सारे देश के जनजातीय इलाकों में ऐसा झूठ फैलाया जाता रहा है, मानो हमारे संविधान ने जनजातीय अंचलों को भारत की विधि और प्रशासन के दायरे से स्वतंत्र घोषित कर दिया है। इस बार प्रयोग स्थल बना मध्य प्रदेश का बालाघाट जिला।
‘जनजातीय मान्यताएं कैसे प्रभावित हो जाएंगी?… ग्रामसभा से किस चीज की अनुमति लेनी पड़ेगी?… प्रायोजित पीआईएल मत लगाइये…!’ मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के इस वक्तव्य ने संविधान और जनजातीय क्षेत्रों को लेकर चल रहे, दशकों पुराने प्रायोजित दुष्प्रचार का पदार्फाश किया है। सारे देश के जनजातीय इलाकों में ऐसा झूठ फैलाया जाता रहा है, मानो हमारे संविधान ने जनजातीय अंचलों को भारत की विधि और प्रशासन के दायरे से स्वतंत्र घोषित कर दिया है। इस बार प्रयोग स्थल बना मध्य प्रदेश का बालाघाट जिला।
23 व 24 मई को बालाघाट के नक्सल प्रभावित, जनजातीय बहुल परसवाड़ा में, आचार्य धीरेन्द्रकृष्ण शास्त्री द्वारा ‘वनवासी रामकथा’ का आयोजन प्रस्तावित था। स्वाभाविक था कि इसमें स्थानीय जनजातीय समाज की बड़ी भागीदारी होती। वह हुई भी, लेकिन स्थानीय टूलकिट गिरोह सक्रिय हो गया। लोगों को रामकथा के खिलाफ लामबंद करने के षड्यंत्र विफल हुए। रामकथा तो रुकी नहीं, और ये लोग ‘पेसा’ कानून का हवाला देते हुए न्यायालय जा पहुंचे। जनजातीय हितों की रक्षा के लिए 1996 में पेसा नामक केन्द्रीय कानून बनाया गया, जिसे राज्य सरकारों को अपने राज्यों में लागू करने का अधिकार था। मध्यप्रदेश ने हाल ही में मध्य प्रदेश पेसा अधिनियम 2022 लागू किया है।
साजिशों की टूलकिट
टूलकिट केवल नगरों-महानगरों के लिए नहीं बनाई जा रहीं, भारत के जनजातीय अंचल भी इनके निशाने पर हैं। हर जगह की तरह यहां भी साजिश के कुछ आजमाए हुए तरीके हैं। पहला चरण, समाज के एक वर्ग की अलग पहचान खड़ी करना, उस पहचान को केंद्र में रखते हुए असंतोष को उभारना, फिर उस असंतोष को संघर्ष में बदलना और संघर्ष की आग पर अपने मतलब की रोटियां सेंकना। साजिश के मोहरे व्हाट्सअप, यूट्यूब, फेसबुक से लेकर धरनों, मोर्चों और अदालत में लगाई जाने वाली याचिकाओं तक बिछाए जाते हैं।
भारत के समाज में संवादहीनता की कुछ दरारें हैं, जिनका लाभ उठाकर ये इकोसिस्टम झूठ गढ़ता है, और फिर उसे अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग मंचों से दोहराए चला जाता है। न्यायालय ने कानून रक्षा का अपना काम किया है।
सो, रामकथा रोकने को याचिका लगाई गई जिसमें कहा गया कि ‘जनजातीय क्षेत्रों में ‘हिन्दुइज्म को फैलाने’ के लिए किए जा रहे 23 और 24 मई के आयोजन को रोका जाए, जो जनजातीय मान्यताओं (ट्राइबल माइथोलॉजी) को प्रभावित करता है… यह क्षेत्र संविधान के अनुसार घोषित जनजातीय क्षेत्र है। आर्टिकल 95 में कुछ बंधन दिए गये हैं। यहां पेसा अधिनियम लगा है। आंचलिक और सांस्कृतिक आयोजन ग्रामसभा की अनुमति से ही हो सकते हैं,’ इत्यादि।
निराकरण करते हुए माननीय न्यायालय ने स्वयं पेसा के प्रावधान को पढ़कर सुनाया और याचिकाकर्ता से प्रश्न पूछा …‘ग्रामसभा, लोगों की परंपराओं, रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधनों और विवाद निपटाने के रूढ़िजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने के लिए सक्षम होगी… ग्राम पंचायत स्तर पर प्रत्येक पंचायत से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह ग्रामसभा से, खंड ड में निर्दिष्ट योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए उन पंचायत द्वारा निधियों के उपयोग का प्रमाणन प्राप्त करे।
…. कहां है (अर्थात जो आप कह रहे हैं?)… यदि कल मैं वहां जाना चाहता हूं, एक रैली या सभा करना चाहता हूं, तो? कहां लिखा है कि ग्रामसभा से अनुमति लेने की आवश्यकता होगी?… 1996 के पेसा अधिनियम में कहीं ऐसी अनुमति लेने का प्रवधान नहीं है..।’ इसी पक्ष से एक अन्य वकील महोदय ने तर्क दिया कि ये स्थान ‘बड़ादेव’ का क्षेत्र है, यहां रामकथा नहीं हो सकती।
इस पर उच्च न्यायालय ने पूछा कि बड़ादेव की क्या मान्यताएं हैं, कहां लिखी हैं? इस पर वकील महोदय चुप्पी साध गये। वास्तव में विषय के विद्वान बतलाते हैं कि शब्द ‘बड़ादेव’, ‘महादेव शिव’ का ही एक शब्दांतर है। ‘महा’ अर्थात ‘बड़ा’। भाव वही है।
लोगों की परंपराओं, रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधनों और विवाद निपटाने के रूढ़िजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने के लिए सक्षम होगी… ग्राम पंचायत स्तर पर प्रत्येक पंचायत से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह ग्रामसभा से, खंड ड में निर्दिष्ट योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए उन पंचायत द्वारा निधियों के उपयोग का प्रमाणन प्राप्त करे।
इस तरह पनपा इकोसिस्टम
वास्तव में जनजातीय समाज को भारत की सनातन परंपरा से तोड़कर अलग करने का षड्यंत्र डेढ़ शताब्दी से अधिक पुराना है। शुरुआत कन्वर्जन उद्योग ने की, बाद में इसमें नए खिलाड़ी जुड़ते गये। वामपंथ को अपनी विध्वंसात्मक गतिविधियों के लिए ये पटकथा भा गयी। नक्सल भर्ती अभियान के लिए भी ये अच्छा स्क्रीनप्ले बन गया। वोटों की गंध सूंघते कुछ दल भी इस दलदल का आनंद उठाने लगे। इस तरह एक इकोसिस्टम तैयार हुआ, जिसकी जड़ें छोटे-छोटे गांव-खेड़ों से लेकर, अर्बन नक्सलियों, विश्वविद्यालयों, मीडिया से लेकर अकूत पैसे और रसूख वाले बहुराष्ट्रीय कन्वर्जन तंत्र तक फैल गयीं।
स्थानीय छुटभैयों ने भी छोटी-छोटी जागीरें बनाने के लिए इस इकोसिस्टम की चाकरी कर ली। आधार बनाया ‘तुम हिंदू नहीं हो…’ के यूरोप जन्य प्रोपेगंडा को। बाद में इस प्रोपेगंडा को ईंधन देने के लिए, स्थानीय असंतोष को भुनाते हुए संविधान, संविधान प्रदत्त पांचवी अनुसूची, पेसा अधिनियम की शरारतपूर्ण व्याख्या की जाने लगी। इस गिरोह ने कुछ जनजातीय गांवों में लोगों को बरगला-धमकाकर स्वायत्त क्षेत्र घोषित करने के प्रयोग भी शुरू कर दिए।
जेएनयू में बैठे कुछ शहरी नक्सली ‘महिषासुर बलिदान दिवस’ और ‘होलिका शहादत दिवस’ जैसे जुमले गढ़ने लगे। लेख लिखे जाने लगे कि ये जनजातीय लोग हिंदू नहीं हैं, ये तो ‘असुरों के वंशज’ हैं। ये राम, शिव, गणेश, दुर्गा आदि का पूजन कैसे कर सकते हैं? इसी क्रम में ये तर्क प्रस्तुत किया गया कि परसवाड़ा में श्रीराम कथा से ‘जनजातीय मान्यताएं’ आहत होंगी।
दोहराए चले जाओ झूठ
पेसा में जनजातीय क्षेत्र की पारंपरिक ग्राम सभाओं को पंचायती व्यवस्था के अंतर्गत स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए कुछ अधिकार दिए गये हैं, जैसे ‘तालाब प्रबन्धन, मेला और बाजार का प्रबंध, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र ठीक चलें, आंगनबाड़ी में बच्चों को पोषक आहार मिले, आश्रम, शालाएं और छात्रावास बेहतर तरीके से चलें, शराब की नई दुकानें बिना ग्रामसभा की अनुमति के नहीं खुलेंगी, मनरेगा योजना के धन से कौन सा काम किया जायेगा, इसे पंचायत सचिव नहीं बल्कि ग्रामसभा तय करेगी आदि।
जनजातीय वर्ग के लोग वनोपज संग्रहण करने के साथ उसे बेच भी सकेंगे। वनोपज की दर ग्राम सभा तय करेंगी। जनजाति क्षेत्रों में केवल लाइसेंसधारी साहूकार ही निर्धारित ब्याज दर पर पैसा उधार दे सकेंगे। इसकी जानकारी भी ग्राम सभा को देनी होगी। साहूकार द्वारा अधिक ब्याज नहीं लिया जा सकेगा…।’ इस सकारात्मक व्यवस्था को अराजकता का हथियार बनाने के प्रयासों पर न्यायालय ने तगड़ी चोट की है।
भारत के समाज में संवादहीनता की कुछ दरारें हैं, जिनका लाभ उठाकर ये इकोसिस्टम झूठ गढ़ता है, और फिर उसे अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग मंचों से दोहराए चला जाता है। न्यायालय ने कानून रक्षा का अपना काम किया है। जनजातीय क्षेत्रों से संवाद स्थापित और गहरा करने का काम समाज के रूप में हमारा है।
बहुत भोले, बहुत सादे लोग हैं। हमारे अपने लोग हैं, बस हाथ बढ़ाने की देर है।
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