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…सतत जलती रही क्रांति-ज्वाला

कालापानी की सजा पाने वाले वीर सावरकर ने अंदमान की सेल्यूलर जेल से रिहाई के बाद भी न केवल आजादी मिलने तक क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रखीं, बल्कि अनेक युवा क्रांतिकारी भी तैयार किए। साथ ही, क्रांतिकारी लेख और कई पुस्तकें भी लिखीं

by डॉ. नीरज देव
May 28, 2023, 10:05 am IST
in भारत, विश्लेषण
विनायक दामोदर सावरकर

विनायक दामोदर सावरकर

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इतिहास बतलाता है कि जिस जमाने में सशस्त्र क्रांति अंग्रेजों को बगावत और राजद्रोह, कांग्रेसियों को अत्याचार तथा भारतीय जनमानस को आत्मघात लगती थी, वह वीर सावरकर की बोलचाल व व्यवहार में बार-बार झलकती थी।

अंदमान जेल से मुक्त होने के पश्चात विनायक दामोदर सावरकर क्रांति कार्य से दूर रहे, ऐसा बहुतों का मानना है। सावरकर और हिंदुत्व विरोधी खेमा तो ऐसा आरोप लगाता ही है, लेकिन कतिपय सावरकर विचारकों को भी ऐसा ही लगता है। कोई कुछ भी कहे, लेकिन इतिहास चीख-चीखकर कहता है, ‘‘सावरकर जन्म से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति तक सशस्त्र क्रांतिकारी ही थे।’’ आइए, उसी इतिहास में झांकें –

इतिहास बतलाता है कि जिस जमाने में सशस्त्र क्रांति अंग्रेजों को बगावत और राजद्रोह, कांग्रेसियों को अत्याचार तथा भारतीय जनमानस को आत्मघात लगती थी, वह वीर सावरकर की बोलचाल व व्यवहार में बार-बार झलकती थी। लेकिन क्रांति कार्य में गोपनीयता बरते जाने के कारण बहुत से तथ्य कहे या लिखे नहीं जाते, बल्कि समझने पड़ते हैं। फिर भी हम यहां पर उन्हीं तथ्यों की बात करेंगे जो सप्रमाण सिद्ध हो चुके हैं।

श्रीगुरु जी (बाएं) के साथ सावरकर (दाएं)

क्रांतिकारियों पर लेखों के अलावा सावरकर ने ‘हिंदू पदपादशाही’, ‘लंदन अर्थात् शत्रु के खेमे में’ नामक दो ग्रंथ व जनता शस्त्र का महत्व समझाने के लिए ‘संगीत सन्यस्त खड्ग’ नाटक भी लिखा

स्वभाव से क्रांतिकारी
सावरकर जी स्वभाव से क्रांतिकारी थे। 1920 में ब्रिटिश भारत सरकार के सचिव एच. मैकफर्सन लिखते हैं, ‘‘विनायक ही असली खतरनाक व्यक्ति है और उसे रिहा करने से जुड़ा ऐतराज उसके अपराध से न होकर, उसके स्वभाव से जुड़ा है।’’ मैक्फर्सन की यह टिप्पणी स्पष्ट करती है कि ‘‘सावरकर का स्वभाव ही सशस्त्र क्रांतिकारी का था।’’ स्वभाव वह होता है, जो मूलत: कभी बदलता नहीं, सिर्फ परिस्थिति के अनुसार अपना तरीका बदलता है। यह तथ्य स्वीकार करें, तो सशस्त्र क्रांतिकारी वीर सावरकर ने अंदमान के बाद क्रांति कार्य छोड़ा नहीं था, बल्कि थोड़ी सावधानी बढ़ाई थी।

इस संदर्भ में रत्नागिरि में रहने वाले, लेकिन विचारों से रायिस्ट रहे ना.स. बापट की टिप्पणी बहुत कुछ कह जाती है। वे लिखते हैं, ‘‘क्रांति कार्य की पद्धति उन्हें (सावरकर जी को) भली-भांति अवगत हो चुकी थी। इतना ही नहीं, क्रांति के ध्येय की आग, जो उनमें निरंतर धधकती रहती थी, उसी के कारण उस स्थानबद्धता की अर्धमुक्त अवस्था में भी वह बहुत कुछ कर पाए। स्वभाव से क्रांतिकारी अनुकूल परिस्थिति की राह जोहते नहीं बैठता, अपितु वैसी परिस्थिति निर्माण करने का प्रयास करता रहता है। अंदमान हो या रत्नागिरि, सावरकर जी ने अपने भीतर क्रांति को कभी मद्धिम नहीं पड़ने दिया।’’ (स्मृतिपुष्पे पृ. 14) इस टिप्पणी के प्रकाश में देखें तो सावरकर जी रत्नागिरि में भी सशस्त्र क्रांति कार्य से जुड़े हुए थे। इस बात की पुष्टि रत्नागिरि रायिस्ट बापट करते हैं।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ वीर सावकर

चर्चा भी क्रांति कार्य की
अंग्रेजी राज में क्रांतिकार्य पर बात करना भी अपराध माना जाता था। लेकिन सावरकर जी आरंभ से ही सशस्त्र क्रांति कार्य पर स्पष्ट रूप से बोलते थे, उसी का सम्मान करते थे। रत्नागिरि के संदर्भ में विचार करें तो उस पाबंदी भरे जीवन में सावरकर जी सार्वजनिक मंच से बोलते समय सावधानी बरतते थे, लेकिन व्यक्तिगत चर्चा में क्रांति कार्य की बात दृढ़ता से करते थे। ना.स. बापट अपनी आत्मकथा स्मृतिपुष्पे में लिखते हैं, ‘‘सावरकर जी कभी-कभी उनसे मिलने आए अपरिचित लोगों से भी क्रांति कार्य की बातें बेझिझक करते थे।’’ इस प्रकार बातें करना बापट को खतरे से भरा लगता था, जो सही था। लेकिन कालापानी से लौटे और पाबंदी से घिरे सावरकर जी बार-बार वह खतरा उठा रहे थे।

सशस्त्र क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत गोगटे, वामनराव चव्हाण आदि का अनुभव बापट के अनुभव से अलग नहीं है। मराठी नाटककार और साहित्यकार चिंतामणराव कोल्हटकर अपनी आत्मकथा ‘बहुरूपी’ (पृ. 227) में लिखते हैं, ‘‘एक दिन सावरकर जी ने अचानक मुझसे पूछा- आपसे एक बात पूछूं? मेरे हां कहते ही उन्होंने पूछा- अगर राष्ट्र ने स्वतंत्रता संग्राम हेतु आह्वान दिया तो क्या आप उस युद्ध में कूद पड़ोगे?’’ उपरोक्त सभी प्रमाण इसी बात के परिचायक हैं कि अंदमान जेल से छूटने के बाद भी सावरकर मन-वाणी से सशस्त्र क्रांति कार्य से जुड़े रहे।

वीर सावरकर (28 मई, 1883-26 फरवरी, 1966)

  •  1898 में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र सैन्य विद्रोह की प्रतिज्ञा ली। 1 जनवरी, 1900 को क्रांतिकारी संगठन ‘मित्र मेला’ की स्थापना।
  • 1 मार्च, 1901 को विवाह और उसी वर्ष मैट्रिक परीक्षा में उत्तीर्ण।
  •  24 जनवरी, 1902 में पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में दाखिला लिया।
  •  मई 1904 में क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत’ की स्थापना।
  •  नवंबर 1905 में पहली बार पुणे में विदेशी कपड़ों की होली जलाई।
  • दिसंबर 1905 में बीए की पढ़ाई पूरी कर जून 1906 में इंग्लैंड गए।
  •  10 मई, 1907 को लंदन में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की 50वीं वर्षगांठ पर समारोह का आयोजन किया।
  •  जून 1907 में ‘जोसफ मज्जिनी’ पुस्तक लिखी, जिसे बाद में बाबाराव सावरकर ने प्रकाशित किया।
  •  1908 में ‘1857 का स्वतंत्रता संग्राम’ पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन हॉलैंड में गुपचुप तरीके से हुआ।
  •  मई 1909 में कानून की पढ़ाई पूरी की, लेकिन वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।
  •  24 अक्तूबर, 1909 में लंदन के इंडिया हाउस में गांधीजी की अध्यक्षता में विजयादशमी मनाई।
  •  13 मार्च, 1910 को पेरिस से लंदन आने के बाद गिरफ्तार हुए। 8 जुलाई को भारत लाते समय जहाज से कूदकर भाग गए।
  •  24 दिसंबर, 1910 और 31 जनवरी, 1911 में उम्रकैद की सजा सुनाई गई। ब्रिटिश राज में दो बार उम्रकैद पाने वाले एकमात्र व्यक्ति।
  •  4 जुलाई, 1911 को अंदमान की सेल्यूलर जेल लाया गया।
  •  21 मई, 1921 को सेल्यूलर जेल से रिहाई के बाद तीन वर्ष अलीपुर और रत्नागिरि जेल में रहे।
  •  6 जनवरी, 1924 को यरवदा जेल से छूटे, लेकिन रत्नागिरि में नजरबंद किए गए।

क्रांतिकारी लेखन
अंदमान से रिहा होने के बाद सावरकर जी ने शचींद्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, बालमुकुंद, लज्जावती, विष्णु गणेश पिंगळे, पांडुरंग सदाशिव खानखोजे, अशफाक उल्ला खां वारसी आदि क्रांतिकारियों का परिचय देने वाले, उन्हें हुतात्मा उपाधि से सम्मानित वाले लगभग 40 लेख लिखे थे। उन्होंने विदेश में क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वाले देशभक्तों तथा स्वातंत्र्यवीर गोविंद पर भी चार लेखों की शृंखला लिखी थी।

सशस्त्र क्रांति कार्य का सम्मान करने वाला ‘चाहे तो शस्त्राचारी कहो, अत्याचारी नहीं’ शीर्षक से लेख उन्होंने इसी दौरान लिखा था, जिसके कारण साप्ताहिक ‘श्रद्धानंद’ पर प्रतिबंध लगाया गया और उसका प्रकाशन बंद हो गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि अमर हुतात्मा भगत सिंह ने भी इसी प्रकार के लेख लिखे थे। भगत सिंह के कुछ लेख सावरकर जी के लेखों का अनुसरण थे और उन्होंने ‘चाहे तो शस्त्राचारी कहो, अत्याचारी नहीं’ लेख का अनुवाद भी किया था। (देखिए, भगत सिंह के ऐतिहासिक दस्तावेज पृ. 243)

इन लेखों के अलावा उन्होंने मराठों के विश्वविजयी इतिहास को चित्रित करने वाला ‘हिंदू पदपादशाही’, ‘लंदन अर्थात् शत्रु के खेमे में’ ये दो ग्रंथ भी लिखे थे। जनता शस्त्र का महत्व समझे, इसलिए उन्होंने ‘संगीत सन्यस्त खड्ग’ नाटक भी लिखा था। उस समय के बड़े-बड़े नेताओं पर इस नाटक का प्रभाव कैसा पड़ रहा था, यह बताते हुए अभिनेता व निर्माता-निर्देशक चित्तरंजन कोल्हटकर लिखते हैं, ‘‘नागपुर में नाटक देखने के लिए जाने-माने कांग्रेसी नेता डॉ. ना.भा. खरे आए थे।

तथाकथित अहिंसा की धज्जियां उड़ाता नाटक का तीसरा भाग प्रारंभ हुआ और उसमें नायिका सुलोचना ने जैसे ही ‘शरण नहीं रण, मारते-मारते मरण’ संवाद बोला, डॉ. खरे गांधीवाद, अहिंसा को भूलकर नाटक के बीच खड़े होकर, उत्तेजना भरे शब्दों में बोले, ‘‘बस यही! बस यही, विचार कहने वाला कोई होना चाहिए।’’ ( बहुरूपी पृ. 270)

उक्त घटना इस बात की परिचायक है कि सावरकर जी के सशस्त्र क्रांतिकारी लेखन का जादू अंदमान के बाद भी बरकरार था। सावरकर जी के उपरोक्त सभी लेख अंदमान के बाद भी उनके सशस्त्र क्रांति कार्य से जुड़े होने का पुख्ता प्रमाण हैं।

क्रांतिकारियों से संबंध
उस जमाने में सामान्य जनता तो दूर, बड़े से बड़े राजाओं से लेकर समाज सुधारक तक, कोई भी सशस्त्र क्रांतिकारी से किसी भी प्रकार का संबंध रखना नहीं चाहता था। किसी क्रांतिकारी से संबंध रखना ब्रिटिश विरोधी माना जाता था। सावरकर जी रत्नागिरि में नजरबंद थे। सशस्त्र क्रांति कार्य की बात तो दूर, राजकीय भाष्य करने पर भी उन पर पाबंदी थी। फिर भी सेनापति बापट, वी.वी.एस. अय्यर, शचीन्द्रनाथ सान्याल, पृथ्वी सिंह आजाद, भगत सिंह, राजगुरु जैसे अनेकानेक क्रांतिकारी उनसे मिलने, सलाह-मशविरा करने उनके पास आते थे।

कुछ पुराने क्रांतिकारी सशस्त्र क्रांति का मार्ग छोड़कर गांधी जी के अहिंसक आंदोलन से जुड़ गए थे। वीर सावरकर से मिलने के बाद वे पुन: सशस्त्र क्रांति से जुड़ गए। इस संदर्भ में रत्नागिरि स्थित आ.ग. साळवी अपने संस्मरणों में लिखते हैं, ‘‘सावरकर जी से मिलने के पश्चात पृथ्वी सिंह आजाद फिर से क्रांतिकारी गतिविधि से जुड़ गए। अनेकानेक क्रांतिकारी उनसे चर्चा व मार्गदर्शन पाते थे।’’ (सावरकरांच्या सहवासात, पृ. 5)

उसी प्रकार, सेनापति बापट भी गांधीवाद छोड़कर पुन: सशस्त्र क्रांति से जुड़ गए। तब पुराने सहयोगी क्रांतिकारियों से मिलने में भी खतरा था। सावरकर जी ने हिम्मत देकर उन्हें अपनाया और उन्हें फिर से क्रांतिकारी गतिविधि से जोड़कर क्रांतिकारियों के नेता की अपनी भूमिका भी बखूबी निभाई।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सावरकर सदन में स्वातंत्र्य वीर सावरकर से भेंट की थी

युवाओं को क्रांति की दीक्षा
रत्नागिरि जैसे छोटे व पिछड़े नगर में भी सावरकर जी नए-नए क्रांतिकारी तैयार कर रहे थे। यह काम वह कैसे करते थे, यह बताते हुए आ.ग. साळवी लिखते हैं, ‘‘रत्नागिरि में सावरकर जी ने तीन गुट बनाए थे। एक, जो सामाजिक क्रांति के योग्य हो, दूसरा, जो सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधि के योग्य हो और तीसरा, जो पुलिस या सरकारी यंत्रणा से जुड़ा हो। पुलिस या सरकारी यंत्रणा से जुड़े लोगों में से कुछ को उन्होंने अपने पक्ष में कर लिया था, ताकि उन्हें गुप्त वार्ताओं की सूचना मिलती रहे।’’ (सावरकरांच्या सहवासात भाग 2, पृ. 7)

बालाराव सावरकर रत्नागिरि पर्व में सशस्त्र क्रांति से जुड़े वासुदेव बलवंत गोगटे, वामन चव्हाण, वासुदेव जिवाजी पवार, वासुदेव हर्डाकर, वैशम्पायन, मोघे, दामले आदि युवाओं के नाम गिनाते हैं। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियां किसी भी अन्य भारतीय क्रांतिकारी से कम नहीं थीं। उनमें से दो के बारे में चर्चा करेंगे-

वासुदेव बलवंत गोगटे का क्रांति कार्य: वीर सावरकर का चरित्र पढ़कर मिरज निवासी वासुदेव बलवंत गोगटे प्रभावित हो चुके थे। वे मई 1931 सावरकर जी से मिलने में रत्नागिरि पहुंचे। सावरकर जी से उनका परिचय नहीं था। फिर भी सावरकर जी ने उन्हें अपने घर पर ठहराया। जब उन्होंने सावरकर जी से पूछा, ‘‘युवकों को देश सेवा किस प्रकार करनी चाहिए?’’ तब सावरकर जी ने कहा, ‘‘मेरी मानें तो भगत सिंह, राजगुरु जैसी’’ (गोगटे हाटसन आत्मवृत्त पृ. 17-18)

सावरकर जी से मिलने के दो महीने बाद 22 जुलाई, 1931 को उन्होंने सोलापुर के हुतात्माओं का प्रतिशोध लेने हेतु पूना में गवर्नर अर्नेस्ट हाटसन पर दो गोलियां दागीं। उसने चिलखत (कवच) पहना हुआ था, इसलिए वह बच गया। सितंबर 1931 को गोगटे को 8 वर्ष की सजा सुनाई गई। कल्पना कीजिए, अगर हाटसन ने चिलखत न पहना होता और उसकी मृत्यु हो जाती तो? गोगटे बिना फांसी के छूटते? क्या मात्र फांसी न होने से गोगटे का वीर कृत्य चापेकर, कान्हेरे, ढींगरा या भगत सिंह से कम आंकना चाहिए? बिल्कुल नहीं। गोगटे के रूप में सावरकर जी ने नए हुतात्मा को ही तैयार किया था। याद रहे, गोगटे आजीवन सावरकर जी के साथ रहे।

सावरकर जी का मानना था कि अंग्रेज सेना में काम करने वाले भारतीय सैनिक यदि अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर दें, तो स्वतंत्रता सहजता से मिल जाएगी। इसीलिए सावरकर जी ने 1938 से युवाओं से सेना में भर्ती होने का आह्वान करना शुरू किया। वे कहते थे, ‘‘हमारे पास एक पिस्तौल मिली तो हमें अंदमान जाना पड़ा। अब स्वयं अंग्रेज सरकार ही आपको बंदूकें दे रही है। बंदूक चलाने का प्रशिक्षण दे रही है। साथ में वेतन भी दे रही है। तो जाओ! सीख लो।’’ कभी-कभी वह कह जाते, ‘‘एक बार बंदूक सीख तो लो! फिर किधर चलानी है, सोचेंगे।’’ याद रहे सावरकर जी के इसी सैन्यीकरण से आजाद हिंद फौज का निर्माण हुआ था।

वामन बाबूराव चव्हाण की वीरता: रत्नागिरि में सावरकर जी के साथ रहने वाले तथा उनकी सामाजिक क्रांति में हिस्सा लेने वाले वामन बाबूराव चव्हाण ने 26 अप्रैल, 1934 को मुंबई में ब्रिटिश अधिकारी स्वीटलैंड पर दो गोलियां दागी थीं। लेकिन वह बच गया। उन्होंने वहां से भागने की कोशिश की, लेकिन विफल रहे। उनके साथी गजानन दामले भी पकडेÞ गए। वामनराव को 7 साल की सजा सुनाई गई। (रत्नागिरि पर्व, पृ. 356-357)

वामनराव फांसी के लिए तैयार थे, लेकिन नसीब से बच गए और बलिदान होने से वंचित रहे। लेकिन उनका उद्देश्य और उनका कृत्य बलिदान से कहां कम था? वे भी आजीवन सावरकर जी के साथ रहे।

वामनराव चव्हाण से सीधा संपर्क होने के कारण इस मामले में वीर सावरकर को भी 8 मई, 1934 को कैद कर लिया गया। लेकिन सबूत नहीं होने के कारण 21 मई को रिहा कर दिया गया। इसके अलावा, 8 अक्तूबर, 1930 को पृथ्वी सिंह आजाद, दुर्गा भाभी के साथ वैशम्पायन, मोघे व बापट आदि ने मुंबई के लैमिंग्टन रोड पर अंग्रेज अधिकारी टेलर को मारने की कोशिश की। इसमें सम्मिलित क्रांतिकारी युवा सावरकर जी को प्रेरणास्रोत मानते थे। (रत्नागिरि पर्व, पृ. 255-256)

इसी प्रकार, सावरकर जी को अपना गुरु मानने वाले वासुदेव हर्डीकर, वासुदेव पवार, मंगेश पागनीस, रामचंद्र पाठारे, राजाराम देसाई आदि युवकों ने मुंबई के एम्पायर थियेटर, जहां केवल यूरोपीय लोग जाते थे, पर 25 मार्च और 10 अप्रैल, 1933 को बम विस्फोट किया था। ‘भगत सिंह व चितगांव का प्रतिशोध’ के पत्रक वहां पाए गए थे। कोई प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण सभी क्रांतिकारी छूट गए। (रत्नागिरि पर्व, पृ. 321) लेकिन इस घटना के कारण बाबाराव सावरकर को चार साल तक नासिक में नजरबंद रखा गया। (क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर-द.न. गोखले, पृ 307)

ये सभी घटनाएं यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि अंदमान जेल से छूटने के बाद भी सावरकर जी का सशस्त्र क्रांति कार्य से कितना निकट संबंध था। फिर भी सावरकर जी इससे भी बड़ा कदम उठाना चाहते थे। वह समय निकट आया, जब उन्हें 1937 में रत्नागिरि से मुक्त किया गया और दूसरे विश्वयुद्ध का आगाज होने लगा।

वीर सावरकर (28 मई, 1883-26 फरवरी, 1966)

 

  • 10 जनवरी, 1925 को स्वामी श्रद्धानंद की स्मृति में नई साप्ताहिक पत्रिका ‘श्रद्धानंद’ की शुरुआत की।
  •  1 मार्च, 1927 को गांधीजी, 22 सितंबर, 1931 को नेपाल के युवराज हेम बहादुर शमशेर सिंह और 22 जून, 1940 को सुभाषचंद्र बोस से भेंट।
  •  10 मई, 1937 को बिना शर्त रत्नागिरि में नजरबंदी से रिहा।
  •  10 दिसंबर, 1937 को अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 7 वर्ष तक लगातार अध्यक्ष रहे।
  •  15 अप्रैल, 1938 को मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए।
  •  1 फरवरी, 1939 को भाग्यनगर (हैदराबाद) के निजाम के विरुद्ध अहिंसक प्रतिरोध शुरू।
  •  14 अगस्त, 1943 को नागपुर विश्वविद्यालय और 8 अक्तूबर, 1959 को पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट की मानद उपाधि प्रदान की।
  •  5 नवंबर, 1943 को सांगली (महाराष्ट्र) में मराठी नाट्य सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए।
  •  19 अप्रैल, 1945 बड़ौदा (गुजरात) में अखिल भारतीय रियासतों के हिंदू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की।
  •  अप्रैल 1946 में बंबई सरकार ने सावरकर के साहित्य से प्रतिबंध हटाया।
  •  5 फरवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट के तहत गिरफ्तार और 10 फरवरी, 1949 को आरोपों से बरी।
  •  4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर गिरफ्तार कर बेलगाम जेल भेजा गया।
  •  15 अप्रैल, 1962 बंबई के राज्यपाल श्री श्री प्रकाश ने सम्मानित किया।

साहित्यिक मंच से सशस्त्र क्रांति की हुंकार
15 से 17 अप्रैल, 1938 को संपन्न मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सावरकर जी ने कहा, ‘‘मेरी दृष्टि से आज की परिस्थिति में साहित्य सृजन गौण कर्तव्य है। आने वाली दो-तीन पीढ़ियों में एक भी कवि, उपन्यासकार नहीं जन्मा तो भी चलेगा। लेकिन प्रत्येक युवा सैनिक बनना चाहिए। इसीलिए मैं आपको आह्वान करता हूं-‘कलम तोड़ो, बंदूक उठाओ!’ सावरकर जी का अध्यक्षीय मंतव्य यही दर्शाता है कि सशस्त्र क्रांतिकारी सावरकर साहित्यकार सावरकर पर हावी था।

हिंदू महासभा से सशस्त्र क्रांति का प्रचार
सावरकर जी का मानना था कि अंग्रेज सेना में काम करने वाले भारतीय सैनिक यदि अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर दें, तो स्वतंत्रता सहजता से मिल जाएगी। इसीलिए सावरकर जी ने 1938 से युवाओं से सेना में भर्ती होने का आह्वान करना शुरू किया। वे कहते थे, ‘‘हमारे पास एक पिस्तौल मिली तो हमें अंदमान जाना पड़ा। अब स्वयं अंग्रेज सरकार ही आपको बंदूकें दे रही है। बंदूक चलाने का प्रशिक्षण दे रही है। साथ में वेतन भी दे रही है। तो जाओ! सीख लो।’’ कभी-कभी वह कह जाते, ‘‘एक बार बंदूक सीख तो लो! फिर किधर चलानी है, सोचेंगे।’’ याद रहे सावरकर जी के इसी सैन्यीकरण से आजाद हिंद फौज का निर्माण हुआ था। ओहसावा अपनी पुस्तक ‘टू ग्रेट इंडियन्स इन जापान’ में पृष्ठ 48 पर लिखते हैं, ‘‘सावरकर के कारण सिंगापुर में आजाद हिंद सेना को 40,000 की फौज मिली।’’
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वीर सावरकर के अलावा किसी भी भारतीय नेता ने सैन्य भर्ती का अभियान नहीं चलाया था। यह अभियान मूलत: सशस्त्र क्रांति का ही अभियान था। स्वयं सावरकर जी कहते हैं, ‘‘यह हिंदू महासभा की व्यासपीठ से चलाया गया अभिनव भारत का अभियान था।’’

रास बिहारी बोस ने जापानी पत्रिका ‘दाई शुंगी’ में मार्च 1939 में ‘सावरकर: नए भारत का उदयोन्मुख नेता-उनका कार्य व व्यक्तित्व’ शीर्षक से दो लेख लिखे थे। वीर सावरकर का नेतृत्च स्वीकार कर, उन्हीं के विचारानुसार आजाद हिंद फौज का निर्माण किया था। सावरकर व रासबिहारी एक कद्दावर व युवा नेता की खोज कर रहे थे। उसी के चलते 1940 में वीर सावरकर जी ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस को सशस्त्र क्रांति की राह दिखाई।

मानो अंदमान के बाद एक बार फिर लाला हरदयाल तैयार किया। लाला जी ने गदर का नेतृत्व किया था, सुभाषचंद्र बोस आजाद हिंद फौज का नेतृत्व कर रहे थे। नेताजी के दुर्भाग्यपूर्ण निधन के पश्चात भी सावरकर निर्मित सेना बिना नेतृत्व के बगावत का झंडा उठाए खड़ी रही। फलस्वरूप अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।

उपरोक्त तथ्यों को देखें तो इतिहास गवाही देता है कि अंदमान से रिहाई के बाद भी सावरकर सशस्त्र क्रांतिकारी ही थे। आरंभ में छुपे व छितरे रूप से चल रहा उनका क्रांतिकार्य दूसरे विश्वयुद्ध का अवसर पाते ही विराट रूप धारण कर खड़ा हुआ और हिंदुस्थान को आजादी देकर विराम हुआ।
(लेखक पीएचडी समतुल्य उपाधि ‘दशग्रंथी सावरकर’ से सम्मानित हैं)

Topics: सावरकर और हिंदुत्व विरोधी खेमावीर सावरकर जयंतीशचींद्रनाथ सान्यालवीर सावरकर हिंदुत्वरामप्रसाद बिस्मिलटू ग्रेट इंडियन्स इन जापान’Netaji Subhash Chandra BoseSwatantra Veer Savarkarनेताजी सुभाषचंद्र बोसAndaman's Cellular JaillondonKalapani PunishmentIndian publicSavarkar and Anti-Hindutva Campस्वातंत्र्य वीर सावरकरVamanrao Chavanअंदमान की सेल्यूलर जेलNation Called for freedom struggleकालापानी की सजाRamprasad Bismil
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लंदन में ममता ने जो कहा और जो किया वह मजाक और अपमान का विषय बन कर रह गया।

लंदन जाकर ‘राहुल’ बनीं ममता, भारत की आर्थिक ताकत को नकार कर खुद को किया अपमानित

चित्र - भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर

खालिस्तानियों की हिमाकत! लंदन में विदेश मंत्री एस जयशंकर पर हमले की कोशिश, मौजूद रहे पुलिसकर्मी

रा.स्व.संघ शताब्दी सोपान (2) : हिन्दू गौरव से फैलेगा सौरभ

London man burnt Quran to tribute Salwan Momika

लंदन: तुर्की के दूतावास के सामने कुरान जलाकर सलवान मोमिका को श्रद्धांजलि दे रहे शख्स पर चाकू से हमला

गुस्से में तमतमाए लोगों ने हाथों में तख्तियां ले रखी थीं जिन पर 'दूतावास' विरोधी संदेश लिखे थे

सड़क पर उतरे London वाले, China के नए ‘जासूसी केन्द्र’ का विरोध, Europe में सबसे बड़े चीनी ‘दूतावास’ पर लटकी तलवार

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