औरंगज़ेब और टीपू को लेकर महाराष्ट्र में चल रहा तनाव एवं संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहा है। अहमदनगर, कोल्हापुर, नवी मुंबई, बीड़, नासिक के बाद अब लातूर में भी सोशल मीडिया पर औरंगज़ेब की तस्वीर को स्टेटस में लगाने की बात सामने आई है। कट्टर और मतांध शासकों एवं मज़हबी आक्रांताओं पर गर्व करने की बात कोई नई नहीं है, ऐसी सोच समाज के कट्टरपंथी तत्त्वों में प्रायः देखने को मिलती है। वस्तुतः समस्या के मूल कारणों और उसके पीछे की मानसिकता को समझे बिना उसका समाधान संभव नहीं।
पृथक पहचान एवं मज़हबी कट्टरता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल, संगठन एवं कुफ़्र-काफ़िर दर्शन में विश्वास रखने वाले तमाम उलेमा-मौलवी एवं उनके अनुयायी, जहाँ औरंगज़ेब, टीपू जैसे शासकों एवं अन्य मज़हबी आक्रांताओं को नायक की तरह पेश करते हैं, वहीं दूसरी ओर देश के अधिसंख्य जन इन्हें खलनायक की तरह देखते हैं। अतीत के किसी शासक को नायक या खलनायक मानने के पीछे ऐतिहासिक स्रोतों एवं साक्ष्यों के अलावा जनसाधारण की अपनी भी एक दृष्टि होती है। वह दृष्टि रातों-रात नहीं बनती, अपितु उसके पीछे उस समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों, परंपराओं, जीवन-मूल्यों, जीवन आदर्शों से लेकर संघर्ष-सहयोग, सुख-दुःख, जय-पराजय, गौरव-अपमान की साझी अनुभूतियों के साथ-साथ, उस शासक द्वारा प्रजा के हित-अहित में किए गए कार्यों की भी भूमिका होती है। इस देश की आम एवं बहुसंख्यक जनता ने उदार, सहिष्णु, समदर्शी, परोपकारी, प्रजावत्सल एवं न्यायप्रिय राजा तथा लोकहितकारी राज्य को अधिक मान दिया है। मज़हबी मानसिकता से ग्रसित कट्टरपंथी लोग, क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी एवं कथित इतिहासकार मुस्लिम आक्रांताओं, मुग़लों या औरंगज़ेब एवं टीपू जैसे शासकों को लेकर भले ही कुछ भिन्न दावा करें, परंतु आम धारणा यही है कि ये सभी क्रूर, बर्बर, मतांध, अत्याचारी एवं आततायी थे। ऐतिहासिक साक्ष्य एवं विवरण भी इसकी पुष्टि करते हैं।
भारत के लिए नहीं धड़कता था दिल
मुगलों का महिमामंडन एवं यशोगायन करने वाले लोग क्या नहीं जानते कि मुहम्मद बिन क़ासिम, गजनी, गोरी, खिलजी, तैमूर, नादिर, अब्दाली की तरह वे (मुग़ल) भी विदेशी आक्रांता थे। उन्होंने सदैव भारत से विलग अपनी पृथक पहचान को न केवल जीवित रखा, अपितु बढ़ा-चढ़ाकर उसे प्रस्तुत भी किया? उनका हृदय भारत से अधिक, जहाँ से वे आए थे, वहाँ के लिए धड़कता था। उन्होंने भारत से लूटे गए धन का बड़ा हिस्सा समरकंद, खुरासान, दमिश्क, बगदाद, मक्का, मदीना जैसे शहरों एवं वहाँ के विभिन्न घरानों एवं इस्लामिक ख़लीफ़ा पर खर्च किया। वे स्वयं को तैमूरी या गुरकानी राजवंश से जोड़कर देखते थे। जिस तैमूर ने तत्कालीन विश्व की लगभग 5 प्रतिशत आबादी का कत्लेआम किया, जिसने दिल्ली में लाखों निर्दोष हिंदुओं का अकारण ख़ून बहाया, वे उससे जुड़ा होने में गौरव का अनुभव करते थे। भारत आने के पीछे भी उनका कोई महान उद्देश्य न होकर लूट-खसोट की भावना ही प्रबल थी। यहाँ बसने के पीछे भी उनका मक़सद ऐशो-आराम की ज़िंदगी बसर करना और अपनी तिज़ोरी भरना ही रहा, न कि कतिपय बुद्धिजीवियों-इतिहासकारों, फिल्मकारों के शब्दों में कथित तौर पर भारत का निर्माण करना। बल्कि सच्चाई तो यह है कि बाबर भारत और भारतीयों से इतनी घृणा करता था कि मरने के बाद उसने स्वयं को भारत से बाहर दफ़नाए जाने की इच्छा प्रकट की थी। अधिकांश मुगल बादशाह अत्यंत व्यसनी, विलासी एवं मतांध रहे। नैतिकता, चारित्रिक शुचिता एवं आदर्श जीवन-मूल्यों के पालन की कसौटी पर वे भारत के परंपरागत राजाओं की तुलना में पासंग बराबर भी नहीं ठहरते। राजकाज, सुशासन एवं सुव्यवस्था से अधिक वे अपने अजब-गज़ब फैसलों, तानाशाही फ़रमानों एवं भोग-विलास के अतिरेकी किस्सों के लिए याद किए जाते हैं।
हरम में जबरन बंदी बनाकर लाई जाती थीं स्त्रियां
बहादुरशाह जफ़र जैसे चंद अपवादों को छोड़कर अधिकांश मुग़ल आक्रांता मज़हबी कट्टरता में आकंठ डूबे रहे। बहुसंख्यकों पर उन्होंने बहुत ज़ुल्म ढाए। उनके शासन-काल में मठों एवं मंदिरों का व्यापक पैमाने पर ध्वंस कराया गया, भगवान के विग्रह तोड़े गए, पुस्तकालय जलाए गए। कथित गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरोकार एवं पंथनिरपेक्षता के झंडाबरदार अकबर को महानतम शासक बताते नहीं थकते, पर वे यह नहीं बताते कि उसने चितौड़ का दुर्ग जीतने के बाद वहाँ उपस्थित 40,000 निःशस्त्र एवं निर्दोष हिंदुओं को मौत के घाट उतरवा दिया था। अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ आदि को इतिहास से लेकर साहित्य और सिनेमा में भी आदर्श प्रेमी की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि वे अत्यंत दुर्बल, भोगी एवं कामुक प्रवृत्ति के थे। अतिशय भोग, रूप और सौंदर्य की पिपासा में न तो उन्होंने संबंधों का मान रखा, न ही नैतिकता का पालन किया और न ही निर्दोषों का ख़ून बहाने में ही कोई संकोच किया। उनके हरम में हजारों स्त्रियाँ बंदी बनाकर जबरन लाई जाती थीं और वे असहनीय यातनाएँ एवं कलहपूर्ण स्थितियाँ झेलने को अभिशप्त होती थीं। अबुल फजल के मुताबिक अकेले अकबर के हरम में 5000 औरतें थीं, जिनमें से अधिकांश राजनीतिक संधियों या युद्ध में जीत के बाद उसे उपहार स्वरूप मिली थीं। मुगलों के काल में कला, वास्तु, स्थापत्य, भवन-निर्माण आदि के विकास का यशोगायन करते समय इस तथ्य की नितांत उपेक्षा कर दी जाती है कि जहाँ से वे आए थे, उन क्षेत्रों में कला या निर्माण के ऐसे एक भी तत्कालीन नमूने या उदाहरण देखने को नहीं मिलते। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि जिन्हें हम मुगलों की देन कहते नहीं थकते, दरअसल वे भारत के शिल्पकारों, वास्तुविदों, कारीगरों, कलाकारों की पारंपरिक एवं मौलिक दृष्टि, खोज व कुशलता के परिणाम हैं?
औरंगज़ेब ने दिया था हिंदू मंदिरों और शिक्षा केंद्रों को नष्ट करने का आदेश
जहाँ तक औरंगज़ेब की कट्टरता एवं मतांधता की बात है तो उसे दर्शाने के लिए 9 अप्रैल 1669 को उसके द्वारा ज़ारी राज्यादेश पर्याप्त है, जिसमें उसने सभी हिंदू मंदिरों एवं शिक्षा-केंद्रों को नष्ट करने के आदेश दिए थे। इस आदेश को काशी-मथुरा समेत उसकी सल्तनत के सभी 21 सूबों में लागू किया गया था। औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसके दरबारी लेखक मुहम्मद साफी मुस्तइद्दखां ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में भी किया है। 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर के पृष्ठ-संख्या 57 पर भी इस आदेश का उल्लेख है। इतिहासकारों का मानना है कि इस आदेश के बाद गुजरात का सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, अमदाबाद का चिंतामणि मंदिर, बीजापुर का मंदिर, वडनगर का हथेश्वर मंदिर, उदयपुर में झीलों के किनारे बने 3 मंदिर, उज्जैन के आसपास के मंदिर, चितौड़ के 63 मंदिर, सवाई माधोपुर में मलारना मंदिर, मथुरा में राजा मानसिंह द्वारा 1590 में निर्माण कराए गए गोविंद देव मंदिर समेत देश भर के सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त करा दिए गए। मज़हबी ज़िद में उसने हिंदुओं के त्योहारों एवं धार्मिक प्रथाओं को भी प्रतिबंधित कर दिया था। 1679ई. में उसने हिंदुओं पर जजिया लगा, उन्हें दोयम दर्ज़े का नागरिक या प्रजा बनकर जीने को विवश कर दिया। यह अत्यंत अपमानजनक कर होता था, जिसे वे गैर-मुसलमानों से जबरन वसूला करते थे।
हिंदुओं का कत्लेआम करवाया
औरंगज़ेब ने तलवार या शासन का भय दिखाकर बड़े पैमाने पर हिंदुओं का कन्वर्जन करवाया। इस्लाम न स्वीकार करने पर निर्दोष एवं निहत्थे हिंदुओं का क़त्लेआम करवाने में भी कोई संकोच नहीं किया। मज़हबी सनक में उसने गुरु तेगबहादुर और उनके तीन अनुयायियों भाई मति दास, सती दास और दयाल दास को अत्यंत क्रूरता एवं निर्दयता के साथ मरवा दिया। गुरुगोविंद सिंह जी के साहबजादों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया, संभाजी को अमानुषिक यातनाएँ दीं। जिस देश में श्रवण कुमार और देवव्रत भीष्म जैसे पितृभक्त पुत्रों और राम-भरत-लक्ष्मण जैसे भाइयों की कथा-परंपरा प्रचलित हो, वहाँ अपने बूढ़े एवं लाचार पिता को कैद में रखने वाला तथा अपने तीन भाइयों दारा, शुजा और मुराद की हत्या कराने वाला व्यक्ति जनसामान्य का आदर्श या नायक नहीं हो सकता! सम्राट अशोक के अपवाद को उदाहरण की तरह प्रस्तुत करने वाले लोग स्मरण रखें कि लोक में उनकी व्यापक स्वीकार्यता का मूल कारण उनका प्रायश्चित-बोध एवं मानस परिवर्तन के बाद सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा जैसे शाश्वत मानवीय सिद्धांतों के प्रति उपजी दृढ़ निष्ठा थी, न कि साम्राज्य-विस्तार की लालसा या युद्ध-पिपासा। यह मनुष्यता का तक़ाज़ा है कि किसी भी सभ्य, स्वस्थ, उदार, सहिष्णु एवं लोकतांत्रिक समाज में औरंगज़ेब जैसे क्रूर, बर्बर एवं अत्याचारी शासक के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
ये था टीपू का चेहरा
टीपू का महिमामंडन करने वाले लोग भी उसकी क्रूरता, मतांधता एवं कट्टरता के विवरणों से भरे ऐतिहासिक प्रमाणों एवं अभिलेखों पर मौन साध जाते हैं। 19 जनवरी, 1790 को बुरदुज जमाउन खान को एक पत्र में टीपू ने स्वयं लिखा है, ‘क्या आपको पता है कि हाल ही में मैंने मालाबार पर एक बड़ी जीत दर्ज की है और चार लाख से अधिक हिंदुओं का इस्लाम में कन्वर्जन करवाया है।’ सईद अब्दुल दुलाई और अपने एक अधिकारी जमान खान को लिखे पत्र में वह कहता है, ‘पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदुओं को मुसलमान बना दिया है। केवल कोचिन स्टेट के सीमावर्ती इलाकों के कुछ लोगों का कन्वर्जन अभी नहीं कराया जा सका है। मैं जल्द ही इसमें भी क़ामयाबी हासिल कर लूँगा।’ टीपू ने घोषित तौर पर अपनी तलवार पर खुदवा रखा था -‘ मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि मैं संसार से क़ाफ़िरों (ग़ैर मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ।’ ‘द मैसूर गजेटियर’ के अनुसार टीपू ने लगभग 1000 मंदिरों का ध्वंस करवाया था। स्वयं टीपू के शब्दों में, ‘यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए, तब भी मैं हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं रुकूँगा’ (फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल)। 1760 से 1790 के कालखंड में उसने कोडागु में 600 से अधिक मंदिरों को नष्ट करवाया। अन्यान्य अनेक स्रोतों से पता चलता है कि टीपू ने लगभग 8000 मंदिरों को तुड़वाया। 19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार में अधिकारी रहे लेखक विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’, 1964 में प्रकाशित
दक्षिण का औरंगज़ेब था टीपू
केट ब्रिटलबैंक की ‘लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान’ आदि पुस्तकों तथा उसके एक दरबारी एवं जीवनी लेखक मीर हुसैन किरमानी के विवरणों से ज्ञात होता है कि टीपू वास्तव में एक अनुदार, असहिष्णु, मतांध, क्रूर एवं अत्याचारी शासक था। ग़ैर-मुस्लिम प्रजा पर बेइंतहा जुल्म ढाने, लाखों लोगों का जबरन मतांतरण करवाने तथा हजारों मंदिरों को तोड़ने के मामले में वह दक्षिण का औरंगज़ेब था। इतिहासकार डॉ चिदानंद मूर्त्ति के अनुसार मांड्या जिले के मेलकोट के ब्राह्मण आज भी दिवाली नहीं मनाते क्योंकि टीपू ने दीपावली के एक दिन पूर्व वहाँ बड़े पैमाने पर ब्राह्मणों का नरसंहार करवाया था। इस नरसंहार का उल्लेख उस समय ब्रिटिश सेना में मद्रास के कमांडर रहे जॉर्ज हैरिस की डायरी में भी मिलता है। आरोप तो यहाँ तक लगते हैं कि उसने अफ़ग़ान शासक जमान शाह समेत कई विदेशी शासकों को भारत पर आक्रमण हेतु आमंत्रण भी भेजा था।
कट्टरपंथी मानसिकता का परित्याग जरूरी
इन सबके बावजूद यदि स्वतंत्र भारत में बार-बार औरंगजेब या टीपू सुल्तान को एक समुदाय अपने आदर्श या नायक की तरह प्रस्तुत करेगा तो इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है, जो महाराष्ट्र के अनेक शहरों में अभी हाल ही में देखने को मिला। समरस समाज के लिए ‘गज़वा-ए-हिंद’ जैसे काल्पनिक स्वप्न एवं कट्टरपंथी मानसिकता का परित्याग वर्तमान की आवश्यकता है। जिन इस्लामिक शासकों या आक्रांताओं के चरित्र बहुसंख्यक प्रजा पर अन्याय एवं अत्याचार ढाने को लेकर इतिहास में कलंकित रहे हों, उन पर गर्व करने से परस्पर अविश्वास एवं संघर्ष ही उत्पन्न होगा। औरंगज़ेब और टीपू जैसे कट्टर शासकों को नायक के रूप में स्थापित करने या ज़ोर-जबरदस्ती से बहुसंख्यकों के गले उतारने की कोशिशों की बजाय मुस्लिम समाज द्वारा रहीम, रसखान, दारा शिकोह, बहादुर शाह ज़फ़र, अशफ़ाक उल्ला खां, खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान, वीर अब्दुल हमीद एवं ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे साझे नायकों और चेहरों को सामने रखा जाये तो समाज में भाईचारा बढ़ेगा और टकराव की संभावना भी कम होगी। इससे सहिष्णुता की साझी संस्कृति विकसित होगी। कट्टर शासकों या आक्रांताओं में नायकत्व देखने व ढूंढ़ने की प्रवृत्ति अंततः समाज को बाँटती है। यह जहाँ विभाजनकारी विषबेल को सींचती है, वहीं अतीत के घावों को कुरेदकर उन्हें गहरा एवं स्थाई भी बनाती है। अच्छा होता कि भारत का उदार एवं प्रबुद्ध मुस्लिम समाज एवं नेतृत्व ऐसे चरित्रों एवं चेहरों को इतिहास में दफन करके उन पर गर्व करने की मनोवृत्ति एवं मानसिकता पर अंकुश व विराम लगाता। क्योंकि यह सर्वमान्य सत्य है कि भारत में आज जो मुसलमान हैं, उनमें से अधिकांश के पूर्वज भी इन मज़हबी आक्रांताओं, क्रूर एवं कट्टर शासकों के अन्याय-अत्याचार से पीड़ित होकर ही मतांतरित हुए थे। इसे मानने में ही सबकी भलाई है कि मज़हब बदलने से पुरखे, मातृभूमि व संस्कृति नहीं बदलती।
(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार)
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