वरिष्ठ पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने आपातकाल को बेहद करीब से देखा है। उन्हें आज भी आपातकाल का दमन याद है। पत्रकार रहते हुए उन्होंने आपातकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण लोगों को पुलिस की नजर से बचाया। पाञ्चजन्य के लखनऊ ब्यूरो प्रमुख सुनील राय ने आपातकाल से जुड़े घटनाक्रमों पर उनसे विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के संपादित अंश:-
आपातकाल के उस काले दौर की वे कौन सी घटनाएं हैं जो एकदम से ध्यान आती हैं?
मैं 1976 में अमर उजाला समाचारपत्र में ब्यूरो प्रमुख था और लखनऊ के लालकुआं मुहल्ले में रहता था। आपातकाल में भूमिगत लोगों का मेरे घर आना-जाना रहता था। नारायण दत्त तिवारी उस समय उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री थे। वे भी मेरे घर अक्सर आया करते थे। ऐसे में सीआईडी आदि एजेंसियों की मेरे घर पर नजर रहती थी। जाड़े की एक सुबह दरवाजे की घंटी बजी। सोशलिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता के साथ एक मौलाना दरवाजे पर खड़े थे। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता को तो मैं पहचानता था। मैंने उनसे पूछा कि क्या काम है? उन्होंने कहा कि अन्दर बैठ कर बात करनी है। वे लोग अन्दर आ गए। घर में एक अंग्रेजी समाचार पत्र के विशेष संवाददाता पीयूष कांति रॉय ठहरे हुए थे। संघ से संपर्क होने के कारण उनके खिलाफ वारंट जारी हुआ था।
मैंने पीयूष कांति को जल्दी से दूसरे कमरे में भेजा, उसके बाद मैं उनसे बात करने लगा। जैसे ही बातचीत शुरू हुई, उस सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता ने बताया कि मौलाना साहब दरअसल कर्पूरी ठाकुर हैं। उन्होंने पुलिस से बचने के लिए ऐसा रूप बनाया हुआ है। कर्पूरी ठाकुर को उस समय पुलिस सरगर्मी से तलाश रही थी। उन्होंने बताया कि वे चन्द्रभानु गुप्ता से मिलना चाहते हैं। उस समय चन्द्रभानु गुप्ता अपने घर में नजरबंद थे। लोग उनसे मिलने जाते थे मगर सीआईडी की नजर मुलाकातियों पर रहती थी। इसके बाद मैंने राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ से बात की। वे चन्द्रभानु गुप्ता के यहां संदेश लेकर गए।
चन्द्रभानुजी पान दरीबा वाले घर में रहते थे। वहां पर मुलाकात का समय तय हो गया। मैंने एक रिक्शा वाले को बुलाकर उसे रास्ता समझाया और कर्पूरी ठाकुर को उसमें बैठा दिया। कर्पूरी ठाकुर से मैंने कहा, ‘‘रिक्शे से उतर के गुप्ता जी के घर के अन्दर ऐसे प्रवेश करिएगा जैसे वहां आपका हर दिन का आना-जाना हो। उन्होंने वैसा ही किया। मुलाकात के बाद वे फिर से घर पर आए। भोजन के बाद मैंने उन्हें सिटी स्टेशन पहुंचाया। इसका विवरण कर्पूरी ठाकुर ने अपनी जीवनी में भी दिया है।
एक और संस्मरण याद आ रहा है। आपातकाल के दौरान ही एक दिन मुझे सुबह जोर से किसी ने पुकारा। देखा तो रज्जू भैया गाड़ी में बैठे हुए थे। मैं भागकर नीचे आया। मैंने उन्हें अन्दर बुलाया। उन्होंने कहा कि अन्दर नहीं आऊंगा। जल्दी से आइए, रेलवे स्टेशन चलना है। एक कार्यकर्ता ट्रेन से आ रहे हैं, उन्हें लेना है। मैं जब गाड़ी में बैठा तो उनसे कहा कि आपको पुलिस ढूंढ रही है। ये आप क्या कर रहे हैं। तो रज्जू भैया ने कहा, ‘ये सीआईडी वाले मुझे नहीं पहचान पाएंगे।’ चारबाग रेलवे स्टेशन से कार्यकर्ता को लेकर मैं घर आ गया।
आपातकाल लागू हो जाने के बाद पुलिस मनमाने तरीके से काम कर रही थी। राजनीतिक विरोधियों को चुन-चुनकर जेल भेजा जा रहा था। 80 वर्ष की उम्र के लोगों को बिजली का तार काटने का झूठा आरोप लगा कर जेल भेजा जा रहा था। कोई सुनने-समझने वाला नहीं था।
उन दिनों प्रेस का जिस प्रकार गला घोंटा गया था, उस पर क्या कहेंगे?
प्रेस पर सेंसर लगा हुआ था। हर संवाददाता को अपनी खबर को सूचना विभाग में भेजना पड़ता था। वहां पर एक सेंसर वाला व्यक्ति बैठा रहता था, वह उस खबर को जांचता था। वहां से स्वीकृति मिलने के बाद ही खबर छपती थी। जो खबर ठीक नहीं लगती थी, उसे देर से जारी करते थे, ताकि वह छप ना पाए। करीब 11 महीने तक ऐसे ही चलता रहा है। हेमवती नंदन बहुगुणा के हटने के बाद नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने। तिवारी जी ने पत्रकारों की एक बैठक बुलाई और कहा, ‘मैं यह सेंसर वाली व्यवस्था खत्म करना चाहता हूं। आप सभी एक जिम्मेदार पत्रकार हैं। आप सभी को अपनी जिम्मेदारी के बारे में भली भांति मालूम है। अगर कोई गड़बड़ी होगी तो आप लोग जिम्मेदार होंगे।’ इसके साथ ही सेंसर वाली व्यवस्था समाप्त हो गई। आपातकाल में प्रेस मालिक पहले से ही डरे हुए थे। जिस रात आपातकाल लागू किया गया, उसी रात कानपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक दैनिक जागरण के सम्पादक नरेन्द्र मोहन के घर शाम का भोजन करने गए थे। लेकिन जब पुलिस अधीक्षक अपने आवास पर पहुंचे तो आपातकाल की घोषणा हो चुकी थी और उनको आदेश मिला कि नरेन्द्र मोहन को गिरफ्तार किया जाए। पुलिस अधीक्षक फिर से नरेन्द्र मोहन के घर पहुंचे। घर के अंदर दाखिल होने के बाद उन्होंने बताया कि आपको गिरफ्तार करने का ऊपर से आदेश आया है और नरेन्द्र मोहन गिरफ्तार कर लिए गए।
तब न्यायपालिका की क्या भूमिका रह गई थी?
आपातकाल लागू हो जाने के बाद पुलिस मनमाने तरीके से काम कर रही थी। राजनीतिक विरोधियों को चुन-चुनकर झूठे आरोपों में जेल भेजा जा रहा था। किसी की उम्र 80 वर्ष की है, उस पर बिजली का तार काटने का आरोप लगा कर जेल भेज दिया। या फिर आरोप लगा दिया कि इंदिरा गांधी के खिलाफ भाषण दे रहे थे। इस तरह के मुकदमे लगाकर लोगों को जेल भेजा जा रहा था। जनपद न्यायालयों में लोगों को जमानत के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। उस समय पुलिस ‘मीसा’ की धाराएं लगा कर जेल भेज रही थी। करीब 19 महीने बाद जब आपातकाल हटा तो लोग रिहा होने शुरू हुए। यह थी न्यायालय की भूमिका।
क्या उस दौर में राजनीतिक गतिविधियां चलती थीं?
हां, राजनीतिक गतिविधियां गोपनीय ढंग से चलती थीं। खुलेआम सरकार का विरोध करने वाले को जेल भेजा जाता था। उन्हें मीसा के तहत बंदी बनाया जाता था। आपातकाल के दौरान कांग्रेस जनाधार खो चुकी थी। आपातकाल जैसे ही हटा तो आम चुनाव हुए। कांग्रेस को आजादी के बाद सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
इंदिरा सरकार ने 42वां संविधान संशोधन किया था। उस पर आम प्रतिक्रिया क्या थी?
संविधान का 42वां संशोधन जब किया गया था, उसके बाद इसकी काफी आलोचना हुई थी। इस पर एक लम्बी बहस भी हो चुकी है। हां, ये जरूर है कि आपातकाल के ठीक बाद जब जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में संशोधन किया था, उस संशोधन का उद्देश्य यह था कि भविष्य में कोई भी सरकार शक्तियों का दुरुपयोग करके आपातकाल न लगा पाए। इस संशोधन की हर तरफ प्रशंसा हुई थी।
आपातकाल के उस दौर से जुड़े इतिहास के अभिलेखन के काम पर क्या कहना चाहेंगे?
आपातकाल की घटनाओं का अभिलेखन किया गया है। आपातकाल पर संस्मरण और कविताएं भी लिखी गई हैं। प्रोफेसर अरुण कुमार भगत ने आपातकाल की घटनाओं पर किताबें लिखी हैं। लेकिन मैं चाहता हूं कि आपातकाल में जो कुछ भी हुआ, वह इतिहास का हिस्सा बन जाए, इस दिशा में कार्य होना चाहिए। उस दौर में जो कुछ भी हुआ, उसे बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल किया
जाना चाहिए।
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