आदियोगी भगवान शिव ने हिमालय में कांति सरोवर के तट पर अपने सात शिष्यों को योग की शिक्षा दी थी। ये सात शिष्य ही सप्तर्षि कहलाए। इनमें सबसे प्रमुख अगस्त्य ऋषि थे, जिन्होंने दक्षिण भारत में योगविद्या का प्रसार किया। जावा (इंडोनेशिया) के प्रंबनम संग्रहालय में नौवीं शताब्दी की इनकी प्रतिमा है।
माना जाता है कि हजारों वर्ष पूर्व पहली बार आदियोगी भगवान शिव ने हिमालय में कांति सरोवर के तट पर अपने सात शिष्यों को योग की शिक्षा दी थी। ये सात शिष्य ही सप्तर्षि कहलाए। इनमें सबसे प्रमुख अगस्त्य ऋषि थे, जिन्होंने दक्षिण भारत में योगविद्या का प्रसार किया। जावा (इंडोनेशिया) के प्रंबनम संग्रहालय में नौवीं शताब्दी की इनकी प्रतिमा है। इसके अलावा, कंबोडिया में अंगकोरवाट काल की इनकी बैठी हुई मुद्रा में भी एक प्रतिमा मिली है। अगस्त्य ऋषि के बहुत बाद 2000 वर्ष पूर्व हिमालय के पूर्व में भी और हिमालय के पश्चिम में भी, भारत से समूचे एशिया में योग और तंत्र का प्रसार हुआ। बौद्ध पंथ के प्रसार के साथ-साथ योग और तंत्र के चीन, जापान, तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया पहुंचने की कहानी लगभग सभी जानते हैं।
आधुनिक चीन के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक, चीनी राजनयिक, निबंधकार और कथा लेखक, साहित्यिक विद्वान, दार्शनिक और राजनीतिज्ञ हू शिह ने चीन का भारतीयकरण शीर्षक से लिखे गए एक निबंध में कहा है कि ‘भारत ने सीमा के पार एक भी सैनिक भेजे बिना सांस्कृतिक रूप से चीन पर विजय प्राप्त की और दो हजार वर्षों तक उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित रखा।’ लेकिन बात सिर्फ चीन, जापान, तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया की नहीं है। विद्वानों ने समरकंद, बुखारा और आगे स्लाव जाति के क्षेत्रों में भी इसी योग और तंत्र के पहुंचने के चिह्न खोज निकाले हैं।
भारतवर्ष में योग हमेशा से रहा है। भगवान शिव का एक नाम‘आदियोगी’ होना इसका एक संकेत है। स्वाभाविक है कि योग और तंत्र के साथ शिव की महिमा भी विश्व के अनेक भागों में पहुंची।
भारतवर्ष में योग हमेशा से रहा है। भगवान शिव का एक नाम ‘आदियोगी’ होना इसका एक संकेत है। स्वाभाविक है कि योग और तंत्र के साथ शिव की महिमा भी विश्व के अनेक भागों में पहुंची। योग भारत की संस्कृति और सभ्यता का एक सबसे विशिष्ट प्रतीक भी है। भारत की चेतना के मर्म में आत्म है। हिंदू दर्शन में आत्म को शिव भी कहा जाता है। कई शताब्दियों तक कश्मीर शिव संबंधित ज्ञान-विज्ञान और अध्ययन का एक बड़ा केंद्र रहा और कश्मीर में आत्म की कल्पना ‘प्रकाश’ के रूप में की गई थी। योगाभ्यास इस आत्म या प्रकाश से एकाकार होने के तरीके के रूप में भी देखा जाता है।
अब योग विश्व भर में लोकप्रिय और प्रचलित है। इसकी लोकप्रियता इतनी है कि अमेरिका के लगभग हर शहर में एक योग केंद्र है। यही स्थिति यूरोप की है। भारत के परंपरागत मित्र देशों में ही नहीं, बल्कि सभी महाद्वीपों के छोटे शहरों में भी योग की लोकप्रियता का कोई सानी नहीं है। सऊदी अरब में योग स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम का हिस्सा है।
योग शिक्षकों ने इस ज्ञान को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया। इसका प्रभाव पारंपरिक स्थानीय पूजा पद्धतियों पर भी पड़ा है। मध्य एशिया में योग का प्रसार एक हजार वर्ष तक अनवरत रहा है। वर्तमान दौर में योग में रुचि आसनों के माध्यम से व्यक्तिगत कल्याण पर केंद्रित है, लेकिन एक वर्ग इसके गहनतम स्तर पर भी जाता है, जो योग द्वारा आत्म चेतना की प्रकृति के बारे में समझने की कोशिश करता है। यह बिंदु अब विज्ञान के भी परिक्षेत्र में प्रवेश कर चुका है। वैज्ञानिकों और न्यूरोसाइंटिस्टों के लिए आत्म चेतना एक रहस्य है।
शिव की मूर्ति या उनके कलात्मक प्रतीकों की एक विशेषता उनका बहुमुखी स्वरूप है। हालांकि उनका अमूर्त और निराकार रूप भी है। बहुमुखी स्वरूप के पीछे विचार यह है कि शिव चेतना (आत्मा) के रूप में सभी दिशाओं में मौजूद हैं। महाभारत में शिव के चतुर्मुखी स्वरूप का वर्णन किया गया है।
पूर्वी दिशा का मुख शिव की संप्रभुता, उत्तरी दिशा का मुख पूर्णता, पश्चिमी दिशा का मुख समृद्धि व दक्षिणी दिशा का मुख दुष्टों पर नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करता है। वास्तव में हिमालय के उस पार योग का प्रसार शिव की पूजा के रूप में हुआ, जिसके साथ बौद्ध पंथ भी जुड़ा हुआ था। हिंदू मान्यता से थोड़ा भिन्न होते हुए, जिसमें आत्मा की सर्वोच्चता स्पष्ट रूप से स्थापित है, बौद्ध पंथ मन पर जोर देता है और मन के माध्यम से वास्तविकता को देखता है। इस प्रकार के शाब्दिक मतभेदों के बावजूद बौद्ध पंथ को वैदिक देवताओं के साथ चलने में कोई समस्या नहीं रही।
मध्यकालीन इंडोनेशियाई साहित्य बुद्ध को शिव और जनार्दन (विष्णु) के तुल्य कहता है। इंडोनेशिया में आधुनिक बाली में बुद्ध को शिव का छोटा भाई माना जाता है। यदि दोनों को क्रमश: बुद्धि और अंतर्ज्ञान का प्रतीक मानें, तो इसे आसानी से समझा जा सकता है। बौद्ध अपने मंदिरों में जिस नीलकंठ मंत्र का पाठ करते हैं, उसमें शिव और विष्णु की स्तुति है।
चीनी और तिब्बती बौद्ध पंथों में शिव को काल (महाकाल) के रूप में देखा जाता है। जापान में शिव को दैईकोकुटन (Daikokuten) नाम से पुकारा जाता है, जो जापानियों के 5 सर्वोच्च देवों में से एक हैं। यहां शिव की मूर्तियां और चित्र वैदिक शिव की ही तरह हैं।
फारस में योग
शिव महेश्वर मध्य एशियाई जोरास्ट्रियन देव मंडल में शामिल हैं। जोरास्ट्रियन पंथ में भगवान जुर्वन को ब्रह्मा, अहुरा मज्दा (अदबाग) को इंद्र के रूप में चित्रित किया गया था, जबकि वेशपारकर (सोग्डियन में वायु) को शिव के रूप में दर्शाया गया था।
1168 ई. तक चले स्लाविक जनजाति के पंथ श्वेतोवित या स्वेंटोवित में स्लाव लोग कई सिर वाले देवताओं की पूजा करते थे, जिन्हें मंदिरों में लकड़ी की लंबी मूर्तियों में दिखाया गया था। तीन सिरों वाले देवता त्रिग्लव के अलावा, स्लावों के पास स्वेतोविद या स्वंतोविद थे। दोनों के नामों की संस्कृत व्युत्पत्ति है- श्वेतोविद ‘प्रकाश के ज्ञाता’ के रूप में और स्वेतोविद ‘हृदय के ज्ञाता’ के रूप में। इनका मुख्य मंदिर वर्तमान उत्तर-पश्चिम जर्मनी के केप अरकोना में स्थित था। 11वीं शताब्दी में जर्मन हमलावरों द्वारा नष्ट किए जाने के पहले तक यह मंदिर सारे बाल्टिक लोगों की श्रद्धा का केंद्र था।
श्वेतोविद के चार मुख सरोग (उत्तर), पेरुन (पश्चिम), लाडा (दक्षिण) और मोकोश (पूर्व) हैं। इन नामों के संस्कृत संज्ञान हैं- स्वर्ग, पर्जन्य, लदाह और मोक्ष। इन शब्दों की गहराई में जाएं, तो महाभारत में वर्णित शिव के चार मुखों के साथ और कश्मीर के भूगोल के साथ मेल स्पष्ट देखा जा सकता है, जहां से शिव की पूजा संभवत: स्लाव भूमि तक गई होगी।
देवताओं का निवास कश्मीर में हरमुख शिखर में घाटी के ठीक उत्तर में माना जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ है ’शिव मुख’। यह स्वर्ग है। घाटी का पश्चिम वह स्थान है, जहां से वर्षा होती है। पर्जन्य का अर्थ पेरुण माना जाता है, अर्थात् वर्षा लाने वाले इंद्र। घाटी के दक्षिण में भारत की ‘सुखद’ भूमि है। लदाह का अर्थ भी संस्कृत में सुखद होता है और पूर्व वह जगह है जहां सूर्य उगता है। सूर्य के साथ आत्मा के विलय को मोक्ष समझा जाता है।
बाली में बुद्ध को शिव का छोटा भाई माना जाता है। चीनी और तिब्बती बौद्ध पंथों में शिव को काल (महाकाल) के रूप में देखा जाता है, जबकि जापान में शिव को दैईकोकुटन नाम से पुकारा जाता है।
पश्चिम में योग की यात्रा
पश्चिम में योग की इस युग की यात्रा की शुरुआत 11 सितंबर, 1893 से मानी जाती है, जब स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में धर्म संसद में ऐतिहासिक और प्रसिद्ध भाषण दिया था। उनके प्रभावशाली व्याख्यान ने भारतीय धार्मिक परंपराओं की आध्यात्मिक श्रेष्ठता पश्चिम के समक्ष सिद्ध और स्थापित कर दी थी। इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम में प्राचीन भारतीय आध्यात्मिकता के बारे में जागरुकता फैलाने के तरीके व साधन खोजे और योग को इस प्रक्रिया में सहायता करने के लिए सबसे अच्छी अवधारणा माना। उन्होंने कर्म योग, राज-योग, ज्ञान-योग और भक्ति-योग संबंधित प्राचीन वैदिक ग्रंथों का संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
13 अप्रैल, 1900 को टकर हॉल, अल्मेडा, कैलिफोर्निया में दिए गए स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान के अनुसार, (जिसे इडा अंसेल द्वारा छिटपुट ढंग से रिकॉर्ड किया गया था और जिसे वेदांता एंड द वेस्ट में जुलाई-अगस्त 1957 प्रकाशित किया गया था), प्राचीन संस्कृत शब्द ‘योग’ को चित्त वृत्ति निरोध के रूप में परिभाषित किया गया है। इसका तात्पर्य है कि योग वह विज्ञान है, जो हमें चित्त को परिवर्तनशील अवस्था से निरुद्ध कर उस पर नियंत्रण करना सिखाता है। चित्त वह है, जिससे हमारा मन बना है, जो लगातार बाहरी व आंतरिक प्रभावों द्वारा तरंगों में मथ रहा है। चित्त में उठने वाली विचार-तरंगों को वृत्ति अर्थात् भंवर कहते हैं। इस तरह, योग हमें सिखाता है कि मन को कैसे नियंत्रित किया जाए ताकि विचार असंतुलित होकर लहरों के रूप में बाहर न आएं।
श्वेतोविद के चार मुख सरोग, पेरुन, लाडा व मोकेश का महाभारत में वर्णित शिव के चार मुखों और कश्मीर के भूगोल के साथ स्पष्ट देखा जा सकता है, जहां से शिव की पूजा संभवत: स्लाव भूमि तक गई होगी।
स्वामी विवेकानंद ने 1893 के शिकागो विश्व मेले में योग का प्रदर्शन करके अमेरिका की योग में रुचि जगाई। इसके बाद भारतीय योगियों और योग गुरुओं का पश्चिम में खुली बाहों से स्वागत किया जाने लगा। भारत और अमेरिका में हठ योग का पुनरुत्थान करने वाले सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक थे श्री योगेंद्र, जो योग गुरु ही नहीं, बल्कि लेखक, कवि और शोधकर्ता भी थे। उन्होंने 1918 में ‘द योग इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की, जो विश्व का सबसे पुराना संगठित योग केंद्र है। श्री योगेंद्र 1919 में पहली बार अमेरिका गए। 1920 में न्यूयॉर्क उन्होंने पहला योग केंद्र स्थापित किया और योग से पहली बार पश्चिमी दुनिया का परिचय कराया। उन्होंने योग के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक साक्ष्य जुटाए, जो पहले कभी नहीं किया गया था। उन्होंने डॉक्टरों के साथ काम करके और योग के स्वास्थ्य लाभों के लिए वैज्ञानिक प्रमाण एकत्रित करके हठ योग को अमेरिका में घर-घर तक पहुंचाना शुरू कर दिया। कई बार उन्हें ‘आधुनिक योग पुनर्जागरण का जनक’ भी कहा जाता है।
इन मनीषियों से शुरू होकर योग की यात्रा अब विश्व व्यापी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का उत्सव मनाने, स्वास्थ्य और कल्याण पर योग अभ्यास के सकारात्मक प्रभावों का ज्ञान आम लोगों तक पहुंचने से विश्व भर के पारंपरिक और आधुनिक समाजों में इसकी स्वीकृति को और सुविधा प्राप्त हुई है। अगली लहर में योग के अधिक गूढ़ पहलुओं के प्रसार की उम्मीद की जा सकती है।
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