25 जून, 1975 की रात 12 बजे आपातकाल की घोषणा की थी। इसके बाद देखते-देखते देश पुलिस स्टेट में बदल गया था। सरकारी आदेशों के प्रति वफादारी दिखाने की होड़ में पुलिस वालों ने बेकसूर लोगों को झूठे आरोपों में जेलों में ठूंसना शुरू कर दिया। पुलिस की बर्बरता सारी हदें पार कर गई थी। सरकार की तानाशाही और जुल्म के विरुद्ध राष्ट्रवादी संस्थाओं, नेताओं और देशभक्तों ने देशभर में प्रचंड सत्याग्रह शुरू किया।
इलाहबाद उच्च न्यायालय से सजा मिलने के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए 25 जून, 1975 की रात 12 बजे आपातकाल की घोषणा की थी। इसके बाद देखते-देखते देश पुलिस स्टेट में बदल गया था। सरकारी आदेशों के प्रति वफादारी दिखाने की होड़ में पुलिस वालों ने बेकसूर लोगों को झूठे आरोपों में जेलों में ठूंसना शुरू कर दिया। पुलिस की बर्बरता सारी हदें पार कर गई थी। सरकार की तानाशाही और जुल्म के विरुद्ध राष्ट्रवादी संस्थाओं, नेताओं और देशभक्तों ने देशभर में प्रचंड सत्याग्रह शुरू किया।
रेलवे स्टेशनों, भीड़-भाड़ वाले चौराहों, सिनेमाघरों, सरकारी, गैर सरकारी सार्वजनिक सम्मेलनों, बसों अड्डों, मंदिरों, गुरुद्वारों ही नहीं, अदालतों और इंदिरा गांधी की सभाओं में भी सत्याग्रह होने लगा। इंदिरा गांधी दिल्ली के लालकिले में लगभग 200 विदेशी सांसदों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक कार्यक्रम को संबोधित करने वाली थीं। वे यह दिखाना चाहती थीं कि ‘भारत में लोग प्रसन्न हैं। आपातकाल का कहीं विरोध नहीं हो रहा, सभी राजनीतिक दल अपना कार्य कर रहे हैं, देश में अनुशासन पर्व चल रहा है।’ जैसे ही इंदिरा गांधी ने बोलना शुरू किया, लगभग 20 सत्याग्रही युवा स्वयंसेवक मंच पर चढ़कर ‘वन्देमातरम्’, ‘भारत माता की जय’, ‘जयप्रकाश जिंदाबाद’ आदि नारे लगाने लगे। इस दृश्य को विदेशियों ने अपने कैमरों में कैद कर लिया और दुनिया में इंदिरा गांधी के ‘अनुशासन पर्व’ की पोल खुल गई।
सत्ता प्रेरित आतंक
संविधान, संसद, न्यायालय, प्रेस, लोकमत और राजनीतिक शिष्टाचार इत्यादि की धज्जियां उड़ा कर देश में आपातकाल की घोषणा का सीधा अर्थ था निरंकुश सत्ता की स्थापना। अर्थात् वकील, दलील और अपील सब समाप्त। इस सरकारी अत्याचार के विरुद्ध देशवासियों द्वारा सड़कों पर उतर कर सत्ता प्रेरित दहशतगर्दी के विरुद्ध संगठित जन संघर्ष का बिगुल बजाने का सीधा अर्थ था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की उक्त पंक्ति सत्याग्रहियों का महामंत्र बन गई थी।
देश के विभाजन के पूर्व जिस तरह ‘वन्देमातरम्’ स्वतंत्रता सेनानियों को सर्वस्व त्याग की प्रेरणा देता था, उसी प्रकार दिनकर की कविता ने देशवासियों को अहिंसक प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। एकतरफा पुलिसिया कहर भी राष्ट्र भक्ति के युवा उफान को रोक नहीं सका। देशभर की जेलें लाखों सत्याग्रहियों के लिए छोटी पड़ गईं। जेलों के अंदर खुले मैदान में तंबू लगा दिए गए थे। मानो किसी कुंभ के मेले में तीर्थ यात्री ठहरे हों। सरकारी निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को हिरासत में यातनाएं दी जाती थीं। सत्याग्रहियों को पुलिस की गाड़ियों में भेड़-बकरियों की तरह ठूंस कर रात के अंधेरे में जब जेल लाया जाता था, तब उनके गगनभेदी उद्घोषों ‘खोलो-खोलो जेल के फाटक, सरफरोशी आए हैं’, ‘भारत माता की जय’, ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘समग्र क्रांति अमर रहे’ जैसे नारों से समूची बस्ती और जेल गूंज उठती थी। दिल्ली की तिहाड़ जेल में ही 3,000 से अधिक सत्याग्रही बंद थे।
देशभर की जेलों में कांग्रेस को छोड़ कर शेष सभी विपक्षी दलों के लोग थे। इनमें लगभग 95 प्रतिशत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। सभी सत्याग्रही ‘लोक संघर्ष समिति’ और ‘युवा छात्र संघर्ष समिति’ के बैनर तले अपनी गतिविधियों को अंजाम देते थे। जेलों में पहुंच कर भी सब ने समरसता, एकता एवं अनुशासन का परिचय दिया। विभिन्न विचारों और दलों के सत्याग्रहियों का एक ही उद्देश्य था-तानाशाही समाप्त कर लोकतंत्र को पुन: बहाल करना। राजनीतिक कैदियों की कई श्रेणियां थीं।
प्रथम श्रेणी में वे लोग थे जिन्हें 25 जून, 1975 की रात को ही गिरफ्तार कर लिया गया था। इनमें जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुरेंद्र मोहन, प्रकाश सिंह बादल जैसे सैकड़ों बड़े नेताओं के साथ लगभग 20 हजार कार्यकर्ता थे। ‘मीसा’ (मेनटेनैंस आफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) के तहत गिरफ्तार दूसरी श्रेणी में भूमिगत रह कर आंदोलन का संचालन करने वाले लोग थे, जिन्हें पकड़ने के लिए पुलिस को बहुत परिश्रम करना पड़ता था। हालांकि इनकी संख्या बहुत कम थी। इनमें भी अधिक संघ के प्रचारक ही थे। तीसरी श्रेणी में योजनाबद्ध तरीके से सार्वजनिक स्थानों पर सत्याग्रह करने वाले 15 से 25 वर्ष के विद्यार्थी थे, जिनकी संख्या लगभग 2 लाख थी। इसलिए जेल प्रशासन को तंबू लगाने पड़े।
पुलिस से बचने के लिए अनेक आंदोलनकारी भूमिगत हो गए थे। ये मंदिरों की छतों, पार्कों, जेल जाने वाले कार्यकर्ताओं के घरों और श्मशान स्थल आदि बैठकें करते थे। इन्होंने अपने नाम और यहां तक कि वेशभूषा और भाषा तक बदल ली थी। संघ की ओर से एक सहायता कोष बनाया गया। ऐसे परिवार, जिसमें कमाने वाला सदस्य जेल चला गया हो उनके लिए आर्थिक व्यवस्था की गई। इसका बीड़ा धनाढ्य स्वयंसेवकों ने उठाया। तानाशाही के विरुद्ध कश्मीर से कन्याकुमारी तक शुरू जन संघर्ष आपातकाल के हटने तक लगातार जारी रहा।
इन सत्याग्रहियों ने हर कष्ट सहकर तानाशाह सरकार को घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया था। संघ की शाखाओं से राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण की भावना से संस्कारित युवाओं की मस्ती देखने योग्य थी। इन तीन श्रेणियों के अलावा, एक श्रेणी ऐसी भी थी, जिसने न तो भूमिगत रहकर आंदोलन किया और न ही जेल गए। आपातकाल की घोषणा होते ही ये लोग छिप गए। कुछ हरिद्वार चले गए, कुछ रिश्तेदारों के यहां, कुछ विदेश भाग गए। ऐसे भीरू लोगों की संख्या नगण्य थी, फिर भी इनमें से अधिकांश को पुलिस ने ढूंढ़-ढूंढ़ कर गिरफ्तार किया। पांचवीं श्रेणी में भूमिगत रहकर आंदोलन करने वाले थे, जो आखिर तक पुलिस के हाथ नहीं आए। ये जेल में बंद साथियों के परिवारों की देखभाल करते थे। इनके संगठन कौशल, सूझ-बूझ और बुद्धिमता का लोहा सभी ने माना। ऐसे नेताओं (संघ के अखिल भारतीय अधिकारी) के प्रयासों से ही उस समय जनता पार्टी अस्तित्व में आई थी।
जेल में भी इन कार्यकर्ताओं की दिनचर्या आदर्श, अद्भुत और मस्ती भरी रही। प्रात: से रात्रि तक शारीरिक एवं बौद्धिक कार्यक्रमों में व्यस्त आनंदपूर्वक रहने वाले इन आंदोलनकारियों ने जेल को एक अनिश्चितकालीन प्रशिक्षण शिविर बना दिया था। प्रात: सामूहिक स्मरण एवं प्रार्थना, आसन, प्राणायाम, स्नान के बाद आरती, फिर अल्पाहार, हवन या रामायण पाठ, सहभोज तथा विश्राम के बाद नित्य बौद्धिक वर्ग, सायं को शाखा कार्यक्रम, रात्रि भोजन के बाद नियमित भजन-कीर्तन कर सामूहिक जीवन जीने और संस्थागत संस्कारों भी निरंतरता बरकरार रखी। इस तरह, जेल के बाहर भूमिगत कार्यकर्ताओं की तपस्या और जेल में उनकी आनंदमयी साधना के फलस्वरूप देश को आपातकाल की निरंकुशता से छुटकारा मिल सका।
बाल स्वयंसेवकों को हिरासत में यातनाएं
आपातकाल सरकारी अत्याचारों का पर्याय बन गया था। सत्ता के इशारे पर बेकसूर जनता पर जुल्म ढा रही पुलिस की नजरों से बचकर भूमिगत आंदोलन चलाना कितना कठिन रहा होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार ने प्रेस की आजादी का गला घोंटकर सभी प्रकार की खबरों पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिन अखबारों और पत्रिकाओं ने आपातकाल की घोषणा का समाचार छापा उन पर तुरंत ताले जड़ दिए गए थे। जनता की आवाज को पूरी तरह दबा दिया गया था। सत्याग्रह की सूचनाएं और समाचार जनता तक पहुंचाने के लिए संघ के स्वयंसेवकों ने लोकवाणी, जनवाणी, जनसंघर्ष इत्यादि नामों से भूमिगत पत्र—पत्रिकाएं प्रारंभ कर दीं। इन्हें रात के अंधेरे में छापा जाता था। फिर संघ के बाल स्वयंसेवक इन्हें घर-घर बांटते थे। कहीं-कहीं तो हाथ से लिखे पर्चे बांटे जाते थे। देशभर में छपने और बंटने वाले इन पत्रों ने तानाशाही की जड़ें हिलाकर रख दीं। कई स्थानों पर छापे पड़े, कार्यकर्ता व बाल स्वयंसेवक भी पत्र बांटते हुए गिरफ्तार किए गए। पुलिस ने देश के विभिन्न स्थानों से गिरफ्तार 500 से अधिक बाल एवं शिशु स्वयंसेवकों को यातनाएं दीं, फिर भी उन्होंने मुंह नहीं खोला।
सत्याग्रही-परिवारों की देखभाल
पुलिस से बचने के लिए अनेक आंदोलनकारी भूमिगत हो गए थे। ये मंदिरों की छतों, पार्कों, जेल जाने वाले कार्यकर्ताओं के घरों और श्मशान स्थल आदि बैठकें करते थे। इन्होंने अपने नाम और यहां तक कि वेशभूषा और भाषा तक बदल ली थी। संघ की ओर से एक सहायता कोष बनाया गया। ऐसे परिवार, जिसमें कमाने वाला सदस्य जेल चला गया हो उनके लिए आर्थिक व्यवस्था की गई। इसका बीड़ा धनाढ्य स्वयंसेवकों ने उठाया। तानाशाही के विरुद्ध कश्मीर से कन्याकुमारी तक शुरू जन संघर्ष आपातकाल के हटने तक लगातार जारी रहा।
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