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लक्ष्मी बाई केलकर जयंती : एक कमल खिला गईं लाखों कमल

राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापक और आद्य प्रमुख संचालिका श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर का वात्सल्य ऐसा था कि उन्हें आदर से ‘वंदनीया मौसीजी’ के उपनाम से जाना जाता था

by WEB DESK
Jul 7, 2023, 02:15 pm IST
in भारत, संघ
वंदनीया मौसीजी व राष्ट्र सेविका समिति की एक शाखा

वंदनीया मौसीजी व राष्ट्र सेविका समिति की एक शाखा

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अपनी प्रखर और सतत संकल्प शक्ति, ईश्वर, अध्यात्म, राष्ट्र और सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर अगाध निष्ठा के बल पर जिसने उन्हें झटके में चकनाचूर कर दिया। श्री भास्कर राव और श्रीमती यशोदाबाई की पुत्री वंदनीया मौसीजी ने अपने जीवन से जो उदाहरण दुनिया के सामने प्रस्तुत किए, वे अतुलनीय रहेंगे।

लक्ष्मीबाई केलकर यानी मौसी जी की जीवन-गाथा एक ऐसी दुर्धर्ष वीरांगना की जीवन-गाथा है, जिसके सामने मुश्किलों के कितने ही पड़ाड़ खड़े हुए या किए गए, लेकिन अपनी प्रखर और सतत संकल्प शक्ति, ईश्वर, अध्यात्म, राष्ट्र और सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर अगाध निष्ठा के बल पर जिसने उन्हें झटके में चकनाचूर कर दिया। श्री भास्कर राव और श्रीमती यशोदाबाई की पुत्री वंदनीया मौसीजी ने अपने जीवन से जो उदाहरण दुनिया के सामने प्रस्तुत किए, वे अतुलनीय रहेंगे। उनका जन्म 6 जुलाई, 1905 को नागपुर में हुआ। जन्म के समय मौजूद परिवार के शुभचिंतक डॉ. दादा परांजपे ने अनुभव किया कि कन्या-रत्न के मुखमंडल से दिव्य आभा फूट रही है, लिहाजा उन्होंने सुझाव दिया कि बेटी का नाम कमल रखा जाए, तो अच्छा रहेगा। परिवार ने यह सुझाव मान भी लिया। इस तरह श्रीमती यशोदाबाई की गोद में रक्ताभ कोमल कमल खिल गया।

कमल का मिशनरी स्कूल में दाखिल करा दिया गया। कुछ दिन बाद ही बाल मन विद्रोह करने लगा, क्योंकि जो स्कूल में सिखाया जा रहा था, वह दाईजी और माताजी के सिखाए संस्कारों से बिल्कुल उलट था। कमल को हिंदू देवी-देवताओं का अपमान अच्छा नहीं लगता था। कभी-कभी प्रतिरोधी वातावरण से शुरुआती मुठभेड़ ही जीवन में सार्थकता की पहली सीढ़ी साबित हो जाती है। लगातार हिंदू परंपराओं, रीति-रिवाजों की आलोचना कमल को अंतत: रास नहीं आई और भारतीय बाल मन छलक ही पड़ा।

कमल के मन में राष्ट्र की संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रेम का संकल्प ठोस आकार लेने लगा। कमल ने मां को बताया और कहा कि राम और कृष्ण भगवान का अपमान और हिंदू परंपराओं का परिहास उड़ते देखना उन्हें अच्छा नहीं लगता, इसलिए स्कूल जाने के बजाए वे दाईजी के साथ मंदिर ही जाएंगी। वहां पुजारी महाराज अच्छी बातें बताते हैं। अब बस उनकी ही कथाएं वे सुनेंगी। इस घटना के बाद हालांकि उनका प्रवेश उसी समय खुली ‘हिंदू मुलींची शाला’ में कराया गया, लेकिन चौथी के बाद पढ़ाई बंद हो गई। घर पर समाचारपत्रों, धार्मिक और दूसरे भारतीय साहित्य की पढ़ाई उन्होंने जारी रखी। उन दिनों ‘केसरी’ समाचार पत्र का हर सच्चे भारतीय के घर पर किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह ही सम्मान होता था।

कमल के पिता भास्कर राव दाते हर दिन प्रात: काल ‘केसरी’ पढ़ते थे। दोपहर में घर के कामकाज निपटा कर मां यशोदाबाई आस-पड़ोस की महिलाओं को जुटा कर ‘केसरी’ की खबरें, लेख और टिप्पणियां पढ़कर उन्हें सुनाती थीं। उस समय लोकमान्य तिलक की फ्रेम  जड़ी तस्वीर स्टूल पर रखी जाती और अगरबत्तियां जलाकर वातावरण को सुगंधित किया जाता और फिर समाचार पत्र का वाचन होता। यह क्रम नित्य चलता। ऐसे माहौल में कमल के मन पर भी ‘केसरी’ का गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीयों के दमन के लिए उठाए जा रहे कदमों के प्रति घृणा, दासता के प्रति विद्रोह की भावना ने कमल के मन पर गहरी छाप छोड़ी।

कमल कुछ बड़ी हुईं, तो परिवार को उनकी शादी की चिंता हुई। उन दिनों दहेज की कुप्रथा का बोलबाला था। कमल समझती थीं कि उनका परिवार बहुत धनवान नहीं है। उन्होंने दहेज-रहित विवाह करने का संकल्प लिया। परिवार ने भी उनके इस संकल्प का पालन किया। 1919 में वे 14 वर्ष की हुईं, तो उनका पाणिग्रहण संस्कार वर्धा के प्रतिष्ठित केलकर परिवार के श्री पुरुषोत्तम राव से विधि-विधान से संपन्न हुआ। इसके साथ ही कमल अब लक्ष्मी बाई केलकर हो गईं। पुरुषोत्तम राव की उम्र उनसे अधिक थी, लेकिन दहेज नहीं देने की जिद की वजह से कमल को यह स्वीकार करना पड़ा। पुरुषोत्तम की पहली पत्नी का देहांत हो गया था और उनके दो बेटियां भी थीं।

‘‘वहिनी, मुझे कुछ पैसे दो। मुझे दंड खरीदना है।’’ लकड़ी के दंड की मदद से शरीर को मजबूत बनाने के लिए व्यायाम किया जाता था। पद्माकर और दिनकर ने मनोहर के शब्द दोहरा दिए। उन्होंने पूछा कि उन्हें दंड क्यों चाहिए, क्या वे किसी से लड़ना चाहते हैं? बेटों ने कहा कि उन्हें किसी से लड़ना नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की शाखा में जाना है। वहां दंड के साथ मार्च और घिरने पर उसकी मदद से बच निकलने के तरीके सिखाए जाते हैं। -मनोहर 

देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई में वर्धा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लोकमान्य तिलक के निधन के बाद महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की चाह रखने वाले लोगों का नेतृत्व किया। जब गांधी जी ने साबरमती छोड़कर वर्धा में ठिकाना बनाया, तो इस शहर का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। वर्धा का सेवाग्राम देश की राजनीति का केंद्र बन गया। 1924 में वर्धा में बड़ी रैली का आयोजन हुआ। इस रैली ने लोगों के मन पर गहरी छाप छोड़ी। रैली के अंत में लोगों से स्वतंत्रता की लड़ाई में सहायता की अपील की गई। वालंटियर कपड़े के थैले लेकर रैली में शामिल लोगों के पास पहुंचने लगे। लक्ष्मीबाई ने बिना सोचे-विचारे सोने का अपना भारी हार थैले में डाल दिया।

27 साल की कम उम्र में ही लक्ष्मी विधवा हो गईं। इतनी कम उम्र, बड़ा परिवार और छोटे बच्चों की वजह से लक्ष्मी पर बड़ा दायित्व था, लेकिन आत्मविश्वास और आध्यत्मिक शक्ति के बूते वे विचलित नहीं हुईं। लक्ष्मी की छोटी बेटी वत्सला पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, लेकिन वर्धा में उन दिनों लड़कियों की शिक्षा के लिए कोई स्कूल नहीं था। लक्ष्मी ने सोचा कि उनकी बेटी के लिए ही नहीं, बल्कि दूसरे बहुत से परिवारों की लड़कियों के लिए भी शिक्षा आवश्यक है। लक्ष्मी के मन में तूफान चल रहा था कि इसका कोई न कोई स्थाई समाधान निकाला ही जाना चाहिए। इसका ही नतीजा रहा कि वर्धा में लड़कियों की शिक्षा के लिए पहले स्कूल की नींव पड़ी। स्कूल का नाम रखा गया केसरीमल गर्ल्स स्कूल। उन्होंने मन लगाकर पढ़ाने वाली शिक्षिकाओं की तलाश की और उन्हें रहने के लिए अपने घर में जगह दी।

लक्ष्मी बाई केलकर के बेटे मनोहर ने उन्हें आश्चर्य रूप से राह दिखाई। मनोहर ने कहा, ‘‘वहिनी, मुझे कुछ पैसे दो। मुझे दंड खरीदना है।’’ लकड़ी के दंड की मदद से शरीर को मजबूत बनाने के लिए व्यायाम किया जाता था। पद्माकर और दिनकर ने मनोहर के शब्द दोहरा दिए। उन्होंने पूछा कि उन्हें दंड क्यों चाहिए, क्या वे किसी से लड़ना चाहते हैं? बेटों ने कहा कि उन्हें किसी से लड़ना नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की शाखा में जाना है। वहां दंड के साथ मार्च और घिरने पर उसकी मदद से बच निकलने के तरीके सिखाए जाते हैं।

मनोहर ने कहा कि अगर कोई उन पर हमला करेगा, तो दंड की मदद से उसे मार भगाएगा। उसने इशारों में ऐसा करके भी दिखाया, जिस पर सभी हंस पड़े। लक्ष्मी ने उनकी इच्छा पूरी कर दी। जल्द ही उन्होंने अपने बेटों के व्यवहार में बड़ा परिवर्तन महसूस किया। वे ज्यादा अनुशासित, आज्ञाकारी और राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत हो गए। घर में राष्ट्रभक्ति के गीत गूंजने लगे और हिंदू, हिंदुत्व और हिंदुस्थान जैसे शब्द बहुतायत में प्रयोग होने लगे। लक्ष्मी सोचने लगीं कि संघ शाखाओं को पुरुषों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। जरूरी है कि सभी महिलाओं के हृदय में भी राष्ट्र, हिंदू संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रेम उमड़ना चाहिए। महिलाएं भी भारतीय समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, इसलिए उन्हें एक बैनर के तले लाने की जरूरत है।

कराची में मौसीजी 

13 अगस्त, 1947 जब देश में चारों ओर भय, चिंता, अविश्वास व दंगों का माहौल था तब मौसीजी और वेणु ताई कराची हवाई अड्डे पर उतरीं। हवाई यात्रा में पुरुषों के बीच केवल यही दो महिलाएं थीं। 14 अगस्त को कराची के एक घर की छत पर 1,200 से भी अधिक महिलाएं एकत्रित हुईं। मौसीजी ने उन्हें ढांढस बंधाया। इसके साथ ही उन्हें धैर्यशील बनने, संगठन पर विश्वास रखने और मातृभूमि की सेवा का व्रत जारी करने का प्रण दिलवाया। साथ ही इन बहनों को यह आश्वासन भी दिया कि आपके भारत आने पर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जाएगा जब वे महिलाएं हिंदुस्थान आईं तो मौसीजी ने मुंबई के कई परिवारों में गोपनीयता रखते हुए उनका संरक्षण भी किया।

एक दिन मनोहर ने मां से कहा कि कल वे थोड़ी देर से घर लौटेंगे, क्योंकि उन्हें सारे स्वयंसेवकों के घर जाकर बताना है कि आदरणीय सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार आ रहे हैं और सभी स्वयंसेवकों के अभिभावकों से मिलना है। लक्ष्मी ने पूछा कि ये बैठक कब और कहां होगी? मनोहर ने तपाक से पूछा कि क्या मां वहां आना चाहती हैं? बैठक में पिता, भाइयों या दूसरे पुरुष अभिभावकों को बुलाया गया है, महिलाओं को नहीं।

यह सुनकर लक्ष्मीबाई ने दृढ़ता से कहा कि औरों का उनको पता नहीं, लेकिन वे उनकी अभिभावक हैं, लिहाजा बैठक में जरूर पहुंचेंगी। वे थोड़ी घबरा रही थीं कि कैसे अपने मन की बात डॉ. हेडगेवार के सामने रखेंगी। कालांतर में दोनों के बीच नागपुर और वर्धा में कई बैठकें हुईं। हेडगेवार जी लक्ष्मी के लिए बड़े भाई और पथ-प्रदर्शक बन गए थे। लक्ष्मी ने डॉ. हेडगेवार की सोच को एक विस्तृत आयाम दे दिया था। उन्होंने उनके मस्तिष्क में यह विचार डाल दिया था कि बिना महिलाओं को सशक्त किए समाज कभी सही प्रगति नहीं कर सकता और देश का विकास नहीं हो सकता।

डॉ. हेडगेवार ने लक्ष्मी बाई केलकर से कहा कि वे उनकी बातों से सहमत हैं। महिलाओं में सही मूल्यों के विकास कर उन्हें देश की सेवा के लिए तैयार करने के लिए प्रशिक्षण देना बहुत आवश्यक है। लेकिन उन्होंने कहा कि महिलाओं का संगठन पुरुषों के संगठन से अलग होना चाहिए। उनके संगठन की गतिविधियां भी पुरुषों से अलग तरह की होनी चाहिए। डॉ. हेडगेवार ने लक्ष्मी को समझाया कि उनका काम राष्ट्रीय महत्व का होगा। इसलिए उन्हें पूरी निष्ठा और समर्पण से काम करना होगा। डॉ. हेडगेवार का सुझाव था कि महिलाओं का यह संगठन आरएसएस के समानांतर एक स्वतंत्र संगठन होना चाहिए।

25 अक्तूबर, 1936 को विजयादशमी थी। भारत में महिलाओं के लिए यह दिन नई प्रेरणा का दिन साबित होने जा रहा था। श्री यादव माधव काले ने राष्ट्र सेवा समिति के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता की। बड़ी संख्या में युवतियों और महिलाओं की मौजूदगी रही। उन दिनों महिलाएं घरों की चारदीवारी में कैद रहती थीं। ऐसे माहौल में बड़ी संख्या में महिलाओं के घरों से निकल कर समिति का कामकाज करने के लिए निकलना क्रांतिकारी घटना थी। बदलते वक्त के साथ वर्धा का विकास भी हो रहा था। भीड़भाड़ बढ़ रही थी। एक जगह से दूसरी जगह पैदल जाकर लोगों से संपर्क में मुश्किल होने लगी।

मौसीजी ने अपने बेटे पद्माकर की मदद से साइकिल चलाना सीख लिया। 35 वर्ष की उम्र में मौसीजी ने अंग्रेजी भी सीखी। समिति का काम बढ़ता जा रहा था। शाखाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी। समिति का विस्तार सिंध, गुजरात, मध्य प्रदेश और पंजाब तक हो गया। वर्धा के अलावा शिक्षा वर्ग पुणे और नागपुर में भी हुए।

1943-44 के दौरान कराची में भी शिक्षा वर्ग आयोजित किया गया। प्रारंभिक सफलताओं के बाद मौसीजी ने सोचा कि समिति के काम के आयाम बढ़ाए जाएं। बैठकें नियमित हो रही थीं। शिक्षा वर्ग लगातार लगाए जा रहे थे। उन्होंने बच्चों की शिक्षा के लिए शिशु मंदिर, घरेलू स्तर पर कुटीर और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए उद्योग मंदिर स्थापित करने की योजनाएं बनाईं। लक्ष्मीबाई केलकर जिस आदर्श के साथ समिति की स्थापना की प्रेरक बनी थीं वह धीरे-धीरे साकार होता गया।
प्रस्तुति : सर्जना शर्मा / सुनीता शर्मा 

 

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