पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 और भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीन हो गया था। लेकिन दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा के निर्धारण को लेकर राजपत्र 17 अगस्त, 1947 को प्रकाशित किया था।
स्वाधीनता के समय भारत विभाजन के दौरान करोड़ों लोगों ने अकल्पनीय हिंसा झेली। इस हिंसा के पीछे विभाजन से कहीं अधिक उत्तरदायी अंग्रेजों और कांग्रेस द्वारा विभाजन रेखा पर अंत तक रहस्य बनाए रखना था। स्वाधीनता के समय दोनों देशों अर्थात भारत व पाकिस्तान की सरकारों को भी अपनी सीमाओं की सही जानकारी नहीं थी। बंगाल किधर रहेगा, इस पर 20 जून, 1947 को मतदान कराया गया। उसके बाद भी पंजाब और बंगाल के जिलों के विभाजन पर 17 अगस्त, 1947 तक असमंजस बना रहा।
भारत-पाक सीमाओं का निर्धारण
पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 और भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीन हो गया था। लेकिन दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा के निर्धारण को लेकर राजपत्र 17 अगस्त, 1947 को प्रकाशित किया था। चूंकि उस समय आज जैसी सूचना व्यवस्था नहीं थी, इसलिए दिल्ली से प्रकाशित राजपत्र की सूचना जब प्रदेशों, जिलों और गांवों तक पहुंची और सीमावर्ती जिलों की जनता को पता चला कि उनका गांव-बस्ती किस देश में है, तब तक पाकिस्तान में हिंसा फैल चुकी थी। हिंसा के बीच ही लोगों को घर और संपत्ति छोड़ कर भागना पड़ा था। 15 अगस्त, 1947 तक बंगाल के खुलना और चटगांव हिल ट्रैक्ट जैसे हिंदू बहुल जिलों की जनता ने तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि अंग्रेजों और कांग्रेस नेतृत्व की दुरभिसंधि के कारण उन्हें पाकिस्तान में जाना पड़ेगा।
बहरहाल, सीमा निर्धारण के बाद पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब में पाकिस्तान की सरकारें बनीं, तो उन जिलों के बहुसंख्यक हिंदू पलायन के लिए विवश हो गये। वे भयावह हिंसा के शिकार हुए। लाखों हिंदुओं की हत्या की गयी। बच्चों की भी निर्ममता से हत्या की गयी। लोग विकलांग हुए, महिलाओं का अपहरण, फिर बलात्कार किया गया। कुल मिलाकर स्वाधीनता के बाद सीमा की जानकारी देना किसी आपराधिक लापरवाही से कम नहीं था। एक तरफ स्वाधीनता की खुशी में समारोह आयोजित किये जा रहे थे, दूसरी तरफ आबादी के एक हिस्से को मालूम ही नहीं था कि वह किस देश में है। असमंजस में फंसी सीमावर्ती जिलों की जनता हिंसा की शिकार हो रही थी। लेकिन कांग्रेस के नेता स्वाधीनता समारोहों में सम्मान बटोर रहे थे।
विभाजन पर कांग्रेस की सहमति
माउंटबेटन द्वारा 3 जून को प्रस्तुत भारत विभाजन और 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता की योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने उसी दिन सहमति दे दी थी। लेकिन कांग्रेस सहित किसी को तब तक यह मालूम नहीं था कि बंगाल किधर जाएगा और पंजाब के जिलों का विभाजन कैसे होगा। बाद में कई हिंदू बहुल क्षेत्रों सहित दो तिहाई बंगाल और पंजाब का 80 प्रतिशत भाग पाकिस्तान में चला गया। हिंदू बहुल बंगाल को भारत में रखने को लेकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आजाद हिंद फौज के मेजर जनरल अनिल चंद्र चटर्जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने आंदोलन किये।
इन आंदोलनों के बाद 20 जून को बंगाल की विधानसभा की तीन बैठकें हुईं, जिसमें पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल के विधायकों की अलग-अलग बैठकें और एक संयुक्त बैठक शामिल थी। इसमें इस मुद्दे पर मतदान कराया गया कि पूरा बंगाल भारत और पाकिस्तान से भिन्न एक तीसरा स्वतंत्र देश बने या भारत या पाकिस्तान के भीतर संयुक्त बंगाल के रूप में रहे या बंगाली मुसलमानों और बंगाली हिंदुओं के लिए क्रमश: पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल में विभाजित होकर क्रमश: पाकिस्तान और भारत में चला जाए।
प्रारंभिक संयुक्त सत्र में विधानसभा ने मतदान में 120-90 मतों से फैसला किया कि अगर वह पाकिस्तान की नयी संविधान सभा में शामिल हो जाती है तो उसे एकजुट रहना स्वीकार है। पश्चिम बंगाल के विधायकों (जिसमें अधिकांश हिंदू थे) की एक अलग बैठक में 58-21 मतों से निर्णय लिया गया कि प्रांत का विभाजन किया जाना चाहिए और भारत में विलय के लिए पश्चिम बंगाल को भारत की संविधान सभा में शामिल होना चाहिए। इसी मुद्दे पर पूर्वी बंगाल के विधायकों की बैठक में 107-34 से निर्णय लिया गया कि विभाजन की स्थिति में पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान में शामिल होना चाहिए। इससे पश्चिम बंगाल को भारत के एक प्रांत के रूप में तथा पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान के डोमिनियन प्रांत के रूप में गठन को लेकर अनुकूल वातावरण बना। बंगाल विभाजन का अंतिम निर्णय और प्रारूप 17 अगस्त, 1947 को आया था। इसमें इसमें कई हिंदू बहुल क्षेत्रों को पाकिस्तान को सौंप दिया गया, जिस पर कांग्रेस ने स्पष्ट विरोध नहीं किया था।
सीमाओं पर असमंजस
रेडक्लिफ ने सीमा निर्धारण का निर्णय 12 अगस्त, 1947 को ही कर दिया था, लेकिन उसे घोषित नहीं किया गया था। तब माउंटबेटन 13 अगस्त को पाकिस्तान चले गये थे। वहां 14 अगस्त को उन्हें कराची में आयोजित पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल होना था। दूसरे दिन 15 अगस्त, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता दिवस समारोह था। आश्चर्य की बात यह है कि स्वतंत्रता दिवस के ऐतिहासिक अवसरों पर भी दोनों देशों की सरकारों और नागरिकों को अपने-अपने देश की सीमाओं की जानकारी नहीं थी। माउंटबेटन ने 16 अगस्त को रेडकिल्फ अवार्ड पर भारत और पाकिस्तान के नेताओं के साथ औपचारिक चर्चा कर 17 अगस्त को इसका प्रकाशन किया। तब तक विभाजन के दंगों की आग फैल चुकी थी और इसी हिंसा की आग में झुलसते हुए हिंदुओं को सीमाएं पार करनी पड़ीं।
जवाहर लाल नेहरू की सम्भवत: शासन सम्हालने में अक्षमता और विभाजन के बाद फैली हिंसा को नियंत्रित करने में विफलता के कारण ही माउंटबेटन को स्वाधीन भारत का गवर्नर जनरल बनाये रखा गया। दूसरी ओर मोहम्मद अली जिन्ना स्वाधीन पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बन चुके थे। इधर, स्वाधीनता के बाद भी नेहरू ने ब्रिटिश अधिकारी को ही सेनाध्यक्ष बनाये रखा। लिहाजा, जब 22 अक्तूबर को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया तो ब्रिटिश सेनाध्यक्ष और गवर्नर जनरल ने इस हमले की सूचना नेहरू को 48 घंटे बाद दी और कश्मीर मुद्दे को उलझाने में नेहरू को दिग्भ्रमित किये रखा।
तीसरा देश बनाने का कुचक्र
कलकत्ता में डायरेक्ट एक्शन के नाम पर 16 अगस्त, 1946 को हिंदुओं का नरसंहार हुआ था। इस नरसंहार के कसाई के रूप में पहचाने जाने वाले ब्रिटिश बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री हुसैन सुहरावर्दी ने संयुक्त बंगाल को भारत व पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र देश बनाने का प्रस्ताव दिया था। दुर्भाग्य से कई कांग्रेस नेता जैसे शरतचंद्र बोस, किरण शंकर रॉय (बंगाल विधानसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता), सत्य रंजन बख्शी आदि ने पूरे बंगाल को एक संप्रभु संपन्न समाजवादी बंगाल गणराज्य बनाने का राग अलापना प्रारंभ कर दिया।
सुहरावर्दी सहित इन नेताओं ने जोर-शोर से इसका प्रचार भी प्रारम्भ कर दिया था। हालांकि कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग इसके विरुद्ध था। लेकिन स्वतंत्र बंगाल राष्ट्र के नाम पर मुस्लिम लीग पूरा बंगाल पाकिस्तान को दिलाने के लिए अड़ गयी थी।
तब हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल को पूर्वी बंगाल से अलग कर भारत में शामिल करने के लिए व्यापक आंदोलन शुरू हुआा। पश्चिम बंगाल के एक-एक विधायक से बात की गयी। उनसे वचन लिया गया कि वे बंगाल के भविष्य पर 20 जून को होने वाले मतदान में पश्चिम बंगाल का विलय भारत में करने के पक्ष में मतदान करेंगे। यही नहीं, आंदोलनकारियों ने जन प्रतिनिधियों पर दबाव बनाने के लिए पूरे पश्चिम बंगाल में बड़ी-बड़ी सभाएं और नुक्कड़ सभाएं भी कीं। पश्चिम बंगाल में संघ के स्वयंसेवकों ने घर-घर जाकर लोगों से संपर्क किया। यही नहीं, संयुक्त बंगाल के कांग्रेसी नेताओं को भी तैयार किया कि वे भारत में पश्चिम बंगाल के विलय के पक्ष में मतदान करें। इस तरह, आंदोलनकारियों ने सर्वसम्मत जनमत विकसित किया। यही कारण रहा कि मतदान में बहुमत हिंदुओं के पक्ष में रहा और पश्चिम बंगाल का भारत में विलय का निर्णय हो सका था। इसके बावजूद सीमा की जानकारी 17 अगस्त, 1947 को ही हो सकी थी।
दुर्भाग्य से कई कांग्रेस नेता जैसे शरतचंद्र बोस, किरण शंकर रॉय (बंगाल विधानसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता) सत्य रंजन बख्शी आदि ने पूरे बंगाल को एक संप्रभु संपन्न समाजवादी बंगाल गणराज्य बनाने का राग अलापना प्रारंभ कर दिया। हालांकि कांग्रेस का
एक बड़ा वर्ग इसके विरुद्ध था।
हिंदू बहुल जिले पाकिस्तान को दिये
देश के सशस्त्र बलों ने जनवरी 1947 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया था। इस कारण ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस, दोनों को ही डर था कि कहीं सत्ता सेना, क्रांतिकारियों या आजाद हिंद फौज के नेतृत्व, जिसके पक्ष में सभी विद्रोही सैनिक थे, के हाथ न चली जाए। इसलिए किसी ने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि विभाजन के बाद कौन-सा क्षेत्र किधर जाएगा?
सत्ता प्राप्ति की दौड़ में कांग्रेस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि बंगाल के खुलना, चटगांव हिल ट्रैक्ट जैसे हिंदू बहुल जिले पाकिस्तान को क्यों दे दिये गये। उस समय चटगांव हिल ट्रैक्ट जिले में मुसलमानों की कुल आबादी मात्र 7270 यानी 2.9 प्रतिशत थी। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने चुपचाप इस निर्णय को स्वीकार कर लिया था। दूसरी ओर, डॉ. मुखर्जी अंत तक यह मांग करते रहे कि पहले सीमा जानकारी देकर जनसंख्या की अदला बदली की जाए।
लेखक-पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह (उदयपुर) के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण
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