अफसोस की बात यह है कि विलुप्तप्राय भाषाएं बोलने वाले समुदाय आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से शक्तिहीन और क्षमताहीन हैं। इंटरनेट की प्रधान भाषा आज भी अंग्रेजी है और सात दूसरी भाषाओं को जोड़ लिया जाए तो इंटरनेट पर अधिकांश सामग्री इन्हीं आठ भाषाओं में मौजूद है।
अंदमान द्वीप समूह में रहने वाली बोआ सर नामक महिला पैंसठ हजार साल पुरानी प्री-नियोलिथिक संस्कृति की एकमात्र प्रतिनिधि थीं। वर्ष 2010 में उनका निधन हो गया और उनके साथ ही उनकी ‘बो’ भाषा भी सदा के लिए विलुप्त हो गई। यह कोई अकेली या असामान्य घटना नहीं है क्योंकि हर दो हफ्ते में दुनिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भाषा सदा के लिए गुम हो जाती है। भारत में भी ऐसी भाषाएं मौजूद हैं। सन् 2018 में जारी यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 42 भाषाएं संकटग्रस्त हैं और विलुप्त होने की तरफ बढ़ रही हैं। हालांकि भाषा विज्ञानियों का मानना है कि भारत में संकटग्रस्त भाषाएं 150 से अधिक हैं।
अफसोस की बात यह है कि विलुप्तप्राय भाषाएं बोलने वाले समुदाय आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से शक्तिहीन और क्षमताहीन हैं। इंटरनेट की प्रधान भाषा आज भी अंग्रेजी है और सात दूसरी भाषाओं को जोड़ लिया जाए तो इंटरनेट पर अधिकांश सामग्री इन्हीं आठ भाषाओं में मौजूद है। जबकि विश्व में भाषाओं की संख्या 6200 से अधिक है। तो हम इस विश्व की भाषायी विरासत को कैसे बचा पाएंगे? खुद हिंदी भी इंटरनेट पर सामग्री के लिहाज से 39वें-40वें स्थान पर है। ऐसे में उन भाषाओं का क्या होगा, जिन्हें संकटग्रस्त माना जाता है और जिन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से भी कम है?
हमारी उम्मीदें प्रौद्योगिकी पर ही टिकी हैं क्योंकि वह ऐसे तमाम साधन उपलब्ध कराती जा रही है जिनका प्रयोग भाषाओं को सुरक्षित बनाने में किया जा सकता है। माइक्रोसॉफ़्ट के प्रोजेक्ट एलोरा के तहत गोंडी (मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना), मुंडारी (झारखंड, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल) और इदु मिश्मी (अरुणाचल प्रदेश) भाषाओं को सुरक्षित करने तथा आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है।
इंटरनेट की प्रधान भाषा आज भी अंग्रेजी है और सात दूसरी भाषाओं को जोड़ लिया जाए तो इंटरनेट पर अधिकांश सामग्री इन्हीं आठ भाषाओं में मौजूद है। जबकि विश्व में भाषाओं की संख्या 6200 से अधिक है। तो हम इस विश्व की भाषायी विरासत को कैसे बचा पाएंगे? खुद हिंदी भी इंटरनेट पर सामग्री के लिहाज से 39वें-40वें स्थान पर है। ऐसे में उन भाषाओं का क्या होगा, जिन्हें संकटग्रस्त माना जाता है और जिन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से भी कम है?
मुंडारी बोलने वालों की संख्या दस लाख के लगभग बताई जाती है। इसकी लिपि भी है लेकिन इसमें सामग्री का अभाव है। साथ ही, इंटरनेट पर इसकी मौजूदगी नगण्य है। माइक्रोसॉफ्ट के प्रोजेक्ट एलोरा-इनेबलिंग लो रिसोर्स लैंग्वेजेज के तहत इस भाषा में सामग्री बनाने की प्रक्रिया चल रही है। रिसर्च टीम ऐसे बेस डेटासेट बना रही है जिनका प्रयोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीकों के विकास में किया जाएगा। संभव है कि कल को लोग मुंडारी में बोलकर टाइप कर सकें, अनुवाद कर सकें और अपनी वाचिक परंपराओं को डिजिटल स्वरूप में सुरक्षित कर सकें।
प्रोजेक्ट एलोरा के दो प्रमुख उद्देश्य हैं। पहला उद्देश्य ऐसी भाषाओं को, जिनमें कई वनवासी भाषाएं हैं, हमेशा के लिए सुरक्षित करना, दूसरा, यह सुनिश्चित करना कि इन भाषाओं को बोलने वाले लोग डिजिटल दुनिया में भागीदारी कर सकें और एक दूसरे से संपर्क कर सकें।
इसी परियोजना के तहत गोंडी भाषा पर भी कार्य जारी है। टीम ने गोंडी और हिंदी के बीच साठ हजार से अधिक समान्तर वाक्यों को इकट्ठा किया है जो इस भाषा में मशीन अनुवाद का रास्ता साफ करेगी। इसके साथ ही गोंडी भाषियों का आनलाइन पोर्टल बनाया गया है और रेडियो से लोगों को अपनी भाषा में जानकारी दी जा रही है। परियोजना के तहत अरुणाचल प्रदेश की इदु मिश्मी भाषा के लिए डिजिटल शब्दकोश बनाया जा रहा है। इस भाषा को बोलने वाले बारह हजार से भी कम रह गये हैं।
प्रौद्योगिकी सिर्फ, बड़ी भाषाओं के ही साथ नहीं है बल्कि वह जनजातीय भाषाओं के सामने खड़ी बाधाएं दूर करने में भी मदद कर रही है। इन भाषाओं को बचाने के लिए तकनीक का भरपूर लाभ उठाने की जरूरत है।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में निदेशक- भारतीय भाषाएं
और सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं)
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