाला है। एक ने हैरानी जताई, क्या कहा? रेकांगपियो?
किन्नौर में देखने के लिए बहुत कुछ है। यहां आने के लिए बस, टैक्सी या कार का प्रयोग किया जा सकता है। किन्नौर सेब के बागीचों के लिए भी जाना जाता है। यहां किसी भी जगह रात्रि विश्राम करना हो, होटल कम पैसों में भी मिल जाते हैं। खाने-पीने की भी कोई समस्या नहीं आती।
रेकांगपियो के बाद हमें कई जगह घूमना था पर हमने सबसे पहले सांगला जाने का निर्णय लिया। सांगला जाने के लिए पीछे लौटते हुए सोंगठोंग से भी आगे जाकर करचम नामक जगह पर सतलुज नदी को पार करना पड़ता है। करचम से जब हम आगे बढ़े और सड़क ऊंचाई की ओर जाने लगी तो एक बार फिर सारे यात्री अपनी अपनी सांसें रोककर बाहर के दुर्गम दृश्य का आनन्द लेने लगे।
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