प्रभु श्री राम का ध्यान आते ही ऐसे छवि सम्मुख आती है, जिसमें मर्यादा के उच्चतम स्तर विद्यमान हैं। स्त्रियों के प्रति आदर से भरे थे प्रभु श्री राम, वह राम जिन्हें लेकर कुछ भ्रमित लोग यह कहते हैं कि रामायणकाल में स्त्रियों के लिए वातावरण उचित नहीं था, स्त्रियों का सम्मान नहीं था, उन्हें अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने की स्वतंत्रता नहीं थी। ऐसे भ्रमित लोगों में से कई ने शायद महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण का अध्ययन ही नहीं किया होगा।
बहुधा यही कहा जाता है कि उस काल में स्त्रियों को बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी, और इसे गौतम ऋषि अहिल्या के त्याग के प्रसंग से जोड़कर कहा जाता है। परन्तु वह एक पृथक प्रकरण है, जिसके विषय में एक झूठा विमर्श फेमिनिस्ट द्वारा संचालित किया जाता है। वह एक ऐसा झूठ है, जिसे बार-बार कविताओं में लिख-लिखकर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि स्त्रियों की रामायण काल में अत्यधिक दुर्दशा थी। उनके पास अधिकार नहीं थे, और उन्हें अपने पति के कोप का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता था। मगर वह यह भूल जाती हैं कि यह कैकेई को दिए गए राजा दशरथ के वचनों का ही परिणाम था कि प्रभु श्री राम वनवास गए।
यदि स्त्री की स्थिति ऐसी होती कि वह बाहर नहीं निकल सकती थी तो न ही कैकई देवासुर संग्राम में राजा दशरथ की सहायता करतीं और न ही राजा दशरथ उन्हें दो वर प्रदान करते। अत: यह विमर्श पहले यही पर पूर्णतया निरस्त हो जाता है कि रामायण काल में स्त्रियों के पास स्वतंत्रता नहीं थी। रामायण काल में स्त्रियों के कन्धों पर उनके उत्तरदायित्वों को निभाने का कार्य था जिसे वे भलीभांति किया करती थीं, ऐसा वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है।
जब महर्षि वाल्मीकि इस अद्भुत आदर्श परिवार कथा, जिसमें प्रेम, स्नेह एवं स्त्रियों के प्रति आदर का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया गया है, लिख रहे हैं, तो इसमें वह स्त्रियों को लेकर एक ऐसा प्रकरण भी लिखते हैं, जिससे यह ज्ञात होता है कि जब कैकई ने देवासुर संग्राम में भाग लेकर अपनी सैन्य कुशलता का परिचय दिया था, तो उसी समय स्त्रियाँ अन्य क्षेत्रों में भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र थीं।
यह प्रकरण है जब महाराज मनु द्वारा स्थापित अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं। वह लिखते हैं कि
वधू नाटक सन्घैः च संयुक्ताम् सर्वतः पुरीम् ।
उद्यान आम्र वणोपेताम् महतीम् साल मेखलाम्
अर्थात
उस नगरी में ऐसी कई नाट्य मंडलियाँ थीं, जिनमें मात्र स्त्रियाँ ही नृत्य एवं अभिनय करती थीं और सर्वत्र जगह जगह उद्यान थे तथा आम के बाग़ नगरी के शोभा बढ़ा रहे थे। नगर के चारों ओर साखुओं के लम्बे लम्बे वृक्ष लगे हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो अयोध्या रूपिणी स्त्री करधनी पहने हो।
अर्थात अयोध्या नगरी में स्त्रियों की नाट्य समितियां थीं, अर्थात स्त्रियों के पास यह स्वतंत्रता थी कि वह अभिनय आदि क्षेत्रों में कार्य कर सकें।
फिर यह बात कहाँ से आती है कि स्त्रियों के पास स्वतंत्रता नहीं थी। बालकाण्ड के इसी सर्ग में वह आगे लिखते हैं कि
प्रासादै रत्नविकृतै: पर्वतैरिव शोभिताम
कूटागारैश्च सम्पूर्नामिन्द्रस्येवामरावतीम
अर्थात
वहां पर जो महल थे उनका निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ था। वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनसे उस पुरी की बड़ी शोभा हो रही थी। वहां पर स्त्रियों के क्रीड़ागृह भी बने हुए थे, जिनकी सुन्दरता देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे यह दूसरी अमरावती है।
परन्तु इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर किसी नगरी में ऐसा क्या होगा जिससे स्त्रियाँ ऐसी स्वतंत्रता का अनुभव करती होंगी? क्या था वह तत्व जिसने स्त्रियों को इस सीमा तक निर्भीक कर दिया होगा? वह था सद्चरित पुरुषों का होना। अयोध्या नगरी के पुरुष कैसे थे? अयोध्या नगरी के पुरुषों ने स्त्री स्वतंत्रता का विमर्श रचा था। वह बालकाण्ड के षष्ठम सर्ग में लिखते हैं:
कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।
द्रष्टुम् शक्यम् अयोध्यायाम् न अविद्वान् न च नास्तिकः
अर्थात
अयोध्या ऐसी नगरी है जहाँ पर कोई भी पुरुष कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख एवं नास्तिक नहीं था।
अर्थात अयोध्या की हर स्त्री हर उस अत्याचार से मुक्त थी। स्त्रियों का आदर इसीलिए था क्योंकि पुरुषों ने उन संस्कारों का निर्वहन किया, जो उन स्त्रियों ने उन्हें प्रदान किए थे। यही प्रभु श्री राम की नगरी एवं स्त्री पुरुष थे, संस्कारों से युक्त स्वतंत्रता का निर्वहन करते हुए।
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