इस दमनकारी कार्य के खिलाफ 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली की दर्शक दीर्घा से उन दोनों (बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह) ने सभाकक्ष के मध्य-पूर्व फर्श पर बम फेंका। बम फेंकने के बाद दोनों नारे लगाने लगे और पर्चे उड़ाये। अपनी मर्जी से खुद को ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया।
बटुकेश्वर दत्त की पत्नी श्रीमती अंजली दत्त को आज भी याद है उनका वह गुजरा जमाना, जब वे स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारी दल की अगली पंक्ति के सेनानी हुआ करते थे। स्वाधीनता मिलने के बाद वे अपनी पत्नी को कभी-कभी क्रांतिकारी कारनामों के छोटे-छोटे संस्मरण सुनाया करते थे।
अंजली दत्त असेम्बेली में बम फेंकने और आगरा में बम बनाने की कहानी बताते-बताते आज भी रो पड़ती हैं। वे पटना के जक्कनपुर मुहल्ले में रहती हैं (1988 में)। बहुत ज्यादा बताने से इनकार करती हैं। कहती हैं, ‘‘पुरानी बातें कुरेदकर क्यों घाव हरा करते हो।’’ मगर धीरे-धीरे खुद ही सहज होकर कहने लगती हैं, ‘‘मेरा विवाह तो आजादी मिलने के बाद हुआ, इसलिए आजादी की लड़ाई के वक्त की बातें तो नहीं बता सकती। हां, उनके द्वारा सुनाये गये एक-दो संस्मरण बताती हूं।’’
असेम्बली में विस्फोट
मेरठ में 31 लोगों पर मुकदमा चल रहा था। उसी समय अंग्रेजी सरकार की ओर से सार्वजनिक सुरक्षा के नाम पर क्रांतिकारियों और मजदूर संगठन के विरोध में दो कानूनों -ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल—का मसौदा तत्कालीन केन्द्रीय असेम्बली में पेश किया गया। तब विट्ठलभाई पटेल केन्द्रीय असेम्बली के अध्यक्ष हुआ करते थे। ट्रेड डिस्प्यूट बिल पास हो गया। पर विट्ठलभाई ने मेरठ षड्यंत्र केस में अदालती कार्रवाई को ठीक से चलाने में पब्लिक सेफ्टी बिल पर विचार करते समय हुई बहस का असर पड़ने की संभावना बताकर इसे पेश होने से रोक दिया।
गोरी सरकार के इस दमनकारी कार्य के खिलाफ 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली की दर्शक दीर्घा से उन दोनों (बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह) ने सभाकक्ष के मध्य-पूर्व फर्श पर बम फेंका। बम फेंकने के बाद दोनों नारे लगाने लगे और पर्चे उड़ाये। अपनी मर्जी से खुद को ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया। उड़ाये गये पर्चे में बम विस्फोट का कारण लिखा था।
‘इतना कष्ट तो मुझे कालापानी की सजा के वक्त जेल में भी नहीं हुआ। यह कैसी आजादी है, मुझे समझ नहीं आता। कम से कम जेल में किसी तरह का खाना तो मिल ही जाता था और साथ-साथ देशभक्तों का स्नेह भी मिलता था, परन्तु आज तो मैं चारों तरफ से उपेक्षित हूं’
विवेकानंद से मिली प्रेरणा
अंजली दत्त आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए श्री दत्त को मिली प्रेरणा के सिलसिले में बताते-बताते रोने लगती हैं। कहती हैं- ‘‘कानपुर में श्री दत्त को स्वामी विवेकानंद की कविता ‘बागी’ से प्रेरणा मिली और उस कविता को पढ़कर वे बचपन में ही रामकृष्ण मिशन के सम्पर्क में आये। मिशन के संपर्क में आ जाने के बाद उनमें मानव सेवा के प्रति एकनिष्ठ समर्पण की भावना घर कर गयी। इसी बीच 1923 में लाहौर नेशनल कालेज में इतिहास के प्राध्यापक श्री जयचंद विद्यालंकार का एक पत्र लेकर बलवंत नाम का एक पंजाबी लड़का कानपुर आया और वहां सुरेश भट्टाचार्य से मिला। उन दिनों सुरेश भट्टाचार्य उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी सरगर्मियों के प्रेरणा केन्द्र हुआ करते थे। इन्हीं के माध्यम से बलवंत उर्फ भगत सिंह नामक उस पंजाबी लड़के से बटुकेश्वर दत्त का परिचय हुआ। और उसी समय से भगत सिंह और दत्त का क्रान्तिकारी जीवन एक हो गया।
पिता की मृत्यु के बाद उनका परिवार बिखर गया। मां की तबियत काफी खराब हो गई थी। परिवार में श्री दत्त के अलावा कोई और नहीं था जिसकी वजह से उनको मां को लेकर बर्धमान स्थित अपने घर पर रहना पड़ा। उन्होंने बीमारी की अवस्था में बटुकेश्वर दत्त से काशी में अपनी बेटी के यहां चलने की इच्छा प्रकट की। मां को लेकर श्री दत्त काशी आये। मगर उनके वहां से चलते ही खुफिया विभाग का इशारा पाकर अंग्रेजों की पुलिस बहन के मकान के आसपास मंडराने लगी। परिवार वालों को आतंकित करने लगी कि श्री दत्त को अपनी बीमार मां के साथ यहां ठहरने न दिया जाए। हुआ भी ऐसा ही। जैसे ही श्री दत्त अपनी बीमार मां को लेकर बहन के यहां पहुंचे, मकान मालिक ने घर का दरवाजा बंद कर उनकी बीमार मां को जगह देने से इनकार कर दिया। लाचार होकर दत्त अपनी मां को लेकर सुमेरू मठ पहुंचे। वहीं लगभग एक सप्ताह बाद उनकी मां का शरीरान्त हो गया।
‘इतना कष्ट तो मुझे कालापानी की सजा के वक्त जेल में भी नहीं हुआ। यह कैसी आजादी है, मुझे समझ नहीं आता। कम से कम जेल में किसी तरह का खाना तो मिल ही जाता था और साथ-साथ देशभक्तों का स्नेह भी मिलता था, परन्तु आज तो मैं चारों तरफ से उपेक्षित हूं’
बम फेंकने का दर्शन
8 अप्रैल, 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद बांटे गयीं पर्चे में लिखा था, इस बम का विस्फोट हम इसलिए कर रहे हैं कि हमारे पास बहरे कानों को सुनाने के लिए और कोई साधन नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य यही है कि बहरे सुन लें और सिरफिरे चेत जायें। सरकार यह जान ले कि जनरक्षा और ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं लाला लाजपतराय की निर्मम हत्या के विरुद्ध, जनमानस का विरोध प्रदर्शित करने के अतिरिक्त हम इतिहास को यह साक्ष्य भी देना चाहते हैं कि व्यक्तियों का दमन करना आसान होता है, किन्तु विचारधाराओं का दमन नहीं किया जा सकता।
विशाल साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं लेकिन विचारधाराएं बनी रहती हैं। बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमें, जिनको कि मानव जीवन से प्रेम है और जो एक बड़े गौरवमय भविष्य की कल्पना करते हैं, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए बाध्य होकर मानव रक्त बहाना पड़ रहा है। यह आवश्यक है, क्योंकि जो मानवता के लिए शहीद होते हैं, उनके त्याग से क्रांति की वह वेदी बनती है, जहां से मानव द्वारा मानव के शोषण का अंत होता है- ‘इंकलाब जिन्दाबाद’।
असेम्बली में बम फेंकने के अपराध में उन्हें (बटुकेश्वर दत्त) कालापानी की सजा मिली। उन दिनों उनकी आयु लगभग 19 वर्ष थी। भगत सिंह को फांसी मिली। सिंह को मियांवाली जेल में रखा गया था और श्री दत्त को लाहौर जेल में। जेल जाने से पहले दोनों अपने को राजनीतिक कैदी साबित करने की योजना बना चुके थे। पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार 14 जून, 1929 को दोनों ने अपनी-अपनी जेलों में एकसाथ आमरण अनशन शुरू कर दिया। क्रान्तिकारी यतीन्द्र नाथ दास ने आमरण अनशन में इन दोनों का साथ दिया।
क्रांतिकारी की उपेक्षा
आजादी मिलने के बाद बटुकेश्वर दत्त के साथ आजाद भारत की सरकार ने जो कुछ किया, वह अपने-आप में दुख और आश्चर्य का विषय है। आजादी के पूर्व की अपेक्षा वर्तमान देश-दशा देखकर अंजली दत्त काफी विक्षुब्ध हैं। वे कहती हैं, वह जमाना था कि पूरे देश के लोग अंग्रेजों के आतंक से आजिज आकर आजाद होने के लिए तड़प रहे थे। अंग्रेजों से हमारी लड़ाई धर्म का अधर्म से, न्याय का अन्याय से और स्नेह का दुष्टता से सामना था। मगर जिन उद्देश्यों से, जिस कल्याणकारी समाज की स्थापना के लिए, जिस आजादी के लिए हमारे पति और हजारों-हजार देशभक्त क्रांतिकारी लड़े और कुर्बानियां दीं, वह आजादी नहीं मिली। व्यावहारिक रूप से हम लोग एक, विनाशकारी राज में परवरिश पा रहे हैं। आज देश में जो परिस्थितियां हैं, वे समाज के माथे पर कलंक हैं।
आजादी मिलने के बाद जब उनसे मेरी शादी हुई तो हमलोग इतनी तंगहाली में थे कि वे बराबर कहा करते थे कि इतना कष्ट तो मुझे कालापानी की सजा के वक्त जेल में भी नहीं हुआ। यह कैसी आजादी है, मुझे समझ नहीं आता। कम से कम जेल में किसी तरह का खाना तो मिल ही जाता था और साथ-साथ देशभक्तों का स्नेह भी मिलता था, परन्तु आज तो मैं चारों तरफ से उपेक्षित हूं।
आजादी के बाद श्री दत्त काफी क्षुब्ध रहने लगे। पटना में रहने के बाद भी एक बार भी गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस समारोह में सरकारी बुलावा या निमंत्रण पत्र नहीं आया और न ही इस सिलसिले में आयोजित किसी सरकारी कार्यक्रम की उन्हें सूचना दी गयी। आजाद भारत में वे अपना मन मारकर मर गये। जो अंग्रेजों के दमन के आगे नहीं झुका, वह अपनों की उपेक्षा के कारण टूट गया, किन्तु किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, सिर नहीं झुकाया।
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