भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से ऊपर का दर्जा दिया गया है। जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु है। स्वयं को तपाकर विद्यार्थी के प्रशस्ति का मार्ग गुरु ही बनाता है। भारतीय मनीषियों ने गुरु की महत्ता का बखान किया है। पाश्चात्य विचारकों ने भी भारत की गुरु-शिष्य परंपरा के बारे में मत व्यक्त किये हैं। पश्चिम जर्मन के दार्शनिक शोपेनहॉवर ने तो यहां तक कहा है कि विश्व में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति हुई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि भारत से। पढ़ें भारतीय मनीषियों और पश्चिम के दार्शनिक के विचार
ऋग्वेद में है ये उल्लेख
मार्ग को न जानने वाला अवश्य ही मार्ग को जानने वाले से पूछता है। वह क्षेत्रज्ञ विद्वान से शिक्षित होकर उत्तम मार्ग को प्राप्त करता है। गुरु के अनुशासन का यही कल्याणदायक फल है कि अनुशासित अज्ञपुरुष भी ज्ञान को प्रकाशित करने वाली वाणियों को प्राप्त करता है। – ऋग्वेद
स्वामी विवेकानंद का कथन
हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसके महान गुरुओं ने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है। समय की प्रचंड धाराओं में जहां यूनान, रोम, सीरिया, बेबीलोन जैसी तमाम प्राचीन संस्कृतियां बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं। वहीं, एकमात्र हमारी भारतीय संस्कृति इन प्रवाहों के समक्ष चट्टान के समान अविचल बनी रही, क्योंकि हमें हमारी आत्मज्ञान संपन्न दिव्य-विभूतियों का सशक्त मार्गदर्शन सतत मिलता रहा। -स्वामी विवेकानंद
पीढ़ियों तक आत्मज्ञान की पूंजी पहुंचाने का दिव्य सोपान
‘‘गुरु-शिष्य परंपरा आत्मज्ञान की पूंजी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का दिव्य सोपान है। प्राचीन काल में जब किसी आत्मज्ञान के जिज्ञासु साधक के अंतस में अंतरप्रज्ञा जाग्रत होती थी, तो वह ऐसे सुपात्र को खोजता था, जिसे उस आत्मज्ञान को हस्तांतरित कर सके। भारत में यह सिलसिला बिना किसी बाधा के सदियों तक चलता रहा। पौराणिक युग में परशुराम, कणाद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, संदीपनि, व्यास, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अगत्स्य आदि ऋषियों की सुदीर्घ शृंखला ने देश को ऐसे-ऐसे नर रत्न दिए, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वैदिक युग में शुरू हुई यह परंपरा 18वीं-19वीं सदी तक क्रमिक रूप से कायम रही।’’ – पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
भारत और वैदिक साहित्य को किया प्रणाम
‘‘विश्व में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति हुई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि भारत से। जिज्ञासु शिष्यों ने ज्ञानी गुरु के सान्निध्य में उनके प्रतिपादनों को क्रमबद्ध कर उपनिषदों के रूप में दुनिया को जो दिव्य धरोहर दी थी, उसका कोई सानी नहीं है। यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहां के मानव ने अपने हृदय में दैवीय गुणों का पूर्ण विकास किया, तो मेरी उंगली भारत की ओर ही उठेगी। यदि मैं स्वयं से पूछूं कि वह कौन सा साहित्य है, जिससे ग्रीक, रोमन और यहूदी विचारों में पलते आए यूरोपवासी प्रेरणा ले सकते हैं, तो मेरी उंगली केवल भारत के इस वैदिक साहित्य की ओर ही उठेगी।’’ – दार्शनिक शोपेनहॉवर
स्कंदपुराण में बताया गया गुरु शब्द का अर्थ
गु शब्द का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है तेज, अज्ञान का नाश करने वाला तेजरूप ब्रह्म, गुरु ही है, इसमें संशय नहीं है। – स्कंदपुराण
ये है गुरु की महिमा
जिसने ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से अज्ञानरूपी अंधेरे से अंधी हुई आंखों को खोल दिया, उन श्री गुरु को नमस्कार है। ध्यान का आदिकारण गुरु मूर्ति है। गुरु का चरण पूजा का मुख्य स्थान है। गुरु का वाक्य सब मंत्रों का मूल है और गुरु की कृपा मुक्ति का कारण है। -स्कंदपुराण
तब गुरु अंकुश के समान होता है
जब शिष्य अज्ञान के कारण मार्ग को छोड़ देता है तभी गुरु उसके लिए अंकुश के समान हो जाता है। उसे सन्मार्ग में लगाता है। – विशाखादत्त
गुरुओं की कठोर वाणी का भी महत्व
गुरुओं की कठोर अक्षरों वाली वाणी से तिरस्कृत मनुष्य महत्व प्राप्त करते हैं। सान पर घिसे बिना मणि राजाओं के सिर पर स्थान नहीं पाती है।
– पंडितराज जगन्नाथ
शिष्य का दोष गुरु पर आता है
बंधुओं तथा मित्रों पर नहीं, शिष्य का दोष केवल उसके गुरु पर आ पड़ता है। माता-पिता का अपराध भी नहीं माना जाता क्योंकि वे तो बाल्यावस्था में ही अपने बच्चों को गुरु के हाथों में समर्पित कर देते हैं।
– भास
सद्गुरु से बढ़कर कोई नहीं
सद्गुरु से बढ़कर तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं है। – एकनाथ
टिप्पणियाँ