राजस्थान के झुंझुनू में 24 जून, 1975 को संघ शिक्षा वर्ग का समारोप कार्यक्रम था। कुछ अनहोनी की चर्चा चल रही थी। मैं अपने कार्यक्षेत्र सीकर पहुंचा ही था। मैं वहां जिला प्रचारक था। 26 जून को प्रात: समाचार मिला कि संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। पुलिस संघ कार्यकर्ताओं को खोज रही है, सभी को भूमिगत होना था।
जयपुर जाकर प्रांत प्रचारक ब्रह्मदेव जी एवं विभाग प्रचारक सोहन सिंह जी से मार्गदर्शन प्राप्त किया। वे भी भूमिगत थे, लेकिन संपर्क में थे। सीकर आकर भूमिगत रहते हुए पुलिस से बचना तथा अन्य भूमिगत कार्यकर्ताओं से संपर्ककरना जरूरी था। मैंने प्रयास किया, लेकिन जिले की कोई बैठक नहीं हो पाई। सीकर नगर प्रचारक अशोक कम्बोज अधिक चतुर एवं साहसी थे। हम नहीं मिल पाए, लेकिन संदेशों का आदान-प्रदान होता रहा। केंद्र से व्यक्तिगत सत्याग्रह की योजना बनी। सोहन सिंह जी ने जिले की लोक संघर्ष समिति बनाने का निर्णय लिया। 15 अगस्त को सत्याग्रह होना था। अशोक जी के प्रयत्नों से सीकर में सत्याग्रह हुआ।
रींगस और नीम का थाना के बीच एक कस्बा है कांवट। पता चला कि वहां एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी रहते हैं। उनका नाम पंडित बंशीधर शर्मा था, वे 80 वर्ष के थे। मैं उनके पास गया। आपातकाल, जे.पी. को जेल तथा संघ पर प्रतिबंध, ये सब बातें मैंने उनसे कहीं। वह कम बोलते थे। उन्होंने धीरज से पूरी बात सुनी। वह बस्ती से दूर अपने खेत में रहते थे। केवल खादी का कच्छा-बनियान पहनते थे। मैंने कारण पूछा तो बोले, हम दोनों मिलकर जितना सूत कातते हैं, मेरी पत्नी की साड़ी बनने के बाद इतना ही बचता है, जिससे मेरा कच्छा और बनियान बन जाते हैं। मैंने उन्हें लोक संघर्ष समिति का अध्यक्ष बनने का निवेदन किया, वे मान गए। तय हुआ कि मैं 15 अगस्त को प्रात: कांवट से सीकर के लिए बस में बैठा दूंगा, सीकर में कार्यकर्ता उन्हें कार्यक्रम स्थल तक ले जाएंगे।
सीकर में कार्यकर्ता भूमिगत रह कर प्रकाशित साहित्य का निरंतर वितरण कर रहे थे। प्रशासन थोड़ा गुस्से में था। सीकर की दीवारें पोस्टरों से पाट दी गई थीं। उसमें लिखा था, ‘‘15 अगस्त को लोक संघर्ष समिति के अध्यक्ष सुभाष चौक पर आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह करेंगे।’’ कौन है लोक संघर्ष समिति का अध्यक्ष? कैसे होगा सत्याग्रह? मध्याह्न तीन बजे का समय तय था। स्थानीय कांग्रेस ने एक चाल चली। उसने घोषणा कर दी कि 15 अगस्त को मध्याह्न तीन बजे सुभाष चौक पर झंडारोहण होगा। कांग्रेस का समारोह प्रारम्भ हुआ। मैं 15 अगस्त, 1975 को पं. बंशीधर जी के पास कांवट पहुंचा। वे तैयार थे। मैंने उनको साहित्य का एक थैला दिया, उनके खेत से हम पैदल ही बस अड्डे पर आए। चलते हुए पंडित जी ने पूछा, तुम्हारा नाम क्या है? मैं अपना नाम बताना ही चाह रहा था कि उन्होंने यह कहकर रोक दिया, ‘जाने दो! मत बताओ।’
जेल में प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी। हमने सामान्य संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या लागू कर दी थी। हम उसे जे.टी.सी. कहते थे। यह दिनचर्या गैर-स्वयंसेवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए कौतुहल का विषय थी।
मैंने कहा- क्यों? वह बोले, ‘‘मैं अभी सत्याग्रह करके गिरफ्तार हो जाऊंगा। पुलिस पूछेगी, तुम्हारे पास कौन आया था? मैं झूठ तो बोलता नहीं हूं, अच्छा है तुम्हारा नाम मुझे पता नहीं है।’’ पंडित जी सीकर पहुंच गए। भूमिगत कार्यकर्ताओं ने उनका स्वागत किया। वहां पुलिस भी थी। कच्छा-बनियान पहने साहित्य का थैला एवं अपना चरखा लिए पंडित जी को कार्यकर्ता सुभाष चौक ले गए। वहां कांग्रेस का झंडारोहण चल रहा था। कांग्रेसी संघ एवं जे.पी. के खिलाफ भाषण दे रहे थे। कांग्रेस के कार्यकर्ता पंडित जी को पहचानते थे। वे पुराने कांग्रेसी थे। कार्यकर्ता खुश हुए।
बोले-‘बहुत खुशी की बात है कि स्वतंत्रता सेनानी पं. बंशीधर शर्मा हमारे मध्य आए हैं।’ उन्होंने पंडित जी को सादर मंच पर स्थान दिया तथा भाषण देने का आग्रह किया। पंडित जी माइक पर आए, बोले, ‘‘मैं पंडित बंशीधर शर्मा, आपातकाल के खिलाफ बनी लोक संघर्ष समिति का अध्यक्ष, यहां सत्याग्रह करने आया हूं।’’ तुरंत भगदड़ मच गई। माइक का तार काट दिया गया। कांग्रेसियों ने पंडित जी को जबरदस्ती बैठाना चाहा। उन्होंने साहित्य का थैला जनता के बीच फेंक दिया। वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं ने साहित्य का वितरण कर दिया। पंडित जी गिरफ्तार हो गए। रात में सीकर जेल में रहे। दूसरे दिन उन्हें जयपुर के केंद्रीय कारागार में भेज दिया गया।
मैंने अपना नाम नहीं बदला था, वेष बदल लिया था। मध्याह्न में लक्ष्मणगढ़ से फतेहपुर के लिए रवाना हो गया। सरकारी गुप्तचर बस में था। फतेहपुर बस अड्डे के पहले थाने के सामने बस रुकी। दो पुलिसकर्मी आए, उन्होंने मुझे बस से उतार लिया। सीकर से पुलिस का बड़ा दस्ता एस.पी. के साथ आया। मुझे भारी पुलिस सुरक्षा में सीकर जेल पहुंचा दिया गया। पिछले चार महीनों की कार्यकर्ताओं की सहज संगति छूट गई थी। जेल में आना अच्छा लगा।
मीसा बंदियों के लिए सीकर में जगह नहीं थी। अत: मुझे जयपुर स्थानांतरित कर दिया गया। वहां तो राजस्थान का पूरा नेतृत्व ही उपस्थित था। जनसंघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण तथा कुछ को घरों से पकड़ कर लाया गया था। इस माहौल में मेरी संपूर्ण असहजता समाप्त हो गई। अभी भी मेरा काम जेल से बाहर संपर्क रखना था। यह काम मिलने आने वाले कार्यकर्ताओं, जेल से तारीख पर जाने वाले कैदियों, चिकित्सालय जाने वाले बंदी सत्याग्रहियों व हमारे साथ सहानुभूति रखने वाले सरकारी अधिकारियों के माध्यम से निरन्तर चलता रहा।
आखिरकार चुनाव का परिणाम आया। श्रीमती इंदिरा गांधी पराजित हुईं। आपातकाल निरस्त हुआ, तब जाकर हम जेल से रिहा हुए। जब हम जेल से बाहर निकले तो लगभग दो किलोमीटर तक कार्यकर्ताओं की अपार भीड़ ने हमें कंधों पर ही बैठाए रखा। जमीन पर पांव ही नहीं पड़े। बड़ी चौपड़ पर बड़ी आमसभा हुई। इतिहास ने करवट ले ली थी।
संगठन ने सार्वजनिक सत्याग्रह का आह्वान किया था। इस कारण प्रदेश भर से सत्याग्रही जत्थों का आगमन शुरू हो गया था। वहां संघ-जनसंघ के कार्यकर्ताओं के अलावा, आनंद मार्गी, प्रतिबंधित मुस्लिम संगठन, जमात-ए-इस्लामी, समाजवादी, गांधीवादी, कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी थे। एक आर्य समाजी भी थे। समाजवादी एवं साम्यवादियों का हमारे ही बाड़े में अलग निवास एवं अलग रसोई थी। बाकी सब एक ही रसोई में खाना खाते व साथ रहते थे।
जेल में प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी। हमने सामान्य संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या लागू कर दी थी। हम उसे जे.टी.सी. कहते थे। यह दिनचर्या गैर-स्वयंसेवक राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए कौतुहल का विषय थी। एकात्म मानववाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, अखंड भारत, भारत का ऐतिहासिक गौरव तथा महापुरुषों के जीवन पर प्रवचन आदि कार्यक्रम चलते थे। तात्कालिक राजनैतिक घटनाओं पर चर्चा लोक संघर्ष समिति के भूमिगत परिपत्रों के वाचन तक सीमित थी।
कुछ समय बाद जनता पार्टी के गठन का समाचार आया। उसके संविधान का विमर्श हुआ। हम लोगों ने उसमें हिस्सा नहीं लिया। जनसंघ व समाजवादी नेताओं ने चर्चा कर बाहर कुछ लिख कर भेजा था। लेकिन उनका स्वर कुछ डरा हुआ था। सवाल था कि ऐसे में क्या चुनाव होंगे, क्योंकि सारा विपक्ष तो जेलों में है। सोहन सिंह जी भी तब तक जेल में आ गए थे।
उन्होंने नेताओं को ढाढस बंधाया। सत्याग्रहियों की रिहाई शुरू हो गई थी। चुनाव के पहले नेताओं को भी छोड़ दिया गया था। अब जेल में केवल लगभग 60 कार्यकर्ता रह गए थे, जो संघ के वरिष्ठजन थे। उन्हें रिहा नहीं किया गया था। चुनाव के समाचार आते थे। जेल में मिलने आने वालों में जबरदस्त उत्साह रहता था।
आखिरकार चुनाव का परिणाम आया। श्रीमती इंदिरा गांधी पराजित हुईं। आपातकाल निरस्त हुआ, तब जाकर हम जेल से रिहा हुए। जब हम जेल से बाहर निकले तो लगभग दो किलोमीटर तक कार्यकर्ताओं की अपार भीड़ ने हमें कंधों पर ही बैठाए रखा। जमीन पर पांव ही नहीं पड़े। बड़ी चौपड़ पर बड़ी आमसभा हुई। इतिहास ने करवट ले ली थी।
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