बिहार में ईसाई मत का प्रवेश 17वीं शताब्दी में हुआ था। इसके बाद लोभ-लालच से बड़ी संख्या में लोगों को ईसाई बनाया गया। इसके साथ ही राज्य में ईसाई मत का प्रभाव भी बढ़ा। इसके बावजूद बिहार के इन ईसाइयों को वह अधिकार नहीं मिला, जिसका उन्हें सपना दिखाया गया था। इस अधिकार को वे ईसाई ही मार रहे हैं, जो लोगों को ईसाई बनाने में लगे हैं।
माना जाता है कि बिहार में ईसाई मत का प्रवेश 17वीं शताब्दी में हुआ था। इसके बाद लोभ-लालच से बड़ी संख्या में लोगों को ईसाई बनाया गया। इसके साथ ही राज्य में ईसाई मत का प्रभाव भी बढ़ा। इसके बावजूद बिहार के इन ईसाइयों को वह अधिकार नहीं मिला, जिसका उन्हें सपना दिखाया गया था। इस अधिकार को वे ईसाई ही मार रहे हैं, जो लोगों को ईसाई बनाने में लगे हैं। इस कारण आज बिहार के ईसाइयों की स्थिति किसी गुलाम से कम नहीं है। उन्हें न तो चर्च संचालित संस्थानों में विशेष शिक्षा मिलती है और न ही नौकरी। दक्षिण भारतीय ईसाई बिहार के ईसाइयों को दबाकर रखते हैं।
बिहार में प्रारंभ से ही रोमन कैथोलिक ईसाइयों का वर्चस्व रहा है। इसे समझने के लिए डायोसिस पर नजर डालना जरूरी है। पटना डायोसिस में 5 प्रांत हैं—बक्सर, भागलपुर, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर और बेतिया। इन सभी में दक्षिण भारतीय पादरी ही बिशप हैं। केवल मुजफ्फरपुर एक अपवाद है। पटना के आर्चबिशप सेबस्टियन कल्लुपुरा हैं। ये मूलत: केरल के हैं। वे 30 जून, 2018 को आर्चबिशप बने। इसके पहले वे बक्सर प्रांत के बिशप थे। अभी बक्सर के बिशप हैं फादर जेम्स शेखर। ये भी तमिलनाडु के हैं। भागलपुर के बिशप कुरियन वालियाकांदाथिल केरल के हैं।
3 श्रेणियां
पहली, अगड़ी और पिछड़ी जाति से ईसाई बने लोग
दूसरी, दलित ईसाई
तीसरी, जनजाति ईसाई।
दलित ईसाइयों की संख्या सर्वाधिक है।
ये कुल ईसाइयों के 60 प्रतिशत से अधिक हैं,
लेकिन नौकरी में प्राथमिकता जनजाति ईसाइयों
को दी जाती है, जिनकी संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं है।
एक वैश्विक संस्था है कैरितास। भारत में यह ‘कैरितास इंडिया’
के नाम से काम करती है। यह सीबीसीआई(कैथोलिक बिशप
काउंसिल आफ इंडिया) से सम्बद्ध है। यह संस्था ईसाई संगठनों को वित्तीय मदद देती है। पटना के दीघा में इसका कार्यालय है। यहां भी बिहार का कोई ईसाई काम नहीं करता है।
पूर्णिया प्रांत में वर्तमान में कोई बिशप नहीं है। मुजफ्फरपुर के बिशप केजिटन फ्रांसिस ओस्टा मूल रूप से झारखंड के हैं। हालांकि इनकी शिक्षा बेतिया और मुजफ्फरपुर में हुई है। इसलिए इन्हें बिहार का कहा जा सकता है। बेतिया के बिशप हैं फादर पीटर सेबस्टियन गोवियस। ये कर्नाटक के हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में दक्षिण भारतीय पादरियों का बोलबाला है। बिहार के हेनरी ठाकुर इन दिनों रायपुर के आर्चबिशप हैं। उन्हें छोड़कर आज तक बिहार का कोई भी ईसाई चर्च के बड़े पदों पर नहीं रहा है।
बिहार में अनेक ईसाई संस्थान हैं। इनमें शिक्षण संस्थान और अस्पताल हैं। इन सभी संस्थानों के शीर्ष पदों पर बिहार का शायद ही कोई ईसाई हो। यहां तक कि गरीब ईसाइयों के बच्चों को भी मिशनरी विद्यालयों में शुल्क में छूट लेने में बड़ी परेशानी होती है। यही स्थिति पटना के कुर्जी, मोकामा के नजारथ जैसे अस्पतालोें की है।
पटना के बहुचर्चित सेंट माइकल स्कूल के प्राचार्य हैं फादर क्रिस्टु सेवेराजन एसजे और सेंट जेवियर्स के प्राचार्य हैं फादर के पी डोमेनिक एसजे। ये दोनों स्कूल ‘सोसाइटी आफ जीसस’ द्वारा संचालित हैं। लंबे समय से दक्षिण भारतीय ही इन दोनों विद्यालयों के प्राचार्य हैं। इसी प्रकार संत जोसेफ कान्वेंट हाई स्कूल की प्राचार्य हैं सिस्टर जोसफिन, जो दक्षिण भारतीय हैं। पटना की नार्टेडम एकेडमी की प्राचार्य सिस्टर नेहा हों या हेड मिस्ट्रेस सिस्टर मैरी रोजमेरी, दोनों दक्षिण भारतीय हैं। माउंट कार्मेल हाई स्कूल की प्राचार्य सिस्टर एम मृदुला एसी और लोयला के प्राचार्य ब्रदर वाई सुधाकर रेड्डी भी दक्षिण भारतीय हैं। पटना वीमेंस कॉलेज की प्राचार्य डॉ. सिस्टर एम रश्मि एसी भी दक्षिण भारतीय हैं।
भागलपुर डायसिस द्वारा 42 अस्पताल और 70 से अधिक विद्यालय चलाए जाते हैं। इन सबके प्रमुख पदों पर दक्षिण भारतीय ईसाई ही काम करते हैं। पटना का कुर्जी होली फैमिली अस्पताल काफी चर्चित हैै। यहां की अधिकतर नर्स दक्षिण भारतीय हैं। यहां नर्स को प्रशिक्षित भी किया जाता है, लेकिन प्रशिक्षण लेने वाली नर्सों में शायद ही कोई बिहार की हो। यहां मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय और पूर्वोत्तर की ईसाई महिलाओं को नर्स का प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां की कैंटीन का संचालन भी 12 वर्ष तक केरल के एक व्यक्ति ने ही किया था। अस्पताल परिसर में रवि भारती सेवा संस्था की गतिविधियां चलती थीं, जो अब बंद कर दी गई हैं। इसमें काम करने वाली मीना दीदी पटना की बांसकोठी में रहती हैं।
वे आज दाने-दाने को मोहताज हैं। उनके बच्चे बहुत कठिनाई से जीवन व्यतीत कर रहे हैं, लेकिन किसी भी पादरी का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। पटना में दीघा का मरियम टोला व कुर्जी की बांसकोठी तथा मोकामा का मोदनगाछी ऐसी बस्तियां हैं, जहां ईसाई संस्थानों में कार्य करने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी रहते हैं। जैसे रसोईया, दरबान, माली, सफाई कर्मचारी आदि। इन्हें ईसाई संस्थानों यथा सेंट माइकल हाई स्कूल, दीघा; कुर्जी होली फैमिली हॉस्पिटल; नजारथ हॉस्पिटल, मोकामा इत्यादि के समीप बसाया गया था। इन कर्मचारियों ने यहां की जमीन को पाई-पाई जोड़कर चर्च से खरीद लिया है। 100 वर्ष के बाद भी यहां रहने वाले लोगों की स्थिति जस की तस है। अब तो यहां रहने वाले ईसाइयों को चर्च की संस्थाओं में नौकरी तक नहीं मिलती। वहीं दूसरी ओर बिहार में काम करने वाले पादरी शानो-शौकत की जिंदगी जीते हैं।
ईसाई संस्थानों के शीर्ष पदों पर बिहार का शायद ही कोई ईसाई हो। गरीब ईसाई बच्चों को भी मिशनरी विद्यालयों में शुल्क में छूट लेने में बड़ी परेशानी होती है। इससे लोग नाराज हैं
दलित समाज के लोग ‘समानता’ की उम्मीद में ईसाई बने थे। उन्हें बताया गया था कि ईसाई मत में सब एक समान हैं, परंतु वास्तविकता कुछ और है। यहां भी उनके साथ बुरा बर्ताव किया जाता है। बिहार के ईसाइयों को कई श्रेणियों में बांट दिया गया है।
इन दिनों एक और बात देखने को मिल रही है। बिहार में झारखंड के ईसाइयों को बसाया जा रहा है। उन्हें कुर्जी के बालू मुहल्ले में रखा जा रहा है। आखिर ये यहां क्यों बसाए जा रहे हैं? एक अनुमान के अनुसार यहां अब तक झारखंड के 20,000 से अधिक ईसाई बसाए जा चुके हैं। चर्च में वैसे भी बिहारी ईसाइयों के नाम पर जनजाति से कन्वर्टिड ईसाई ही प्राथमिकता पाते हैं। अगर यही स्थिति रही तो बिहार के दलित ईसाई और भी हाशिए पर चले जाएंगे। बिहार में 5,00,000 से अधिक ईसाई हैं।
इन्हें 3 श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली, अगड़ी और पिछड़ी जाति से ईसाई बने लोग; दूसरी, दलित ईसाई और तीसरी, जनजाति ईसाई। दलित ईसाइयों की संख्या सर्वाधिक है। ये कुल ईसाइयों के 60 प्रतिशत से अधिक हैं, लेकिन नौकरी में प्राथमिकता जनजाति ईसाइयों को दी जाती है, जिनकी संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं है। एक वैश्विक संस्था है कैरितास। भारत में यह ‘कैरितास इंडिया’ के नाम से काम करती है। यह सीबीसीआई (कैथोलिक बिशप काउंसिल आफ इंडिया) से सम्बद्ध है। यह संस्था ईसाई संगठनों को वित्तीय मदद देती है। पटना के दीघा में इसका कार्यालय है। यहां भी बिहार का कोई ईसाई काम नहीं करता है।
बिहार के दलित ईसाई बहुत ही उपेक्षित हैं। उन्हें उनका अधिकार नहीं दिया जा रहा है। उन्हें वह सम्मान भी नहीं मिल पा रहा है, जिसकी गारंटी दी गई थी। इसलिए बिहार के दलित ईसाई हताश हैं, निराश हैं और वह भी तथाकथित अपनों से। यह स्थिति बदलनी चाहिए।
(लेखक पटना में सामाजिक कार्यकर्ता हैं। यह लेख
संजीव कुमार से बातचीत पर आधारित है)
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