पटना और बेंगलुरु, दोनों बैठकों का ‘उद्देश्य’ एक है, पर ‘इरादों’ के अंतर को समझने की जरूरत है। पटना-बैठक नीतीश कुमार की पहल पर हुई थी, पर बेंगलुरु का आयोजन कांग्रेसी होगा। दोनों बैठकों का निहितार्थ एक है। फैसला कांग्रेस को करना है कि वह गठबंधन के केंद्र में रहेगी या परिधि पर।
राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य अचानक 2019 के लोकसभा चुनाव के एक साल पहले जैसा हो गया है। मई 2018 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों की शुरुआती गहमागहमी के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी की सरकार बनी, जिसके शपथ-ग्रहण समारोह में विरोधी दलों के नेताओं ने हाथ से हाथ मिलाकर एकता का प्रदर्शन किया था। एकता की बातें चुनाव के पहले तक चलती रहीं। 2014 के चुनाव के पहले भी ऐसा ही हुआ था। अब 23 जून को पटना में हुई विरोधी दलों की बैठक के बारे में कहा जा रहा है कि इससे ‘भारतीय राजनीति का रूपांतरण हो जाएगा’।
बैठक के आयोजक नीतीश कुमार को भरोसा है कि वे भाजपा को 100 सीटों के भीतर सीमित कर सकते हैं। केजरीवाल प्रसंग पर ध्यान न दें, तो इस बैठक में शामिल ज्यादातर नेता इस बात से ‘खुश’ थे कि शुरुआत अच्छी है। संभव है कि बंद कमरे में हुई बातचीत में गठजोड़ की विसंगतियों पर चर्चा हुई हो, पर बैठक के बाद हुई प्रेस-वार्ता में सवाल-जवाब नहीं हुए। तस्वीरें खिंचाने और बयान जारी करने के अलावा लिट्टी-चोखा, गुलाब जामुन, राहुल गांधी की ‘दाढ़ी’ और ‘शादी’ जैसे विषयों पर बातें हुईं। इसलिए अब बेंगलुरु में होने वाली अगली बैठक का इंतजार करना होगा।
केंद्र में या परिधि पर?
पटना और बेंगलुरु, दोनों बैठकों का ‘उद्देश्य’ एक है, पर ‘इरादों’ के अंतर को समझने की जरूरत है। पटना-बैठक नीतीश कुमार की पहल पर हुई थी, पर बेंगलुरु का आयोजन कांग्रेसी होगा। दोनों बैठकों का निहितार्थ एक है। फैसला कांग्रेस को करना है कि वह गठबंधन के केंद्र में रहेगी या परिधि पर। इस एकता में शामिल ज्यादातर पार्टियां कांग्रेस की कीमत पर आगे बढ़ी हैं या कांग्रेस से निकली हैं। जैसे-राकांपा और तृणमूल। कांग्रेस का पुनरोदय इनमें से कुछ दलों को कमजोर करेगा। फिर यह किस एकता की बात है?
देश में दो राष्ट्रीय गठबंधन हैं- राजग और संप्रग। प्रश्न है, संप्रग यदि विरोधी-गठबंधन है, तो उसका ही विस्तार क्यों न करें? गठबंधन को नया रूप देने या नाम बदलने का मतलब है कांग्रेस के वर्चस्व को अस्वीकार करना। विरोधी दलों की राय है कि लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक संभव स्थानों पर भाजपा प्रत्याशियों के विरुद्ध एक प्रत्याशी उतारा जाए। इसे लेकर उत्साहित होने के बावजूद ये दल जानते हैं कि इसके साथ कुछ जटिलताएं जुड़ी हैं। बड़ी संख्या में ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं, जहां विरोधी दलों के बीच प्रतिस्पर्धा है। कुछ समय पहले खबरें थीं कि राहुल गांधी का सुझाव है कि सबसे पहले दिल्ली से बाहर तीन-चार दिन के लिए विरोधी दलों का चिंतन-शिविर लगना चाहिए, जिसमें खुलकर बातचीत हो। अनुमान है कि विरोधी एकता अभियान में कांग्रेस अपनी ‘केंद्रीय भूमिका’ पर जोर देगी।
आआपा जिन पक्षों-विपक्षियों पर लानतें भेजते हुए पैदा हुई थी अब उन्हीं से समर्थन मांग रही है। उधर, नीतीश कुमार का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो उसमें ईसीजी रिपोर्ट जैसी ऊंची-नीची रेखाएं दिखाई पड़ेंगी।
आआपा बनाम कांग्रेस
कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस को इस समय ‘मूमेंटम’ अपने पक्ष में दिख रहा है। नीतीश भी कांग्रेस के महत्व को मानते हैं। मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ही इस बैठक की तारीखें बदलती रहीं। आम आदमी पार्टी पिछले कई महीनों से कांग्रेसी नेताओं से मुलाकात करना चाहती रही है। ममता बनर्जी ने अपने कड़े रुख को नरम बनाया। पटना की बैठक में 15 राजनीतिक दल शामिल हुए थे। नीतीश कुमार का कहना है कि कुछ और पार्टियां इसमें शामिल हो सकती हैं, पर बड़ा सवाल यह है कि बेंगलुरु में यह संख्या 15 ही रहेगी या 14 हो जाएगी?
बेंगलुरु में आआपा शामिल तब होगी, जब कांग्रेस उसे बुलाएगी। संभव है इस प्रक्रिया को नीतीश की पहल मानते हुए आआपा को बुला लिया जाए, पर क्या कांग्रेस अध्यादेश प्रसंग पर उसे उपकृत करेगी? अभी तक कांग्रेसी तत्वावधान में होने वाली बैठकों में आआपा को बुलाया नहीं जाता। पर पटना में अरविंद केजरीवाल थे और बैठक के पहले से अपनी शर्तें रख रहे थे। पटना में लगे कांग्रेसी पोस्टर में केजरीवाल की तस्वीर को जगह दी गई थी। बावजूद इसके कि आआपा चूहे की तरह कांग्रेस की जमीन में बिल बना रही है। गुजरात में उसने कांग्रेस को खासा नुकसान पहुंचाया व पंजाब पूरी तरह हथिया लिया।
पलीता पार्टी
दूसरी तरफ, केजरीवाल ने राहुल और खरगे से संपर्क की कोशिशें भी जारी रखी हैं। उनकी शिकायत है कि कांग्रेस सकारात्मक जवाब नहीं देती। राजस्थान जाकर उन्होंने कांग्रेस सरकार पर आक्रामक टिप्पणियां भी कीं। केजरीवाल ‘पलीता’ विशेषज्ञ के रूप में उभरे हैं। सुबह किसी की आरती उतारेंगे और शाम को उस पर कीचड़ उछालेंगे। दिल्ली के मंत्री सौरभ भारद्वाज ने हाल में कहा है कि दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस 2024 का लोकसभा चुनाव न लड़े तो हमारी पार्टी मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेगी। फिलहाल वे दिल्ली अध्यादेश को लेकर कांग्रेस का समर्थन चाहते हैं।
एक सवाल और है। संभावित एकता फॉर्मूला लोकसभा चुनाव के लिए होगा या अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी लागू होगा? मध्य प्रदेश में चुनाव अभियान शुरू हो गया है। 27 जून को भोपाल में प्रधानमंत्री की रैली के साथ एक प्रकार से चुनाव के नगाड़े बज चुके हैं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच सख्ती से होगी। आआपा ने भी मध्य प्रदेश में अभियान शुरू कर दिया है। उसने छत्तीसगढ़ सरकार को भ्रष्टाचार का अड्डा बताया है। उसकी रणनीति दोनों राज्यों में गुजरात शैली में प्रचार करने की है। बेंगलुरु बैठक में केजरीवाल शामिल हुए, तो यह देखना रोचक होगा कि वे क्या बातें करेंगे।
इच्छाधारी विचारधारा
पार्टियों के विचार परिवर्तन पर वोटर भी नजर रखता है। ‘आदर्शवाद’ और ‘अवसरवाद’ के फर्क को वह पहचानता है। विचारधाराओं का इस्तेमाल टॉयलेट पेपर की तरह हो रहा है। पर पंथनिरपेक्षता के गुलाबी लिफाफे में रखने से भ्रष्टाचार की कालिख का रंग बदल नहीं जाता। मतदाता भी भेड़-बकरी नहीं हैं। पार्टियों या नेताओं के साथ आने भर से एक-दूसरे के विरोधी मतदाता साथ खड़े नहीं हो जाते हैं। ‘वन-टू-वन’ उम्मीदवार खड़े करने को जीत की गारंटी नहीं मान लेना चाहिए।
आआपा जिन पक्षों-विपक्षियों पर लानतें भेजते हुए पैदा हुई थी। अब उन्हीं से समर्थन मांग रही है। उधर, नीतीश कुमार का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो उसमें ईसीजी रिपोर्ट जैसी ऊंची-नीची रेखाएं दिखाई पड़ेंगी। ममता उन चुनिंदा राजनेताओं में से हैं, जो राजग और संप्रग, दोनों सरकारों में शामिल रही हैं। ऐसे ही द्रमुक साथ रहा है। पूछें कि शरद पवार ने कांग्रेस क्यों छोड़ी थी? एकता के पटना आयोजन के पीछे ममता बनर्जी का विचार था कि जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1977 में जनता पार्टी की एकता तैयार की, वैसा ही अब होगा। पर इस बैठक में किसी ने न जयप्रकाश का नाम लिया और न इंदिरा गांधी का। उस पर विस्तार से बात करना तो दूर की बात है।
पटना की बैठक में 15 राजनीतिक दल शामिल हुए थे। नीतीश कुमार का कहना है कि कुछ और पार्टियां इसमें शामिल हो सकती हैं, पर बड़ा सवाल यह है कि बेंगलुरु में यह संख्या 15 ही रहेगी या 14 हो जाएगी?
बुनियादी सवाल
पटना का आयोजन विचार-मंथन, संभावनाएं खोजने और साझा रणनीति बनाने पर केंद्रित था। लगता है बातचीत कुछ बुनियादी सवालों पर रुकेगी। पहला बुनियादी सवाल है, यह पहल किसकी है? बैठक पटना में थी और उसकी व्यवस्था नीतीश कुमार ने की थी, इसलिए श्रेय उन्हें जाता है। उनके पीछे ममता बनर्जी की प्रेरणा है। पर एकता के सूत्र केवल नीतीश तैयार नहीं करेंगे। सिद्धांतत: सभी नेता मिलकर ये सूत्र बनाएंगे। पर, व्यावहारिक राजनीति नेपथ्य में ज्यादा होती है, मंच पर कम। पटना में ज्यादातर वही नेता आए थे, जो आमतौर पर गैर-भाजपा सरकारें बनने पर शपथ-ग्रहण के समय मंच पर खड़े होकर हाथ ऊंचे करके फोटो खिंचाते हैं। कर्नाटक के अतिथि पटना में भी आए थे। ममता बनर्जी पटना में आई थीं, जबकि बेंगलुरु में उन्होंने अपनी प्रतिनिधि काकोली घोष दस्तीदार को भेजा था। पिछले कुछ महीनों में ममता के बयानों में विसंगति है। त्रिपुरा के चुनाव के बाद उन्होंने कहा, ‘अब हम अकेले लड़ेंगे’ और कर्नाटक के परिणाम के बाद कहा, ‘हम विरोधी-एकता के लिए तैयार हैं।’
पश्चिम बंगाल का मायाजाल
पश्चिम बंगाल में तृणमूल का मुकाबला भाजपा के अलावा वाम मोर्चा से है। एक तरफ कांग्रेस और वाममोर्चा के रिश्ते स्पष्ट करने की कोशिशें हैं, वहीं अधीर रंजन चौधरी ने एक साक्षात्कार में कहा है कि ‘गठबंधन राजनीति’ की सबसे कमजोर कड़ी ममता हैं। उन्होंने हमेशा ‘ट्रोजन हॉर्स’ की भूमिका निभाई है। इधर, केरल के कांग्रेस अध्यक्ष सुधाकरन की गिरफ्तारी से कांग्रेस और वाममोर्चा के रिश्तों की खटास बढ़ गई है।
तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अब भाजपा से ज्यादा कांग्रेस से खतरा महसूस कर रही हैं। सपा और तृणमूल जैसी पार्टियां चाहती हैं कि कांग्रेस उनके राज्य में मैदान छोड़े या हर चुनाव क्षेत्र में एक साझा उम्मीदवार देने के लिए उनके मातहत आ जाए। कांग्रेस पहले से तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में मातहत की भूमिका में है।
अनुपस्थित नेता
जितने महत्वपूर्ण बैठकों में उपस्थित नेता रहे हैं, उतने ही महत्वपूर्ण अनुपस्थित नेता भी हैं। बेंगलुरु में केजरीवाल, के. चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी, नवीन पटनायक और मायावती की उपस्थिति नहीं थी। चंद्रबाबू नायडू भी नहीं थे, वही चंद्रबाबू जो 2019 के चुनाव के पहले ऐसे ही विरोधी मोर्चे का गठन कर रहे थे, जैसा नीतीश इस समय कर रहे हैं। इनमें से केवल केजरीवाल पटना में उपस्थित थे, पर वह भी सभा के बीच से उठकर चले गए।
भौगोलिक दृष्टि से इस योजना में केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा की भागीदारी नहीं है। कर्नाटक का जद(एस) भी इसमें शामिल होने वाला नहीं है। यह स्पष्ट नहीं है कि सीताराम येचुरी केरल गुट का प्रतिनिधित्व करते हैं या बंगाल गुट का। पंजाब का अकाली दल भी इस योजना से बाहर है और हरियाणा के गैर-भाजपा दलों की उपस्थिति भी इसमें नहीं है। कांग्रेस को छोड़कर शेष सभी की दिलचस्पी केवल एक-एक राज्य तक सीमित है। फिर भी आधा दर्जन नेताओं की निगाहें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं। नीतीश को भरोसा है कि वे भाजपा को 100 सीटों के भीतर निपटा सकते हैं, तो यकीनन वह इतने से ही संतुष्ट नहीं होंगे। वे देश की ‘सेवा’ भी करना चाहेंगे।
तीन के तेरह
गठबंधनों का गणित आसान नहीं होता। फिर भी मान लेते हैं कि तीन राज्यों के पचड़े निपट जाएं, तो विरोधी एकता में दिक्कत नहीं होगी। ये राज्य हैं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब। केजरीवाल के रुख को देखते हुए पंजाब में गठबंधन मुश्किल लगता है। पटना में ममता बनर्जी काफी उत्साहित थीं। क्या पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदल का तृणमूल के साथ गठबंधन होगा? क्या ममता कुछ सीटें छोड़ने को तैयार हो जाएंगी?
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का क्या बसपा या सपा (या दोनों) के साथ गठबंधन होगा? राज्य में विधानसभा और लोकसभा चुनावों का रोचक अनुभव है कि दो दलों का गठबंधन होने पर वोट और सीटें कम हो जाती हैं। पटना की बैठक में रालोद के जयंत चौधरी नहीं आए। क्या वे बेंगलुरु में आएंगे? कर्नाटक में कांग्रेस ने खुद को मुसलमानों की पार्टी साबित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। क्या समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में यह शुभ संदेश है?
बिहार विधानसभा चुनाव का अनुभव है कि जिन जगहों पर भाजपा से सीधे मुकाबला हुआ, वहां कांग्रेस कमजोर साबित हुई। प. बंगाल में पंचायत चुनाव चल रहे हैं, जिसमें कांग्रेस, वामदल और तृणमूल का दांते काटे का सामना है। उनकी दोस्ती कैसे होगी? फिर भी मान लेते हैं कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है, पर यह ‘असंभव-संभव’ ज्यादातर ‘पोस्ट-पोल’ होता रहा है। ममता और येचुरी दोनों ‘पोस्ट-पेड’ पर यकीन करते हैं।
टिप्पणियाँ