हरियाणवी लोकसाहित्य के मर्मज्ञ विद्वान और इतिहासकार प्रोफेसर दामोदर वासिष्ठ ने काल के गर्त में छिपे हुए हरियाणा के लोककवियों खासकर रामकाव्य लिखने वालों को समाज के सामने लाकर उनकी पांडुलिपियों को गांव-गांव जाकर संग्रह कर उन्हें प्रकाशित करने का ऐसा श्रम साध्य कार्य किया, जिसे आज भी साहित्य जगत में सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। इसके साथ ही उन्होंने हरियाणवी इतिहास की गौरवशाली परंपरा के पुनर्लेखन की एक ऐसी यात्रा शुरू की जो आज भी जारी है।
कुरुक्षेत्र जनपद के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक जीवन में वह आधी सदी से भी ज्यादा समय तक सक्रिय रहे और उस पर अपनी गहरी छाप भी छोड़ी। इन सबसे पहले वह एक शिक्षक थे। युवावस्था में ही उन्होंने देशसेवा की जो शपथ अपनी डायरी में लिखी थी वह उन्होंने जीवनभर निभाई। ‘सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं दामोदर वासिष्ठ प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति की अभिवृद्धि कर हिंदू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। हिंदू राष्ट्र के हित का कार्य मैं निस्वार्थ बुद्धि एवं तन-मन- धन पूर्वक करूंगा और इस व्रत का आजीवन पालन करूंगा।’ यह प्रतिज्ञा उनके निधन के बाद उनकी एक डायरी में पढ़ने को मिली। इससे पहले किसी को नहीं पता था कि उन्होंने ऐसा संकल्प लिया हुआ है। यह सबके लिये आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि कैसे उन्होंने राष्ट्र सेवा का संकल्प लेकर इस प्रतिज्ञा को आजीवन निभाया है। सहजता और सौम्यता के भाव से पूर्ण मुखारविंद, सदैव प्रफुल्लित व प्रसन्नचित मुखमुद्रा, जीवट के धनी, यायावर, कर्मठ, अल्पभाषी, शालीन, राष्ट्रवादी, प्रखर वक्ता, ओजस्वी वाणी के धनी, अक्सर साधारण वेशभूषा धोती कुर्ता पहने, असाधारण प्रतिभा व व्यक्तित्व के स्वामी थे प्रोफेसर दामोदर वासिष्ठ।
15 जुलाई, 1930 को आगरा जनपद के एक गांव ताहरपुर में उनका जन्म हुआ। अपनी माताजी के विषय में उन्होंने एक बार बताया था कि जब 1948 में गांधीजी की हत्या हुई उस समय उन्हें यह समाचार मिला तो वह सन्न रह गईं और चूल्हे पर भोजन बना रही माताजी ने उसी समय चूल्हे में पानी डाल दिया और इस तरह से अपने दुख और विषाद की त्वरित प्रतिक्रिया दी। धर्मपत्नी गंगा देवी, उनकी सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी व सहधर्मिणी थीं, जिन्होंने घर-परिवार की जिम्मेदारी व कर्तव्यों को ऐसा सहेजा की उन्हें काफी हद तक घर गृहस्थी, जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। छह बच्चों की उचित-अनुचित फरमाइशों को पूर्ण करती दिन-रात घर के कामों में व्यस्त उन्हें कभी विश्राम करते हुए नहीं देखा। काफी हद तक उन्होंने दामोदर जी को देश सेवा के कार्य करने की जैसे मौन स्वीकृति दे दी हो।
दामोदर जी बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता रहे। देश को माँ समान मानने वाले दामोदर जी की चर्चा करूं तो शायद शब्द कम पड़ जाएंगे। निरपेक्ष रूप से सामाजिक कार्य में जुट जाना आपका स्वभाव रहा है। आज भी हरियाणा के कैथल, कुरुक्षेत्र, करनाल जिले के गांवों में उनके विद्यार्थी कई किस्से कहानियों को सुनाते मिल जाएंगे। कैथल शहर सच्चे अर्थों में उनकी कर्मभूमि रहा। सन् 1956 में आगरा से एम.ए. हिंदी और संस्कृत की शिक्षा पूर्ण कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय वर्ष शिक्षित दामोदर वासिष्ठ का कैथल के आर.के.एस.डी. कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर चयन हुआ और तब से 2009 मृत्यु पर्यंत कैथल उन में समाया हुआ था।
उन्होंने अपने पिताजी को अल्पायु में ही खो दिया था। वे अपने चाचा पातीराम जी (कक्का) से बहुत प्रभावित थे। 1900 में जन्मे कक्का ब्रिटिश शासन के अधीन भारत में सरकारी स्कूल के प्राइमरी टीचर थे। राष्ट्रवादी व गांधीवादी कक्का का विश्वास था कि राष्ट्र की आधारशिला शिक्षक हैं जो राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका निभाते हैं। उन्होंने अपने गांव, देहात व परिवार के बच्चों के बीच शिक्षा की अलख जगाई। गांधी जी का प्रभाव ऐसा था कि अंग्रेजों की नौकरी करते हुए भी पराधीन भारत में वे गांधीजी के आह्वान पर प्रभात फेरी निकालते थे। युवाओं को राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति व शिक्षा के लिए प्रेरित करना उनका अनवरत कार्य था। वे आजीवन अविवाहित रहे। सरल, सौम्य, दयालु, मोह माया से दूर कक्का बड़े प्रेम से सभी को गले लगाते थे। दामोदर जी ने जब आगरा विश्वविद्यालय से शिक्षा पूर्ण की तो कक्का ने स्पष्ट शब्दों में चेताया कि सरकारी नौकरी नहीं किसी कॉलेज में अध्यापक बन राष्ट्र निर्माण में योगदान दो। उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने पहले बड़ौत और उसके पश्चात कैथल के प्रतिष्ठित कॉलेज आर.के. एस.डी. कॉलेज (राधाकृष्ण सनातन धर्म कॉलेज) में 34 वर्षों तक शिक्षण कार्य किया।
जेल यात्रा व सामाजिक कार्यों में दामोदर जी की भूमिका-
15 अगस्त, 1947 को देश को एक लंबे संघर्ष के बाद आजादी मिली। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हो गई और इस कारण से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस प्रतिबंध के विरोध में 1948 में मात्र 17 साल की अवस्था में दामोदर जी सत्याग्रह करते हुए जेल गए। पूरे देश में इस समय संघ की प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया। ऐसे में संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक का कर्तव्य था कि वह संघ पर लगे इस कलंक को अपने सेवा कार्यों से दूर करें। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय वर्ष शिक्षित थे और आगरा में भी रहते हुए संघ कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लिया। 1956 में हिंदी और संस्कृत में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के पश्चात उन्होंने कैथल के आर.के.एस.डी. कॉलेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। आपकी व्यवहार कुशलता, कार्यकुशलता, निष्कलंक चरित्र, सकारात्मक सोच और प्रत्येक कार्य के प्रति समर्पण के भाव ने स्वयं उन्हें व संघ को हरियाणा में प्रतिष्ठा दिलवाई।
अध्यापक के रूप में उनकी समाज व विद्यार्थियों के बीच खासी प्रतिष्ठा थी। कॉलेज के शुरुआती समय में तो यह भी समस्या सामने थी कि छात्रों को कॉलेज तक कैसे लाया जाए। इसके लिए उन्होंने व अन्य साथियों ने मिलकर समाज के लोगों से संपर्क कर शिक्षा के महत्व को समझाया व छात्र-छात्राओं को कॉलेज में दाखिले के लिए प्रेरित किया। उन्होंने छात्रों की प्रतिभा को पहचानते हुए लगातार उन्हें प्रोत्साहित किया ।मेधावी किंतु आर्थिक स्थिति से गरीब बच्चों के लिए पुस्तकों का इंतजाम करना, कॉलेज में फीस माफ करवाना, उनके रहने की व्यवस्था पर ध्यान देना और कई बार तो ऐसे छात्र भी थे जिन्हें उन्होंने अपने घर में रख कर भी पढ़ाया। छात्रों से उनके संबंध केवल कॉलेज तक ही सीमित नहीं थे अपितु उनके घर- परिवार ,उनकी समस्याएं, उन समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने के लिए भी वे सदैव तत्पर रहे। ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों के प्रति अपनत्व के भाव ने उन्हें उनका बहुत ही प्रिय बना दिया। वह अपने छात्रों के बीच गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके बच्चों ने भी इसी कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की और उन सभी के सहपाठी भी उन्हें पिताजी ही बुलाया करते थे।
उन्होंने समाज के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़ कर समाज के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। कैथल में आर्य समाज के अध्यक्ष पद पर भी वह रहे। आपका यह विचार था कि भारतीय समाज अपनी सनातन परंपराओं और संस्कृति से जुड़े इसके लिए समय-समय पर आर्य समाज की ओर से विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था जिसमें समाज के सभी वर्ग के लोगों का समावेश होता था। आत्मविश्वास से भरपूर वे सही को सही व गलत को गलत कहने के लिए निर्भीकता से डट कर खड़े हो जाते थे। दामोदर जी हरियाणा कॉलेज टीचर्स यूनियन के प्रेसिडेंट भी रहे। इस समय उन्होंने टीचर्स के अधिकारों, उनके वेतन भत्तों तथा अन्यान्य विषयों पर भी हमेशा आवाज उठाई। एक बार कॉलेज टीचर्स यूनियन में उनके अधिकारों के संघर्ष के चलते आप जेल भी गए। यह उनकी दूसरी जेल यात्रा थी जिसने उन्हें निर्भीकता, निडरता व आत्मविश्वास के गुणों से पूर्ण किया।
25 जून, 1975 भारतीय लोकतंत्र का एक काला अध्याय है। भारत सरकार ने उस समय में पूरे देश भर में इमरजेंसी लगा दी। देशभर में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उन्हें कई माह के कारावास की सजा मिली। सवा लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में डिफेंस ऑफ इंडिया रूल (डी. आई.आर) के तहत बंद कर दिया गया। यह कानून केंद्र सरकार के खिलाफ बगावत का कानून था जिसे कभी अंग्रेजी सरकार ने उन देशभक्तों के खिलाफ दुरुपयोग किया था जो देश की आजादी के लिए लड़े थे। आजाद हिंदुस्तान में भी इंदिरा गांधी की सरकार ने इसे राष्ट्र भक्तों और विरोधियों को कमजोर करने के लिए लगाया। दामोदर जी जिस कॉलेज में कार्यरत थे वहां से उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। केवल आधा वेतन ही घर पर मिलता था। छह बच्चों की परवरिश उनकी धर्मपत्नी ने पूरे साहस और हिम्मत से की। वह बच्चों के लिए रक्षा कवच थीं। ऐसे समय में पूरे शहर में स्वयंसेवकों के परिवार भी सरकार के रेडार पर थे इसी कारण परिचित लोग भी घर आने से डरते थे। दामोदर जी के बड़े पुत्र अशोक वासिष्ठ भी सरकार की नीतियों के घोर विरोधी थे और उनकी भी जेल जाने की पूरी तैयारी थी लेकिन कमोबेश उन लोगों की योजना सरकार को पता चल गई।
15 वर्षीय पुत्र हरेश अपनी माता जी को हर सप्ताह पिताजी से मिलवाने करनाल जेल लेकर जाया करते थे। कैथल से करनाल का रास्ता 65 किलोमीटर है। माताजी सुबह जल्दी उठकर बहुत-सा खाना बनाती और बस से बेटे को लेकर दामोदर जी से मिलने के लिए पहुंचतीं। कई बार उनकी पेशी कैथल कोर्ट में भी होती तब उनके छोटे बच्चे विद्यालय से जल्दी निकलते ताकि उनका अपने पिता से मिलना संभव हो पाए। लगभग 1 साल के लंबे संघर्ष के बाद उन्हें व अन्य कैदियों को जेल से मुक्त किया गया। यह समय घर -परिवार के लिए खासा संघर्षों से भरा हुआ था लेकिन इन संघर्षों ने उन्हें खरा सोना बना दिया ।उन्हें अपने जीवन के लक्ष्य का पता था कि संघ के कार्यों को किस तरह से समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाना है। दुर्भाग्य से 1989 में दामोदर जी का एक भयंकर एक्सीडेंट हुआ। उन्हें पीजीआई ले जाया गया और जहां यह पता चला कि उन्हें कैंसर भी है। वह समय परिवार के लिए काफी चुनौतीपूर्ण था। उपचार के लगभग 6 महीने के बाद वे घर वापिस आए। 1990 में वे सेवानिवृत्त हो गए, लेकिन सेवानिवृत्ति संघ कार्यों के लिए मील का पत्थर साबित हुई। वे घर छोड़कर लगभग एक वर्ष रोहतक जो कि उस समय हरियाणा में संघ का मुख्यालय था वहां रहे और संघ की योजना के तहत उन्होंने अपनी तीसरी पुस्तक ‘भारत अखंडता की ओर” लिखी। इतिहास संकलन योजना से जुड़े वरिष्ठ प्रचारक ठाकुर राम सिंह जो इतिहास संकलन समिति के अध्यक्ष थे उन्होंने राष्ट्रीय इतिहास संकलन योजना में दामोदर जी को महामंत्री बनाया। उन्होंने हरियाणा में अपने साथियों के साथ मिलकर इतिहास संकलन की एक इकाई खड़ी की तथा हरियाणा के गौरवशाली इतिहास का लेखन कार्य किया।
कैथल शहर कब बसा होगा? इस विषय पर उन्होंने गहन शोध कार्य किया जिसे खोजते-खोजते वे वैदिक तथा पौराणिक काल तक पहुंचे। इस विषय में उनकी लिखी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाई, लेकिन अब शीघ्र ही पाठकों तक पहुंचने वाली है। इस पुस्तक में उन्होंने कैथल के गांवों के तीर्थ तथा संस्कृति-संस्कार का विशद वर्णन किया है। कैथल के वैदिक कालीन प्रामाणिक इतिहास पर उन्होंने सरकार के लिए कार्य किया जो कि बाद में सरकारी वेबसाइट पर भी काफी लंबे समय तक रहा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की ओर से एम.ए. हिंदी पाठ्यक्रम में लोक साहित्य विषय को शामिल किया गया। उन्होंने तभी से हरियाणा के लोक साहित्य पर खोज करनी शुरू की और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से इस शोध कार्य में हरियाणा में श्रीराम नाटकों की खोज की। पूंडरी के लाला देवतराम और सीवन के शादीराम जी ने श्रीराम नाटक का लेखन कार्य किया था। उन प्रतियों को बहुत कठिनाई से उन्होंने प्राप्त किया और समृद्ध राम काव्य परंपरा के कार्य को शुरू किया। लाला देवत राम कृत श्रीराम नाटक की एक प्रति उन्हें उर्दू में भी मिली थी। इस पर बाद में उनकी पुत्री के शोध कार्य में भी उन्होंने मार्गदर्शन दिया। दामोदर जी ने अपना शोध कार्य नज़ीर अकबराबादी के साहित्य पर किया था और इसलिए उस समय उन्होंने उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था जो बाद में कई शोधार्थियों को मार्गदर्शन के रूप में मिला। उनके निर्देशन में कई विद्यार्थियों ने शोध कार्य संपन्न किया और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की ।इसके अलावा भी उन्होंने छात्रों को एम.फिल व शोध कार्यों के लिए हमेशा प्रेरित भी किया और उनका मार्गदर्शन भी किया।
एक साहित्यकार और इतिहासकार के रूप में उन्होंने 6 पुस्तकों का लेखन कार्य किया। उन्होंने इतिहास संकलन कमेटी के माध्यम से कई शोध कार्य किए और इतिहास में छिपे कितने ही तथ्यों को उदाहरण सहित समाज के समक्ष रखा। उस समय में इंटरनेट की सुविधा ना होने पर भी अनेक दुर्लभ पुस्तकों से संदर्भ ग्रहण कर शोध कार्यों में तथ्यात्मक जानकारियां जुटाई। चाहे वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के थे, लेकिन हरियाणवी बोली और संस्कृति से उनका प्यार हरियाणवियों से कहीं अधिक था तथा यहां के लोक कवियों की कृतियों पर शोध कार्य में उन्होंने कई छात्रों को प्रोत्साहित किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहकार्यवाह अरुण जी ने कहा कि हरियाणा प्रांत के पुराने करनाल जिले (पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र और कैथल) में डॉक्टर दामोदर वासिष्ठ जी की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में मजबूत उपस्थिति दर्ज है। मैं 1990 के दशक में कैथल में विभाग प्रचारक के रूप में दामोदर जी के संपर्क में आया। दामोदर जी उस समय भयंकर एक्सीडेंट के बाद कुछ हद तक उभरे थे। कैंसर ने शरीर पर भी प्रभाव डाला था। जीवट के धनी दामोदर जी से जब मैंने संघ कार्यों के लिए संपर्क किया तब उनका स्वास्थ्य पूरी तरह से साथ नहीं दे रहा था तब भी उनके मुख से एक बार भी ना नहीं निकली। सादगी पसंद दामोदर जी की आवश्यकताएं न्यूनतम थी तथा अपने लिए कोई भी अपेक्षा का भाव नहीं था। संघ के कार्य को विस्तार देने के लिए हम दोनों मोटरसाइकिल से कैथल जिले के गांवों में संपर्क के लिए निकलते थे। दामोदर जी के अपने सभी विद्यार्थियों के साथ आत्मीयता पूर्ण संबंध थे। 25 वर्ष पुराने छात्रों के साथ भी उनके घनिष्ठ संबंध थे। कई बार रात्रि में हमें गाँवों में ही प्रवास करना पड़ता था। वे अपने छात्रों के बीच में गुरु जी के नाम से प्रतिष्ठित थे। उनका ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचने पर उनके पूर्व छात्र व गांव के प्रतिष्ठित लोग उन्हें घेर लेते थे। घंटों चर्चाएं चलती थी। उन्होंने सैकड़ों निष्ठावान कार्यकर्ताओं को शहरों, कस्बों और गांवों में खड़ा किया था। सेवानिवृत्ति के पश्चात भी पूर्ण रूप से स्वस्थ ना होने पर भी संघ कार्य के लिए दामोदर जी तन- मन- धन से अपने आध्यात्मिक व मानसिक बल से लगे हुए थे। यह ज़ज्बा कदाचित ही देखने को मिलता है। मिट्टी से जुड़े, भारतीय संस्कृति की समझ रखने वाले, विकट परिस्थितियों में भी संघ कार्य को खड़ा करने वाले ऐसे वीर योद्धा दामोदर जी हम सभी के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। हरियाणा में संघ कार्य की नींव की ईंट बनकर, निस्वार्थ भाव से उन्होंने संघ कार्य को विस्तार दिया। उनके द्वारा किए गए कार्य व विचार स्वयंसेवकों व समाज को प्रेरणा से भर देते हैं।
सन् 2008 स्वास्थ्य धीरे-धीरे बहुत खराब होने लगा था। पीजीआई में डॉक्टर्स ने भी हाथ खड़े कर दिए थे। ऐसे में बड़े पुत्र उन्हें कोटा ले गए। कैंसर ने पूरे शरीर पर प्रभाव डाला था। दामोदर जी को कैंसर से नहीं मरना चाहिए था। उनकी रगों में दूसरों के लिए अमृत के अलावा कुछ नहीं था। उनके लिए इस जहर का विधान क्यों हो यह प्रश्न किस ईश्वर से पूछें। ईश्वर की आस्था ही उनका अस्तित्व था। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पलों में इस यातना की परीक्षा को दिया। ममत्व, अपनत्व और स्नेह का भाव अपने प्रत्येक प्रियजन के लिए उनके हृदय में था। कैंसर ने उनके शरीर को खोखला कर दिया था और लगभग सवा साल में इस संघर्ष को झेलते हुए वह 7 मार्च, 2009 को हमसे विदा हो गए। आज 14 वर्ष हुए उनको हमसे अलग हुए, लेकिन आज भी कोई ऐसा पल नहीं जाता जब उनके पूर्व छात्र, परिवार के लोग व समाज के लोग उनके विषय में चर्चा ना करें। प्रतिवर्ष उनकी पुण्यतिथि पर कैथल में विभिन्न साहित्यिक व सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। वे चाहे अब हमारे मध्य नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें, उनका आशीर्वाद हमेशा ही उनसे जुड़े हज़ारों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा। आज 15 जुलाई उनके जन्म दिवस के अवसर पर डॉक्टर दामोदर वासिष्ठ को शत शत नमन।
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