1926 में जब कल्याण पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो गांधीजी ने अपने आशीर्वचन में यह राय दी थी कि कल्याण में कभी भी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए। तब से आज तक कल्याण गांधीजी के इन वचनों का पालन कर रहा है और उसमें कोई भी विज्ञापन प्रकाशित नहीं होता।
गांधीजी और कल्याण के रिश्ते बहुत गहरे थे। गांधीजी ‘कल्याण’ में लिखते थे। 1926 में जब इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो गांधीजी ने अपने आशीर्वचन में यह राय दी थी कि कल्याण में कभी भी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए। तब से आज तक कल्याण गांधीजी के इन वचनों का पालन कर रहा है और उसमें कोई भी विज्ञापन प्रकाशित नहीं होता। कल्याण में लिखने वालों में गांधीजी ही नहीं, बल्कि उस जमाने के कई चोटी के नेता थे। इनमें लाल बहादुर शास्त्री, पंडित मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि शामिल थे। कल्याण किसी भी लेखक को कोई पारिश्रमिक या मानदेय राशि नहीं देता था और आज भी नहीं देता। गांधीजी और पोद्दार जी में एक परिवार जैसे संबंध थे।
गीता प्रेस की स्थापना 1923 में हुई थी। तब से अब तक यह संस्था करीब करोड़ों पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है। इनमें भगवद्गीता, रामायण, पुराण, उपनिषद्, भक्त चरित्र और भजन संबंधी पुस्तकें शामिल हैं। साथ ही, महिलाओं और बच्चों से संबंधित 11 करोड़ पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। इनमें से कई पुस्तकों के 80-80 संस्करण छपे हैं। इसमें संस्था की सबसे लोकप्रिय पत्रिका ‘कल्याण’ का आंकड़ा शामिल नहीं है। ‘कल्याण’ के शुरुआती अंक की 1,600 प्रतियां छापी गई थीं। गीता प्रेस के पुस्तकों की मांग इतनी अधिक है कि संस्था इसे पूरी नहीं कर पा रही है। हर साल इसकी 1.75 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं। गीता प्रेस की पुस्तकें लागत से 40 से 90 फीसदी कम मूल्य पर बेची जाती हैं।
11 फरवरी, 2018 के अंक में प्रकाशित लेख में कहा गया है, महात्मा गांधी की हत्या के दिन शाम तक ‘कल्याण’ की अधिकांश प्रतियां भेजी जा चुकी थीं। बाकी जो प्रतियां बची थीं उनके प्रारंभ में ही महात्मा गांधी के बारे में तीन पृष्ठ चिपका कर उन्हें पाठकों को भेजा गया था। इन तीन पृष्ठों में से पहले पृष्ठ पर बापू की तस्वीर थी। असल में ‘कल्याण’ में दो श्रद्धांजलियां प्रकाशित हुई थीं। एक में राघव दास ने गांधी की तुलना ग्रंथों में पढ़े गए संतों से की है। उन्होंने लिखा है, ‘‘ग्रंथों में संतों के वर्णन पढ़े थे। पर प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर इसी महान पुरुष के जीवन में हमें मिला। संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपने संदेश में लिखा था, ‘‘गांधी जी धर्म और जाति के भेद से ऊपर उठे हुए थे और सत्य एवं अहिंसा के सच्चे पुजारी थे’’
अक्षय मुकुल की किताब में प्रकाशित यह तथ्य निराधार और झूठ है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद कल्याण के संपादक आदरणीय हनुमान प्रसाद पोद्दार और गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयंदका को गिरफ्तार किया गया था। पुस्तक में दूसरा झूठ यह लिखा है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘कल्याण’ के अगले अंकों में उन पर कोई श्रद्धांजलि प्रकाशित नहीं की गई। दोनों आरोप इतने गंभीर और असत्य हैं कि कोई भी लेखक बिना तथ्यों का पूरा पता लगाए पुस्तक में इसका उल्लेख कैसे कर सकता है? कई विद्वानों ने गीता प्रेस, ‘कल्याण’ और हनुमान प्रसाद पोद्दार पर लेखन और शोध किया है। वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र उनमें से एक हैं। उन्होंने पोद्दार जी के पत्रों का संपादन कर एक पुस्तक प्रकाशित की है। इसका शीर्षक है- ‘पत्रों में समय संस्कृति’। डॉ. रजनीश चतुर्वेदी ने भी इस विषय पर पीएच़डी़ शोध प्रबंध लिखा है। इन सब विद्वानों ने मुकुल की किताब में लिखी गई बातों को नकारा है।
महात्मा गांधी के साथ श्री पोद्दार का संबंध एक परिवार के जैसा था। 1932 में गांधीजी के पुत्र देवदास गांधी को अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार करके गोरखपुर जेल में रखा था। गांधीजी के कहने पर श्री पोद्दार ने देवदास गांधी का पूरा ख्याल रखा और नियमित रूप से जेल में उनसे मिलते रहे। रिहाई के फौरन बाद जब देवदास गांधी बीमार पड़े, तब भी श्री पोद्दार ने उनका ख्याल रखा। श्री पोद्दार भारत के विभाजन के प्रखर विरोधी थे। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में वह जेल में भी रहे। कल्याण’ के अक्तूबर 1946 के अंक पर एक बार ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध भी लगाया था। सन् 1926 जब ‘कल्याण’ का प्रकाशन शुरू हुआ था, तो श्री पोद्दार बापू से आशीर्वाद लेने गए थे। गांधीजी ने तब उनको यह सलाह दी थी कि कल्याण में कभी भी बाहर का कोई विज्ञापन या पुस्तक समीक्षा मत छापना। ‘कल्याण’ पत्रिका आज तक गांधीजी के उस परामर्श का अनुसरण करती आ रही है। गीता प्रेस किसी से कोई दान राशि भी स्वीकार नहीं करती है। कल्याण में लिखने वालों में गांधीजी ही नहीं, बल्कि उस जमाने के कई चोटी के नेता भी शामिल थे। इनमें लाल बहादुर शास्त्री, पं. मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि प्रमुख नाम थे। ‘कल्याण’ किसी भी लेखक को कोई पारिश्रमिक या मानदेय राशि नहीं देता था और आज भी नहीं देता है। अप्रैल 1955 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद गीता प्रेस देखने गए थे।
‘पाञ्चजन्य’ ने 26 मार्च, 2017 के अंक में इस पर एक आलेख भी प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक था -‘गीता प्रेस को बदनाम करने की कोशिश’। यह लेख भी शोध पर ही आधारित था, जिसमें यह बताने का प्रयास किया गया था कि ‘कल्याण’ के जनवरी 1948 के अंक में महात्मा गांधी पर कोई श्रद्घांजलि क्यों नहीं छपी? लेकिन आगे शोध करने पर पता चला कि ‘कल्याण’ में श्रद्घांजलि छपी थी। प्रस्तुत लेख आगे के शोध का परिणाम है।
(लेखक कार्डिफ विश्वविद्यालय, ब्रिटेन से पी.एच.डी प्राप्त हैं और झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग से प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं)
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